तीस हजारी कोर्ट में एक मामूली बात पर पुलिस और वकीलों के बीच भिड़ंत हो गई, बाद में वकीलों ने आगजनी की और पुलिस को फायरिंग करनी पड़ी. बस इसी वजह से ये विवाद बढ़ता चला गया जो कि एक कोर्ट से दूसरी कोर्ट और एक शहर से दूसरे शहर तक पहुंच गया. अब दिल्ली पुलिस मुख्यालय के बाहर पुलिस जवान इंसाफ के लिए प्रदर्शन कर रहे हैं और अपनी मांग को लेकर अड़े हैं। इसी मामले को लेकर दिल्ली की सभी जिला अदालतों में आज भी वकील हड़ताल पर हैं। किसी भी कोर्ट में जज के सामने वकील न तो खुद पेश हो रहे हैं और न ही मुवक्किल को कोर्ट परिसर के अंदर जाने दिया जा रहा है। वकीलों की मांग है कि तीस हजारी कोर्ट में हमला करने वाले पुलिसकर्मियों को तुरंत गिरफ्तार किया जाए। बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने एक चिट्ठी लिखकर सभी बार एसोसिएशन से शांति बनाए रखने की अपील की है।
वहीं दिल्ली पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक ने भी पुलिसवालों से कहा है कि ये हमारे लिए परीक्षा की घड़ी है, सभी जवान शांति बनाए रखें और अपनी ड्यूटी पर वापस लौटें। हम कानून के रखवाले हैं और हमें अनुशासन में रहना है। लेकिन यहां दिल्ली पुलिस कमिश्नर को हमारा कमिश्नर कैसा हो किरण बेदी जैसा हो जैसे नारे से रूबरू होना पड़ा। आखिर खाकी बनाम काले कोट विवाद में किरण बेदी का नाम अचानक से क्यों सामने आ गया। अमूल्य पटनायक की अपील के बाद भी पुलिसकर्मीयों संतुष्ट नहीं देखाई दे रहा है। पुलिसवालों का कहना है कि उनकी बातें नहीं सुनी गई। जिसके बाद किरण बेदी के दौर की बाते दशकों बाद सुर्खियों में आ गई। दरअसल, जिस मुखरता के साथ किरण बेदी के कार्यकाल के दौरान पुलिस की बातें रखती थी। उसके बाद ही उसका नाम पुलिसवालों द्वारा लिया गया।
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1988 की घटना जब किरण बेदी और वकील आमने-सामने थे
1988 की जिस घटना जिसकी शुरुआत एक वकील की गिरफ्तारी से हुई थी। दिल्ली पुलिस ने वकील राजेश अग्नहोत्री को चोरी के इल्जाम में गिरफ्तार किया था। अग्निहोत्री को हथकड़ी पहनाकर ले जाया गया, जिससे वकील समुदाय का गुस्सा भड़क उठा। उन्होंने बेदी के दफ्तर के बाहर विरोध प्रर्दशन किया। उस समय वह डीसीपी नॉर्थ थीं। वकीलों का कहना था कि गिरफ्तारी के जायज कारण होने के बावजूद एक वकील को हथकड़ी नहीं लगाई जानी चाहिए। पुलिस ने वकीलों की भीड़ को तितर-बितर करने के लिए लाठीचार्ज किया। इससे वकील समुदाय और भड़क उठा। किरण बेदी से हुए बबाल के बाद वकीलों ने खुद को दमखम वाला साबित करने के लिए अदालतों में ताले डलवा दिए। उस जमाने में ढींगरा तीस हजारी अदालत में एडिशनल डिस्ट्रक्टि सेशन जज थे। उस दौर को याद करते हुए उन्होंने कहा, ‘मेरी अदालत (मेट्रोमोनियल कोर्ट) खुली रही। मैं अपनी अदालत में रोजाना बैठकर फैसले सुनाता रहा। मेरी अदालत में जब हड़ताली वकील पहुंचे तो मैंने उन्हें दो टूक बता-समझा दिया, ‘हड़ताल वकीलों की है अदालतों की नहीं’।’