जब-जब विरोधी चलते हैं जाति वाला दांव, बीजेपी निकाल लाती है वो ब्रह्मास्त्र, मुलायम-मायावती, लालू-पासवान किसी के पास नहीं रही जिसकी काट

By अभिनय आकाश | Oct 09, 2024

देश की राजनीति में कास्ट पॉलिटिक्स का दबदबा एक बार फिर से बढ़ता नजर आया। लोकसभा चुनाव के वक्त विपक्ष ने एक नैरेटिव चलाया था कि बीजेपी सत्ता में आई तो संविधान बदल कर आरक्षण खत्म कर देगी, और ये बात चुनावी मुद्दा बन गई। विपक्ष के नेता राहुल गांधी लगातार दोहराते नजर आए कि संविधान और आरक्षण व्यवस्था की वो हर कीमत पर रक्षा करेंगे। लगातार वो लोकसभा चुनाव के बाद जाति जगगणना की मांग करते संसद में दिख जाते हैं। जाति जनगणना की बात करने का कोई मौका नहीं छोड़ते। हालत यह है कि जाति जनगणना के ध्‍वजवाहक रहे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, लालू यादव और अखिलेश यादव को भी राहुल ने पीछे छोड़ दिया है। पूरे चुनाव में राहुल गांधी ने आरक्षण को मुद्दा बनाया। हर चुनावी रैली में संविधान की कॉपी लेकर भाषण दिया। यहां तक की वो सांसद के तौर पर शपथ लेने गए तो उस वक्त भी उनके हाथों में संविधान की कॉपी नजर आई। मानो राहुल जाति कार्ड के जरिए मंडल युग के दौर के सहारे बीजेपी को लोकसभा चुनाव में बहुमत से कम पर रोकने के बाद राज्य दर राज्य किनारे लगाते चले जाएंगे। राहुल ने इसकी कोशिश भी की। लेकिन लोकसभा चुनाव के दौरान इतना बड़ा झटका झेलने वाली बीजेपी इस बार पूरी तरह से तैयार नजर आई। उसने मंडल की राजनीति के सामने कमंडल का ब्रहमास्त्र चल दिया, जिसकी काट जाति की राजनीति करने वाले मुलायम, मायावती, लालू, रामविलास तक नहीं निकाल पाए थे। पहले योगी, फिर मोदी और संघ प्रमुख ने हिंदुओं के एकजुटता के आह्वान को मानो ऐसा पकड़ा कि चुनाव से पहले ही अपने आप को विजेता मानने वाली कांग्रेस के पांव बारह हो गए। हरियाणा हो या जम्मू-कश्मीर, बीजेपी को हिंदुओं ने बड़ी संख्या में वोट किया है। बीजेपी की जीत में हिंदुत्व ने बड़ी भूमिका निभाई है। जम्मू में तो पार्टी को जबरदस्त समर्थन मिला है। 2024 के नतीजों के बाद कहा जाने लगा था कि हिंदुओं का वोट बंट गया है, लेकिन हरियाणा और जम्मू के जरिए बीजेपी ने दिखाया है कि हिंदुत्व का मुद्दा अभी भी धारदार है।

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90 के दशक का मंडल-कमंडल का दौर

साल 1990 जिसे भारतीय सामाजिक इतिहास में ‘वाटरशेड मोमेंट’ कहा जा सकता है। अंग्रेज़ी के इस शब्द का मतलब है- वह क्षण जहां से कोई बड़ा परिवर्तन शुरू होता है। बोफोर्स घोटाले पर हंगामा और मंडल कमीशन की रिपोर्ट पर सियासत। हाशिए पर पड़े देश के बहुसंख्यक तबके से इतर जातीय व्यवस्था में राजनीतिक चाशनी जब लपेटी गई तो हंगामा मच गया। समाज में लकीर खींची और जातीय राजनीति के धुरंधरों के पांव बारह हो गए। इन सब से दूर दिल्ली की राजनीति ये अच्छी तरह से जानती थी कि आरक्षण का तीर उनके लिए वोट बैंक का ब्रह्मास्त्र हो जाएगा। क्योंकि मंडल कमीशन से उपजी आरक्षण नीति का सबसे ज्यादा असर उत्तर भारत पर पड़ा। लालू, मुलायम, मायावती, पासवान जैसे नेता क्षेत्रीय क्षत्रप बनते चलते गए, वक्त के साथ लालू और मुलायम मजबूत होते गए और अपने-अपने राज्यों में ये नेता पिछड़ों की राजनीति से पलायन करते करते सिर्फ और सिर्फ अपनी जाति की राजनीति करने लगे। लेकिन ठीक उसी वक्त मंडल की राजनीति के उभार और उसके ठीक समानांतर राम मंदिर आंदोलन ने पहली बार जाति-बिरादरी के मुद्दों को हिंदुत्‍व की बहस में जगह दिलवाने का काम किया। भारतीय जनता पार्टी राम मंदिर अभियान को कमंडल की राजनीति कहा जाता है। अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर स्थल पर कारसेवा को लेकर हिंदू संगठनों और तत्कालीन मुलायम सिंह सरकार के बीच संघर्ष ने देश और प्रदेश की राजनीति को हिंदुत्व बनाम धर्मनिरपेक्षता में बांट दिया था। 

यूपी में लगने वाला जय श्री राम नारा कई प्रदेशों में असर दिखाने लगा

जातीय आरक्षण के कार्ड और उदारीकरण के जरिये लोगों को आर्थिक तरक्की का रास्ता तलाशने का सपना दिखाने पर जारी बहस के बीच 1991 के चुनावी नतीजे आए। भाजपा ने 221 सीटें जीतकर सबको चौंका दिया। मुलायम सिंह की पार्टी 34 सीटों के साथ चौथे नंबर पर रही। तब वह जनता पार्टी में थे। प्रदेश में घटी घटनाओं ने न सिर्फ राष्ट्रीय राजनीति पर असर डाला, बल्कि अन्य राज्यों की राजनीति को भी प्रभावित किया। अयोध्या और उत्तर प्रदेश में लगने वाला ‘जय श्रीराम’का नारा कई प्रदेशों की सियासत में असर दिखाने लगा।

इंदिरा-राजीव ने मंडल आयोग की रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया 

1951 और 2011 के बीच, जवाहरलाल नेहरू जैसे कांग्रेसी प्रधानमंत्री जाति जनगणना के खिलाफ थे, जबकि इंदिरा गांधी और राजीव गांधी जैसे प्रधानमंत्रियों ने मंडल आयोग की रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया था। भारत में आखिरी बार जाति जनगणना अंग्रेजों द्वारा कराई गई थी। 2011 में भी, यह राजद जैसे कांग्रेस के सहयोगी ही थे जिन्होंने जाति जनगणना कराने के लिए यूपीए पर दबाव डाला, जिससे कांग्रेस की दशकों से ऐसा न करने की घोषित नीति की स्थिति पलट गई। 2011 में भी पी चिदंबरम, आनंद शर्मा और पवन कुमार बंसल जैसे वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं ने जाति जनगणना पर आपत्ति जताई थी और मंत्रियों का एक समूह (जीओएम) इस पर कभी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा।

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जम्मू में बीजेपी को मिली हिंदुत्व की धार

कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस का दबदबा रहा तो जम्मू इलाके में बीजेपी का वर्चस्व दिखा. जम्मू-कश्मीर में बीजेपी के हाथ सत्ता की चाबी भले ही न लगी हो, लेकिन यह साफ हो गया कि उसके हिंदुत्व और राष्ट्रवादी राजनीति की धार कुंद नहीं पड़ी है. जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35ए के खात्मे के बाद बीजेपी ने जम्मू के रीजन में अपना दबदबा बनाए रखा और फिर अजय रही है. जम्मू-कश्मीर में 60 सीटें मुस्लिम बहुल और 30 सीटें हिंदू बहुल है. हिंदू बहुल 30 सीटों में से बीजेपी 26 सीटें जीतने में कामयाब रही और तीन सीटें मुस्लिम इलाकों से जीती हैं. जम्मू-कश्मीर में बीजेपी के 2014 के चुनाव के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन से न सिर्फ पार्टी का आत्मविश्वास बढ़ेगा बल्कि आक्रमक भी नजर आएगी.

प्रो इनकंबेसी फैक्टर

ये नतीजे बीजेपी के लिए आगे की रणनीति की राह आसान करेंगे। हरियाणा में परिणाम पार्टी के पक्ष में रहे और इससे संदेश गया कि एक बार फिर पीएम मोदी और उनकी नीतियों पर जनता ने मुहर लगा दी। ये कहीं न कहीं यह इस बात का संकेत है कि बैंड मोदी पर अब भी लोगों का भरोसा बना हुआ है। नतीजे के एग्जिट पोल के रुझानों उलट होने को  मतलब 10 साल सत्ता में रहने के बाद अब पीएम मोदी की नीतियों, उनके फैसलों और कामकाज को लेकर प्रो इनकंबेंसी फैक्टर के रूप में भी देखा जा सकता है। यह भी कहा जा सकता है कि ब्रैंड मोदी की चमक कायम है।

बेअसर किसान-पहलवान

हरियाणा में बीजेपी के अनुकूल नतीजा आना दिखा रहा कि किसानों-जवानों और पहलवानों के मुद्दों ने जनता को प्रभावित नहीं किया है। दिल्ली की सत्ता में बैठे दल के लिए हरियाणा वह राज्य है, जो उसे यूपी, राजस्थान से लेकर पंजाब, हिमाचल और जम्मू-कश्मीर तक से जोड़ता है। हरियाणा और यूपी दहलीज हैं दिल्ली की। दोनों ही जगह बीजेपी है। ऐसे में एक दहलीज अगर कमजोर पड़ती, तो बीजेपी के किले के दरकने का खतरा बढ़ जाता। लेकिन इसे बीजेपी ने मजबूती से अपनी ओर कर लिया। 

कांग्रेस ने गंवाया मौका

नतीजे विपक्ष के मुताबिक नहीं आए, जिससे इस बात का संकेत भी मिलता है कि लोकसभा में विपक्ष का बेहतर प्रदर्शन सिर्फ तुक्का था, लोगों को अब उनमें सियासी विकल्प नहीं नजर आता है। हरियाणा में कांग्रेस की हार विपक्षी खेमे में कांग्रेस की ताकत और पकड़ को भी कमजोर कर सकती है। कांग्रेस को अगर जीत मिलती तो ये उसके लिए संजीवनी की तरह होती। इससे नेताओं-कार्यकर्ताओं में यकीन पैदा होता कि वे बीजेपी को हरा सकते हैं। ऐसा होना विपक्ष, खासकर कांग्रेस के लिए रिवाइवल जैसा होता। इन नतीजों से कांग्रेस की बारगेनिंग पावर भी बढ़ सकती थी। फिर चाहे जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाने की बात हो या फिर झारखंड और महाराष्ट्र में सीटों का तालमेल, कांग्रेस मजबूती से अपना हिस्सा मांग सकती थी। लेकिन कांग्रेस एक बार फिर बीजेपी के सामने सीधे मुकाबले में कमजोर साबित हुई। पिछले कुछ सालों से यह ट्रेंड लगातार चला आ रहा है। साथ ही इस हार ने कांग्रेस के बढ़ते ग्राफ पर अंकुश लगा दिया। लगातार भितरघात से गुजर रही पार्टी को नए नैरेटिव की भी तलाश करनी होगी।

मजबूती से अपने एजेंडे को लागू करेगी बीजेपी

2019 के चुनाव में हरियाणा में बीजेपी ने 10 की 10 सीटें अपने नाम की थी। वहीं 2024 में मुकाबला फिफ्टी-फिफ्टी का हो गया। इसी से कांग्रेस ने मान लिया कि अब तो बस हमारी ही सरकार बनने वाली है। हालांकि वो ये भूल गई कि 2024 के लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी हरियाणा की 90 में से 46 सीटों पर आगे थी।  हरियाणा में बीजेपी की जीत का देश की राजनीति और सियासत पर क्या असर होगा। ये सवाल अब सबसे अहम हो गया है, लेकिन हरियाणा की जीत ने बीजेपी और पीएम मोदी को एक नया आत्मविश्वास दिया है। इस नतीजे के बाद पीएम मोदी नीतिगत मामलों से जुड़े फैसलों की ओर आगे बढ़ेंगे। 4 जून 2024 को लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद कई सारे मुद्दे पर यू-टर्न लेने के लिए मजबूर रही सरकार अब पूरी मजबूत से अपने एजेंडे को लागू करेगी।

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