By आरएन तिवारी | Sep 17, 2021
सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नुम: !!
प्रभासाक्षी के धर्म प्रेमियों !
पिछले अंक में हमने श्रीमद भागवत महापुराण कथा के अंतर्गत श्री सूत जी महाराज और सौनक आदि ऋषियों का संवाद तथा महर्षि वेदव्यास जी के असंतोष की कथा सुनी थी, आइए ! अब आगे की कथा का श्रवण करें।
महाभारत प्रसंग
भर्तु: प्रियं द्रौणिरिति स्म पश्यन् कृष्णासुतानां स्पतां शिरांसि
उपाहरत विप्रियमेव तस्य जुगुप्सितं कर्म विगर्हयन्ति।।
जिस समय महाभारत युद्ध में कौरव और पांडव दोनों पक्षों के बहुत से वीर मृत्यु को प्राप्त हो चुके थे। भीमसेन की गदा के प्रहार से दुर्योधन की जांघ टूट चुकी थी, दुर्योधन अत्यंत दुखी था यह सोचकर कि मैं सौ भाई था सबके सब मर गए पांडव पाँच थे और पांचों जीवित हैं। तब अश्वथामा ने अपने स्वामी दुर्योधन को खुश करने के लिए द्रौपदी के सोते हुए पुत्रों (श्रुतसेन, श्रुतकर्मा आदि) के सिर काटकर उसे भेंट किए। वास्तव में वह पांडवों के सिर काटने गया था। कृष्ण ने चतुराई से पांडवों को हटाकर द्रौपदी के पुत्रों को सुला दिया था। इस घटना से दुर्योधन प्रसन्न नहीं हुआ, बल्कि उसने भी ऐसे नीच कर्म की घोर निंदा की। उसने यह सोचा, यदि ये जीवित रहते तो मुझे जल और पिंड दान तो करते।
इधर द्रौपदी अपने पुत्रों का निधन सुनकर अत्यंत दुखी हुई, उसकी आंखों में आँसू छलछला गए, वह गला फाड़कर रोने लगी। अर्जुन ने सांत्वना दिया, मैं तुम्हारे आँसू तब पोछूंगा जब उस अधम अश्वथामा का सिर काटकर तुम्हें भेंट करूँगा। अर्जुन कृष्ण के साथ अश्वथमा का सिर काटने के लिए चले, उन्होंने अश्वथमा को पकड़ लिया, कृष्ण ने उसका वध करने के लिए अर्जुन को प्रेरित किया किन्तु अर्जुन का हृदय विशाल था। अर्जुन ने मारा नहीं जिंदा ही बाँधकर द्रौपदी के पास लाए। (वास्तव में भगवान कृष्ण अर्जुन के धर्म की परीक्षा लेना चाह रहे थे।)
अश्वथामा को लज्जित देखकर सती द्रौपदी का भी कोमल हृदय पिघल गया। अश्वथामा को मन ही मन प्रणाम किया और कहा-
उवाच चासहन्त्यस्य बन्धनानयनं सती।
मुच्यतां मुच्यतामेष ब्राह्मणो नितरां गुरु:॥
छोड़ दो इन्हें छोड़ दो ये हम लोगों के अत्यंत पूजनीय हैं। पतित ब्राह्मण का भी वध नहीं करना चाहिए। अपने बच्चों के मर जाने से जैसे मैं दुखी होकर रो रही हूँ वैसे ही गुरुमाता गौतमी दुखी होंगी। सूत जी कहते हैं– शौनकादि ऋषियों ! द्रौपदी की बात धर्म और न्याय के अनुकूल थी, कृष्ण आदि सभी ने समर्थन किया।
अश्वथामा को छोड़ दिया गया।
इसके बाद सूत जी कहते हैं- हे शौनक आदि ऋषियों ! श्रीकृष्ण के साथ युधिष्ठिर आदि भाइयों ने मरे हुए अपने भाई-बंधुओं का तर्पण किया। श्रीकृष्ण ने द्वारिका जाने की इच्छा प्रकट की और जैसे ही द्वारिका जाने के लिए रथ पर सवार हुए, देखा कि अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा भय से व्याकुल हो कर उनकी तरफ दौड़ी चली आ रही है।
पाहि पहि महायोगिन्देवदेव जगत्पते।
नान्यं त्वदभयं पश्ये यत्र मृत्यु: परस्परम्।।
हे महायोगी जगदीश्वर! मेरी रक्षा करो, यह दहकता हुआ ब्रह्मास्त्र मेरे गर्भ में पल रहे शिशु को नष्ट कर देगा। अंतर्यामी भगवान समझ गए कि अश्वथामा ने पांडवों के वंश को निर्वंश करने के लिए ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया है। श्रीकृष्ण समस्त प्राणियों के हृदय में विराजमान हैं। उन्होंने उत्तरा के गर्भ को पांडवों की वंश परंपरा चलाने के लिए अपनी माया कवच से ढंक लिया। जब भगवान चलने के लिए तैयार हुए, तो कुंती मैया ने उनकी स्तुति की।
कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनंदनाय च,।
नंदगोपकुमाराय गोविंदाय नमो नमः॥
हे प्रभो! आपने अनेक विपत्तियों से हमारी रक्षा की है। विष से, लाक्षागृह की धधकती आग से, हिडिंब आदि राक्षसों की बुरी नजर से, वनवास के दुख से, महारथियों के अस्त्र-शस्त्र से और अभी-अभी इस अश्वथामा के ब्रह्मास्त्र से आपने ही हमें बचाया है।
हे जगतगुरु! हमारे जीवन में सर्वदा विपत्तियाँ आती रहे, क्योंकि विपत्तियों मे प्रभु के दर्शन होते हैं। धन्य है कुंती का जीवन, भगवान से दुख मांगती है ताकि उनका साक्षात्कार होता रहे।
विपद: सन्तु न: शश्वत तत्र तत्र जगत्गुरो।
भवतो दर्शनं यत् स्यात् अपुन: भवदर्शनम्।।
क्रमश: अगले अंक में --------------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
- आरएन तिवारी