By सुखी भारती | Nov 16, 2021
श्रीराम जी की पताका फहराने श्रीहनुमान जी लंका का अपनी तीक्षण दृष्टि से अवलोकन कर रहे थे। विगत अंक में हमने चर्चा भी की थी, कि लंका नगरी की भव्यता देख श्रीहनुमान जी मन ही मन सोच रहे थे, कि ऐसी भव्य नगरी तो उन्होंने आज तक नहीं देखी थी। नगर के बहुसंख्यक रखवालों को देखकर श्रीहनुमान जी ने मन में विचार किया, कि मैं अतिअंत छोटा रूप धरूँ और रात के समय नगर में प्रवेश करूँ-
‘पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रुप धरों निसि नगर करौं पइसार।।’
कमाल है, श्रीहनुमान जी भला रखवालों से भय कब से मानने लगे? संसार में ऐसा कौन है, जो श्रीहनुमान जी को रोक पाये। जिसके चलते वे दिन में लंका में प्रवेश करने की बजाये, निशाचर की रीति अपनाते हुए, रात्रि काल में ही लंका प्रवेश का निर्णय लेते हैं।
यहाँ पर रात्रि काल में लंका प्रवेश करने के पीछे श्री हनुमान जी संसार के एक और कटु सत्य से अवगत करवाना चाहते हैं। लंका की भव्यता पर गोस्वामी जी द्वारा लिखी गईं चौपाईयां दर्शा रही हैं कि लंका विश्व की सबसे वैज्ञानिक व आधुनिक, समस्त भोग ऐश्वर्यों से परिपूर्ण उन्नत नगरी थी। जिसकी आभा के समक्ष हज़ारों सूर्य का प्रकाश भी फीका जान पड़ता था। ऐसी नगरी को संसार का साधारण जन देखता है, तो इस अद्भुत भव्य नगर में प्रवेश करने को व्याकुल हो उठता है। और उसका भरपूर प्रयास होता है, कि मैं इस नगरी में सबसे बड़ा व श्रेष्ठ दिखाई दूँ। लेकिन जिस समय इसी लंका नगरी के ऐश्वर्य वैभव पर श्री हनुमान जी जैसे संत दृष्टिपात करते हैं, तो वे इस नगरी में दिन में प्रवेश प्रवेश प्राप्त करने का निर्णय आगे टाल देते हैं। श्री हनुमान जी ने मन ही मन विचार किया कि मैं लंका प्रवेश रात्रि काल में ही करूँ। और लघु रूप को धारण कर ही प्रवेश करूँ। इसका कारण है कि श्री हनुमान जी का यह दृढ़ मानना है, कि बड़ी-बड़ी व सुंदर इमारतों में दिन के प्रकाश में सब साधु जैसा ही विचरण करते हैं, सब स्वयं को साधु कहलाने में ही प्रयासरत रहते हैं। लेकिन वे वास्तव में ‘साधु’ हैं अथवा ‘स्वादु’ यह रहस्य तो अंधकार होने पर ही उद्घाटित होता है। ऐसी नीच प्रवृत्ति धारण करने वालों लोगों के लिए ही हमारे विद्वजनों ने कहा है- ‘ऊँची दुकान फीका पकवान’।
सज्जनों दशानन रावण की लंका भले स्वर्ण की हो, बेशक वहाँ के निवासी सोने व रत्न जड़ित घरों में निवास करते हैं लेकिन रतन जड़ित छतों के नीचे कर्म तो कोयले से भी काले हो रहे हैं। दूसरी ओर प्रभु श्रीराम जी की घास फूस की कुटिया है। लेकिन उस कुटिया के अंदर साक्षात नारायण बसते हैं। इसलिए मुद्दा यह नहीं है कि आप ने बहुत भव्य भवन बनाए हैं। प्रश्न यह है कि उन भवनों में रहने वालों का व्यक्तित्व भव्य है या नहीं। किसी पिपासु को अगर उसकी पिपासा मिटाने के लिए स्वर्ण पात्र में कीचड़ डालकर दे दिया जाए, तो वह केवल यह सोचकर संतुष्ट नहीं हो जाएगा कि चलो कोई नहीं पानी के स्थान पर भले ही कीचड़ मिला है, लेकिन मिला तो स्वर्ण पात्र में है। उस समय उक्त व्यक्ति के लिए स्वर्ण नहीं अपितु उसकी पिपासा की तुष्टि अत्यन्त आवश्यक है। वहीं पर अगर उस पिपासु को मिट्टी के टूटे पात्र से भी जल दे दिया जाए, तो वह अमृत मिलने जैसी संतुष्टि का सुख प्राप्त करेगा। श्री हनुमान जी यही सोच रहे हैं, कि हम भी तो देखें कि यहाँ के बाशिंदे रात्रि काल में कौन-कौन-सा रूप धारण करते हैं। जब यह जाति ही निशाचर है, तो निशाचरों की तो रात्रि में ही परख की जा सकती है। इसी के साथ ही श्री हनुमान जी यह निर्णय भी लेते हैं, कि मैं लंका में बड़ा रूप नहीं अपितु लघु रूप धारण कर ही प्रवेश करूँगा। कारण कि निशाचर तो स्वभाव से ही क्रोधी व अहंकारी होते हैं। उनके सामने बड़ा होकर जाने में व्यर्थ का झगड़ा बढ़ाने जैसा कार्य होगा। ऐसी स्थिति में वे अपना भेद न देकर मेरा ही भेद लेना शुरू कर देंगे। इस परिस्थिति में मुझे प्रभु का कार्य संपन्न करने में विलंब हो सकता है। गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं-
मसक समान रूप कपि धरी।
लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी।।
अर्थात श्री हनुमान जी एक मच्छर समान छोटा-सा रूप धारण कर प्रभु श्रीराम जी का नाम सुमिरण करते हुए लंका प्रवेश कर रहे हैं। लेकिन आगे श्री हनुमान का रास्ता रोकने के लिए एक अवरोधक आ जाता है। क्या था वह अवरोधक जानेंगे अगले अंक में...(क्रमशः)...जय श्रीराम...!
- सुखी भारती