By सुखी भारती | Nov 21, 2024
भगवान शंकर को, जब यह प्रमाणिकता प्राप्त हुई कि देवी पार्वती जी ही वह शक्ति हैं, जिनसे उनका विवाह होना है। तो संसारिक जीवों की भाँति वे राग-रंग के संसाधनों में लिप्त नहीं हुए। अपितु इसके विपरीत फिर से ध्यान गहराईयों में डूब जाते हैं। यही आचरण उनका तब भी था, जब श्रीसती जी उनसे मिथ्या भाषण करती हैं, और उनका दक्ष के यज्ञ में निधन भी हो जाता है।
कहने का तात्पर्य, कि जीव को भी सदैव, ऐसे ही आचरण का निर्वाह करना चाहिए। उसके जीवन में भले ही तो उसका जीवन साथी बिछुड़े, अथवा भले ही नये जीवन साथी की प्राप्ति हो, उसे हर प्रस्थिती में प्रभु के भजन में ही लगे रहना चाहिए। तब देखिए ब्रह्माजी भी आपको विकट से विकट समस्या के समाधान के लिए याद करेंगे।
ब्रह्माजी ने देवताओं को यही तो समाधान दिया था, कि अगर भगवान शंकर के वीर्य से उत्पन्न पुत्र से तारकासुर का रण होगा, तभी तारकासुर का वध संभव है। लेकिन समस्या तो यह थी, कि भगवान शंकर तो समाधि में हैं। उनकी समाधि कितने सहस्त्र वर्ष चले, कोई पता नहीं। ऐसा भी नहीं, कि उनकी समाधि को कोई भंग कर सकता था। किंतु तब भी आज के समीकरण यह थे, कि जिस समाधि की अवस्था में बड़े बड़े संत महापुरुष रहते हैं, व उसका संरक्षण करते हैं, आज वही समाधि को भंग करने की आवश्यकता आन पड़ी थी। मानव जीवन के सर्वोच्च पद ही समाधि है। इसके पश्चात तो कुछ भी पाना शेष नहीं है। केवल व्यक्तिगत लाभ के लिए ही नहीं, अपितु संपूर्ण पृथवी के कल्याण के लिए समाधि की आवश्यक्ता होती है। कारण कि जब कोई भी समाधि की अवस्था को प्राप्त होता है, तो उस समाधिस्थ महानुभूति के सरीर से दुर्लभ व दिव्य तरंगों का विस्तार होता है। यह तरंगें संसार में होने वाले तीनों प्रकार के तापों का समाधान कर्ता होती हैं। इसीलिए कहा जाता है, कि समाधिस्थ महात्मा को कभी छेड़ना नहीं चाहिए। क्योंकि इस दुर्लभ अवस्था को कोई-कोई प्राप्त करता है।
किंतु आज समीकरण ऐसे हैं, कि स्वयं विधाता ही असमंजस की स्थिति में चले गए हैं। वे नहीं चाह कर भी चाह रहे हैं, कि भगवान शंकर की समाधि भंग हो जाये। अब ऐसा निंदनीय कार्य कोई महात्मा तो करने से रहे। तो कौन है, जो यह साहस कर पायेगा। तो इसके लिए ब्रह्माजी ने देवताओं को नाम सुझाया ‘कामदेव’ का। कारण कि कामदेव ही है, जो संसार में किसी सभा में शौभा नहीं पाता। जबकि हर कोई काम का दास है, किंतु जब भी किसी से सार्वजनिक स्तर पर कामदेव की बात की जाती है, तो कोई भी काम विषय पर खुलकर बात करने को राजी नहीं होता है। बात करता भी है, तो केवल उसकी बुराई ही करता है। फिर ऐसा कुकृत्य तो काम के हिस्से ही आये तो न्याय सा प्रतीत होता है। इसलिए हे देवताओ! तुम जाकर कामदेव को मनाओ-
‘पठवहु कामु जाइ सिव पाहीं।
करै छोभु संकर मन माहीं।।
तब हम जाइ सिवहि सिर नाई।
करवाउब बिबाहु बरिआई।।’
अर्थात कामदेव जब भगवान शंकर की समाधि भंग कर देगा, तब हम जाकर भोलेनाथ के चरणों में अपना सीस रख देंगे, और जबरदस्ती उन्हें विवाह के लिए मना लेंगे। देवताओं को ब्रह्माजी की यह सम्मति बहुत अच्छी लगी। तब सभी देवताओं ने बड़े प्रेम से कामदेव की स्तुति की और तब पाँच बाण धारण करने वाला और मछली के चिन्नयुक्त ध्वजा वाला कामदेव प्रकट हुआ।
कामदेव इस कार्य के लिए सहमत होता है, अथवा नहीं, यह तो हम अगले अंक में देखेंगे। किंतु इस संदेश को अंगीकार अवश्य करेंगे, कि कभी-कभी जीवन में वह पक्ष भी अत्यंत लाभकारी व श्रेष्ठ होता है, जिसे हम बड़ी बड़ी सभायों में निंदा का पात्र बताते हैं। अधर्म का पर्याय बन चुके कामदेव से भी कुछ अच्छा कार्य संभव हो सकता है, यह आज प्रथम बार देखने को मिल रहा था।
ऐसे ही समाधि, भले ही जीवन का सार ही क्यों न हो, लेकिन अगर जीवन के किसी मोड़ पर, समाधि भी लोक कल्याण में बाधा है, तो इसे तोड़ने में संकोच नहीं करना चाहिए।
कामदेव भगवान शंकर की समाधि भंग करने के लिए देवताओं का साथ देता है, अथवा नहीं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।