By सुखी भारती | Feb 04, 2021
भगवान का इस सृष्टि में अवतार लेने के पीछे मात्र एक ही कारण है और वह है हमारे प्रति उनके हृदय में छुपा हुआ अपार स्नेह व ममता। एक माँ जैसे स्वयं गीले बिस्तर पर लेटती है लेकिन अपने शिशु को सदैव सूखे स्थान पर ही लिटाती है। यद्यपि बिस्तर शिशु के मूत्र विसर्जन से कारण ही गीला होता है। उस गंदगी एवं गीलेपन का कारण स्वयं शिशु ही है। लेकिन माँ शिशु को कभी इस नादानी अथवा अपराध के लिए दण्डित नहीं करती। अपितु स्वयं कष्ट व असुविधा में रहकर शिशु की गंदगी साफ करके सदा ही उसके पोषण में संलग्न रहती है।
ठीक इसी प्रकार प्रभु भी हमारे विकारों की गंदगी को हमसे दूर करके हमें पावनता की अमृतमयी घूंटी पिलाने में सदैव तत्पर रहते हैं। सुग्रीव के साथ भी श्रीराम जी ऐसे ही कर रहे हैं। लेकिन सुग्रीव है कि उल्टा प्रभु पर संशय कर रहा है, कितना अच्छा होता कि सुग्रीव श्रीराम के प्रति प्रथम चरण से ही समर्पित भाव लिए रहता। श्रीराम जी के प्रत्येक वाक्य को मंत्र मानकर चलता। वैसे तो प्रभु को कौन क्या दे सकता है। लेकिन शुद्ध भावों के पुष्प अर्पित करना भी तो उपहार से कम नहीं है। प्रभु तो इससे और भी अधिक प्रसन्न होते हैं−
निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।
श्री हनुमान जी के हृदय में यही निर्मलता व सहजता ही उनका परम विलक्षण गुण था। छल−कपट या लाग लपेट तो उनके निकट कभी नहीं फटकता था। उनकी दृष्टि के क्या कहने। क्योंकि जहाँ श्रीराम जी ने नहीं चाहा उनकी पुतलियां उस और पलटी ही नहीं। और हर उस दृश्य में गहरी गड़ गई जहाँ श्रीराम जी की स्वीकृति हो, रूचि हो। मजाल है कि एक भी कदम कभी श्रीराम जी के विमुख हो उठें हों। अपना व्यक्तिगत काम भी कोई बना है यह तो उन्हें भान ही भूल गया था। प्रभु का कार्य कैसे और कब करना है बस यही उनकी योजना व कार्यशैली के आधर रहते थे। उनकी दो रूचियां तो अतिअंत श्रेष्ठ श्रेणी की थी, और वे थीं−
राम काज करिबो को आतुर।
प्रभु चरित सुनिबे को रसिया।।
पहला तो यह कि वे श्रीराम जी के कार्य को करने के लिए मात्र तैयार नहीं रहते थे अपितु आतुर रहते थे। क्योंकि 'आतुर' और 'तैयार' में अंतर होता है। तैयार का अर्थ तो यह है कि ठीक है हम उपलब्ध हैं, आदेश हो गया तो हम आराम से कार्य करने लग जाएंगे। जिसमें मन में कोई विशेष उत्साह नहीं, उमंग नहीं।
लेकिन आतुर भाव में ऐसा नहीं होता। आतुर का तो अर्थ ही होता है किसी कार्य को करने के प्रति सकारात्मक व्याकुलता, निष्ठा, प्रतिबद्धता। सदैव यही प्रयास कि मेरे प्रभु की सेवा का शुभ अवसार मुझे अवश्य ही प्राप्त हो और दूसरा यह कि उस सेवा को मैं पूर्ण निष्ठा व समर्पण से पूर्ण करूँ। और किन्हीं कारणों से सेवा कार्य मुझे समाप्त भी क्यों न दिखे लेकिन तब भी हे प्रभु, आप मुझे सेवा का अवसर उपलब्ध करवा देना।
ठीक ऐसी ही परिस्थितियाँ एक बार उत्पन्न हुई भी थीं। जब विधिवश ऐसा हुआ कि श्री हनुमानजी के पास सेवा का अवसर ही समाप्त हुआ प्रतीत हो रहा था। हुआ यूं कि जब श्रीराम वनवास संपन्न कर अयोध्या लौटे तो श्री हनुमान जी तब अयोध्या में भी प्रभु की परछाईं बनकर रह रहे थे। और सेवा की धुन ऐसी कि राई से लेकर पर्वत तक सभी सेवा कार्य मुख्यतः वे ही संभालते थे। श्री सीताजी को लगा कि हमें तो प्रभु के किसी कार्य में सेवा का अवसर ही नहीं मिलता। क्योंकि समस्त कार्य तो श्री हनुमान जी स्वयं ही कर लेते हैं। यह तो भला हो कि रात्रि हमारे शयन कक्ष में श्री हनुमान जी की अनुपस्थिति के कारण कुछ सेवा प्राप्त हो जाती है। वरना सेवा क्षेत्र में तो मैं बेरोज़गार ही हो जाती। ऐसी ही व्यथा श्री भरत जी, श्री लक्ष्मण जी एवं श्री शत्रुघ्न जी के साथ भी थी। उल्टे अधिक दुर्दशा थी। क्योंकि श्री सीता जी को तो चलो प्रभु फिर भी शयनकक्ष में उपलब्ध मिलते थे। बाकी तीनों भाई तो सौ प्रतिशत बेरोजगार ही थे। तो ऐसे में क्या किया जाए? क्या श्री हनुमान जी की सेवा पर पाबंदी लगा दी जाए? लेकिन बिना ठोस कारण के तो यह भी संभव नहीं था। और ऐसा ठोस कारण भूत−भविष्य में कभी मिलने की संभावना शून्य ही थी। तो क्या किया जाए कि श्री हनुमान जी द्वारा किए जाने वाले सेवा कार्य हमारे पास आ जाएं। तो यह निष्कर्ष निकाला गया कि श्री हनुमान जी बिना श्रीराम जी के और किसी की आज्ञा मानेंगे नहीं तो क्यों नहीं समस्त सेवा कार्यों की सूची बनाकर और अपने सेवा कार्य, अपने अधिकारों में सुरक्षित करके उस सूची पर प्रभु के सहमति हस्ताक्षर करवा लेते हैं। श्री हनुमान जी को प्रभु द्वारा आदेशित सूची का पालन तो करना ही पड़ेगा।
फिर क्या था? सूची बनी और उस वा प्रभु ने हस्ताक्षर भी कर दिए। और खेल देखिए उस सूची में श्री हनुमान जी के नाम एक भी सेवा नहीं थी। सुबह प्रभु श्रीराम जी के स्नान हेतु जब जल इत्यादि की सेवा के लिए श्री हनुमान जी उपस्थित हुए तो क्या देखते हैं कि श्री भरत जी तो पहले से ही उस सेवा के लिए उपस्थित हैं। और साथ में उन्होंने हनुमान जी को पूरी सूची भी दिखा दी कि हे हनुमंत सुबह से शाम तक आपकी कोई सेवा है ही नहीं। सब सेवाएं हम सब के बीच बंट चुकी हैं। श्री हनुमान जी ने जब सूची में प्रभु के हस्ताक्षर देखे तो एक बार तो मन भीतर तक टूट गया। नयनों में जल भर आया और स्वयं से गिला होने लगा कि अवश्य ही मुझसे कोई महान अपराध हुआ है जो प्रभु को सूची पर हस्ताक्षर करने पड़े। निश्चित ही मैं दण्ड का अधिकारी हूँ। मुझ अहंकारी, मंदमति को धक्के मार कर निकाल देना चाहिए था। और निश्चित ही ऐसा ही होना था। लेकिन यह तो मेरे प्रभु के हृदय में रची बसी दया व ममता है जो प्रभु को ऐसा करने नहीं देती। परंतु कुछ भी हो प्रभु आप क्षमा का दान दें। और आप तो जानते ही हैं कि पक्षी पंख बिना, मछली जल बिना जैसे किसी काम के नहीं मेरा जीवन भी बिना सेवा के किसी काम का नहीं। कृपया मुझे सेवा से हटाना नहीं।
सज्जनों श्री हनुमान जी यूं ही सुबह से शाम तक श्रीराम जी के आसपास घूमते रहे। लेकिन एक भी सेवा उनके नाम नहीं थी। श्रीराम भी किसी गुप्त लीला को मूर्तरूप देने के लिए ही चुप थे। वरना वे तो कब के उस सेवा सूची को निरस्त कर देते। श्री हनुमान जी देखते रहे और जब श्रीराम जी शयन कक्ष में सोने को जाने लगे तो हनुमान जी को प्रभु प्रेरणा से अचानक ख्याल आया कि प्रभु जब लेटने लगेंगे तो हो सकता है कि उन्हें जम्हाई आ जाए। और जम्हाई लेते समय प्रभु अवश्य ही मुख के समक्ष चुटकी भी निश्चित ही बजाएंगे। और वह चुटकी उन्हें स्वयं ही बजानी पड़ती है। तो क्यों न वह चुटकी बजाने की सेवा मैं कर लूं। यह चुटकी की सेवा तो उस सूची में कहीं वर्णित भी नहीं है। तो ले फिर आज से, अभी से यह सेवा मेरी हुई। लेकिन मुझे क्या पता कि प्रभु श्रीराम जी को कब जम्हाई आएगी। तो मैं अभी से निरंतर चुटकी बजाने लग जाता हूँ। और तब तक बजाता रहूँगा जब तक प्रभु सुबह कक्ष से बाहर नहीं आ जाते। क्योंकि बीच में जब भी प्रभु को जम्हाई आएगी तो मेरी चुटकी उन्हें बजती ही मिलेगी।
सज्जनों भक्त का प्रभु के साथ तारतम्य तो देखिए। इधर प्रभु ने जम्हाई लेने के लिए मुख खोला और उधर श्री हनुमान जी की चुटकी बजनी आरम्भ हो गई। सामान्यतः जम्हाई लेते ही मुख बंद हो जाता है। लेकिन लीला देखिए श्रीराम जी का मुख बंद ही नहीं हो रहा। माता सीता ने देखा तो स्वयं भी प्रयास किया। समस्त परिवार जनों को बुला लिया। वैद्य भी आ गए। लेकिन प्रभु की जम्हाई लेना बंद नहीं हुआ।
अंततः श्री वशिष्ठ मुनि जी आए। देखा कि प्रभु पर तो केवल भक्त का ही वश चल सकता है। और एक श्री हनुमान जी को छोड़ सभी भक्त यहीं हैं। तो क्यों न श्री हनुमान जी को यहाँ बुलाया जाए। श्री हनुमान जी को जब ढूंढ़ कर प्रभु के पास लाया गया तो श्री हनुमान जी चुटकियां बजाते ही आ रहे थे। मुनि वशिष्ठ समझ गए कि न तो श्री हनुमान जी की चुटकियां रूकेंगी और न श्रीराम जी का मुख बंद होगा। मुनि वशिष्ठ जी ने श्रीराम जी से कहा कि आप ही इनकी चुटकियां बंद करवाईए और साथ में अपना मुख भी। वही बात सत्य भी हुई। इधर चुटकियां बंद हुई और उधर प्रभु श्रीराम जी का मुख।
जब श्री सीता जी सहित तीनों भाइयों ने यह दृश्य देखा तो श्री हनुमान जी के प्रति उनका मन और भी श्रद्धा से भर गया। सब समझ गए कि अगर प्रभु किसी की चुटकियां पर भी नाचते हैं तो वे हैं केवल भक्तों की पावन श्रद्धा व भावना। इससे आगे हमें भक्त और भगवान की भक्ति के कौन से इन्द्धनुषी रंगों का दर्शन होगा। जानने के लिए इंतजार कीजिए अगले अंक का...क्रमशः ...जय श्रीराम
-सुखी भारती