By अभिनय आकाश | Sep 14, 2021
"चीन की सरकार ने कभी किसी अरुणाचल प्रदेश को मान्यता नहीं दी है। मुझे नहीं पता आप किस परिस्थिति की बात कर रहे हैं। चीन कभी अपने नागरिकों को अगवा नहीं करेगा।" ये बयान चीन की तरफ से तब सामने आया जब भारत और चीन के बीच का तनाव और इसके बीच उत्तर पूर्वी राज्य से एक खबर आती है। कहा जाता है कि अरुणाचल प्रदेश से चीनी सेना द्वारा पांच लोगों का अपहरण कर लिया गया है। चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता झाओ लिजियान द्वारा अरुणाचल प्रदेश के लोगों को अपना नागरिक कहना एक बड़ा इशारा था। ये बात कहते हुए चीन ने अरुणाचल प्रदेश पर अपने हक की बात को दोहरा दिया। दरअसल, चीन अरुणाचल प्रदेश को भारत का एक राज्य नहीं बल्कि दक्षिण तिब्बत का एक भाग मानता है। भारत उसके इस दावे का खंडन करता है लेकिन चीन अरुणाचल प्रदेश में भारतीय नेताओं की आवाजाही का भी विरोध करता है। लेकिन भारत का अभिन्न अंग अरुणाचल प्रदेश पर चीन अपना हक क्यों जताता रहा है। आखिर चीन अरुणाचल प्रदेश को क्यों अपना बताता रहा है।
ये कहानी शुरू होती है अरुणाचल की राजधानी ईटानगर से से लगभग ढाई हजार किलोमीटर दूर शिमला से जहां साल 1914 में एक सम्मेलन हुआ। जिसमें ब्रिटेन, चीन और तिब्बत के बीच सीमा से जुड़े कई अहम फैसले हुए। इसमें ब्रिटन के भारतीय साम्राज्य में विदेश सचिव हेनरी मैकमोहन थे। उन्होंने ब्रिटिश इंडिया और तिब्बत के बीच एक सीमा खींची। 890 किलोमीटर लंबी इस सीमा में उन हिस्सों को भी शामिल किया गया जिसे लेकर ब्रिटेन और तिब्बत के बीच पहले कोई समझ नहीं थी। इससे इस सीमा को नाम मिला मैकमोहन लाइन। इसमें तवांग यानी अरुणाचल प्रदेश को ब्रिटिश भारत का हिस्सा माना गया।
क्या है विवाद का ऐतिहासिक संदर्भ?
अरुणाचल प्रदेश की ऐतिहासिक व भौगोलिक पृष्ठभूमि की बात करें तो तिब्बत, बर्मा और भूटानी संस्कृति का प्रभाव आसानी से देखा जा सकता है। तवांग में 16वीं सदी में बना बौद्ध मठ इसकी खास पहचान है। तिब्बत में रहने वाले बौद्ध समुदाय के लोगों के लिए काफी पवित्र माना जाता है। बताया जाता है कि प्राचीन समय में तिब्बत के शासकों व भारतीय शासकों के बीच इसे लेकर कोई विवाद पैदा नहीं हुआ था और वे आपस में समन्वय से रहा करते थे। इसलिए उन्होंने अरुणाचल और तिब्बत के बीच कोई निश्चित सीमा रेखा भी निर्धारित नहीं की थी। लेकिन 20वीं सदी की शुरुआत में 'राष्ट्र-राज्य' की अवधारणा के साथ ही सीमाओं को तय किए जाने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। तब भारत एक स्वतंत्र मुल्क नहीं, बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन एक उपनिवेश था। तवांग में बौद्ध मठ होने के मद्देनजर सीमाओं का निर्धारण शुरू किया गया, जिसके लिए 1914 में तिब्बत, चीन और ब्रिटिश भारत के प्रतिनिधियों के बीच शिमला में एक बैठक भी हुई।
क्या है मैकमोहन रेखा
1914 में जब भारत में ब्रिटिश शासन था और तिब्बत सरकार के साथ शिमला समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे। ब्रिटिश सरकार के एक प्रशासक सर हेनरी मैकमोहन तिब्बत सरकार के प्रतिनिधि के साथ समझौता करने वाले व्यक्ति थे। जिनके नाम पर तिब्बत और भारत की सीमा को मैकमोहन लाइन का नाम दिया गया। लेकिन चूंकि चीन तिब्बत को स्वायत्त नहीं मानता है, इसलिए उसने तिब्बत सरकार द्वारा हस्ताक्षर किए उस समझौते को भी कभी नहीं माना। वहीं दूसरी ओर भारत में मैकमोहन लाइन को दर्शाता हुआ मानचित्र आधिकारिक रूप से 1938 में प्रकाशित हो गया था और तब ही से ये मान्य है।
गड़बड़ कहां हुई
इस सम्मेलन में मानत्रित का कोई लिखित रिकॉर्ड नहीं रखा गया। बस एक मैप पर लाइनों के सहारे आउटर तिब्बत को इनर तिब्बत और इनर तिब्बत को चीन से अलग कर दिया गया। दो मानचित्र आए। पहला 27 अप्रैल 1914 को जिसपर चीन के प्रतिनिधि ने दस्तखत कर दी। दूसरा आया 3 जुलाई 1914 को ये डिजेस्ड मैप था जिस पर चीन ने हस्ताक्षर से इनकार कर दिया। दूसरी ओर भारत में मैकमोहन लाइन को दर्शाता हुआ मानचित्र आधिकारिक रूप से 1938 में प्रकाशित हो गया था और तब ही से ये मान्य है।
शिमला में बैठक
1912 ईस्वी में चीन से मांछु शासन का अंत होने के साथ तिब्बत ने अपने को दोबारा स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया था। सन् 1913-14 में बैठक शिमला में हुई, जिसमें इस विशाल पठारी राज्य को भी दो भागों में विभाजित कर दिया गया। इसमें पूर्वी भाग जिसमें वर्तमान चीन के चिंगहई एवं सिचुआन प्रांत हैं उसे इनर तिब्बत कहा गया। जबकि पश्चिमी भाग जो बौद्ध धर्मानुयायी शासक लामा के हाथ में रहा उसे आउटर तिब्बत कहा गया। जो इतिहास की भयंकर भूल है। गृहमंत्री सरदार पटेल ने नवम्बर, 1950 में पंडित नेहरू को लिखे एक पत्र में परिस्थितियों का सही मूल्यांकन करते हुए लिखा- "मुझे खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि चीन सरकार हमें शांतिपूर्ण उद्देश्यों के आडम्बर में उलझा रही है। मेरा विचार है कि उन्होंने हमारे राजदूत को भी "तिब्बत समस्या शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाने" के भ्रम में डाल दिया है। मेरे विचार से चीन का रवैया कपटपूर्ण और विश्वासघाती जैसा ही है।" सरदार पटेल ने अपने पत्र में चीन को अपना दुश्मन, उसके व्यवहार को अभद्रतापूर्ण और चीन के पत्रों की भाषा को "किसी दोस्त की नहीं, भावी शत्रु की भाषा" कहा है। भविष्य में इसी प्रकार के उद्गार देश के अनेक नेताओं ने व्यक्त किए। डा. राजेन्द्र प्रसाद ने चीनियों को तिब्बत का लुटेरा, राजर्षि टण्डन ने चीन सरकार को "गुण्डा सरकार" कहा। इसी प्रकार के विचार डा. भीमराव अम्बेडकर, डा. राम मनोहर लोहिया, सी राजगोपालाचारी तथा ह्मदयनाथ कुंजरू जैसे विद्वानों ने भी व्यक्त किए हैं।
कहां से कहां तक है मैकमोहन लाइन?
मैकमोहन लाइन के पश्चिम में भूटान, पूरब में ब्रहमपुत्र नदी का ग्रेट बेंड, यारलौंग जांगलुक के चीन से बहकर अरुणाचल प्रदेश में घुसने और ब्रह्मपुत्र नदी बनने से पहले नदी दक्षिण में घुमावदार तरीके से मुड़ती है। जिसे ग्रेट बेंड कहते हैं।
चीन का क्या कहना है?
चीन का कहना है कि मैकमोहन लाइन के बारे में उसको बताया ही नहीं गया था। उससे बस इनर और आउटर तिब्बत बनाने के प्रस्ताव पर बात की गई थी। उसका कहना है कि उसे अंधेरे में रखकर तिब्बत के प्रतिनिधि लांचेन छात्रा और हेनरी मैकमोहन के बीच हुए गुप्त बातचीत की अंडरस्ट्रैडिंग पर मैकमोहन रेखा खींच दी गई। चीन कहता है कि वो मैकमोहन लाइन को नहीं मानता है। भारत और चीन के बीच आधिकारिक तौर पर सीमा तय हुई ही नहीं कभी। चीन के मुताबिक तिब्बत कोई संप्रभु देश नहीं कि वो सीमाओं को लेकर संधियों पर दस्तखत करे। लेकिन कई जानकार कहते हैं कि ब्रिटेन 1912 में चिगवंश की सत्ता खत्म होने के बाद तिब्बत को मिली आजादी बरकरार रखना चाहता था। वो चाहता था कि भूटान की तरह तिब्बत भी भारत और चीन के बीच एक बफर स्टेट का काम करे। लेकिन चीन का कहना है कि उसके पीछे तिब्बत और ब्रिटेन के प्रतिनिधियों ने अपनी मनमानी से सबकुछ तय कर लिया।
मैकमोहन रेखा पर भारत का पक्ष
भारत का मानना है कि 1914 में जब मैकमोहन रेखा तय हुई थी तब तिब्बत एक कमजोर लेकिन स्वतंत्र देश था, इसलिए उसको अपने देश की तरफ से सीमा समझौता करने का पूरा हक़ है। अर्थात भारत के अनुसार जब मैकमोहन रेखा खींची गई थी, तब तिब्बत पर चीन का शासन नहीं था। इसलिए मैकमोहन रेखा ही भारत और चीन के बीच स्पष्ट सीमा रेखा है। इसके बाद जब 1950 में तिब्बत ने स्वतंत्र क्षेत्र का अपना दर्जा खो दिया तो यह क्षेत्र भारत के नियंत्रण में आ गया। इस प्रकार तवांग पर चीन का दावा एकदम गलत है।
नेहरू ने ठुकराया था प्रस्ताव
साल 1960 में चीन के प्रीमियर ज्योऊ एनलाई द्वारा ने भी एक प्रस्ताव पेश किया गया था जिसके अंतर्गत अरुणाचल प्रदेश पर भारत की संप्रभुता और अक्साई चीन पर चीन के कब्जे को मान्यता प्रदान की गई थी, इस शानदार प्रस्ताव को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ठुकरा दिया था- अभिनय आकाश