Gyan Ganga: जब सुग्रीव अपना छल छोड़कर प्रभु की शरण में आ गया

By सुखी भारती | Apr 08, 2021

गोस्वामी जी जब भी किसी पात्र की गाथा गा रहे हों तो ऐसा नहीं कि वे मात्र एक कहानी ही कह रहे हैं। अपितु उस गाथा के माध्यम से वे जीव और भगवान के मध्य घटने वाले समस्त दैहिक व आध्यात्मिक प्रभावों का वर्णन भी कर रहे होते हैं। उनका एक−एक शब्द साधना तप व प्रभु की इच्छा से प्रेरित होता है। इसलिए जब बालि−सुग्रीव का युद्ध चल रहा है, तो गोस्वामी जी कहते हैं कि बेशक इस संपूर्ण युद्ध का परिणाम प्रभु के एक बाण चलने मात्र पर टिका है। लेकिन तब भी प्रभु एक पेड़ की आड़ लेकर इस युद्ध पर निरंतर अपनी नज़र टिकाए हुए हैं। आश्चर्य है कि प्रभु केवल नज़र ही टिकाए हुए हैं और बाण नहीं चला रहे। और बाण नहीं चलाने का कारण यह नहीं कि प्रभु पुनः नहीं पहचान पा रहे कि दोनों में कौन बालि है और कौन सुग्रीव? वास्तव में यह समस्या तो श्रीराम जी के लिए कभी थी ही नहीं। अपितु प्रभु तो यही समझाना चाहते हैं कि हे जीव! निश्चित ही तेरे जीवन का तेरे कर्म बंधनों से निरंतर युद्ध चलता ही रहेगा। जिसमें तू कभी जीतता प्रतीत होगा तो कभी पराजित होगा। जीतते समय तुझे लगेगा कि इसमें तेरा पराक्रम कार्य कर रहा है। तुम उस युद्ध को खेल-सा मानोगे। तुम्हें अपनी प्रभुता का अहं होने लगेगा। जिसके मद में चूर हो तुम पीछे मुड़कर मेरी तरफ देखोगे भी नहीं। परंतु मैं तो पीछे से सब देख ही रहा होता हूँ। तुम्हारा अहंकार तुम्हें मेरी विस्मृति करवा देगा। तुम भूल जाओगे कि बालि के रूपी कर्म को जीतने में न तो तुम कल सक्षम थे, न आज और न ही आने वाले कल में बन पाओगे। यह तो मेरा दिया विशेष बल था कि जो बालि तुम्हें तृण की मानिंद समझ रहा था। वही बालि आज स्वयं तृण-सा बना खड़ा है।

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लेकिन तुम तो मेरा बल भूल कर उल्टे स्वयं को ही इसका श्रेय दे रहे हो और साथ में यह भी दुस्साहस व गलती कर रहे हो कि छल−कपट का सहारा ले रहे हो, तो तब भी मैं कुछ भी नहीं कहता हूँ, न ही अपने बाण का संधन करता हूँ। बस दृष्टा बनकर देखता रहता हूँ। लेकिन हाँ ऐसे में मैं अपना बल अपनी कृपा का साया तुम्हारे शीश पर से हटा लेता हूँ। जिसका परिणाम यह होता है कि तुम्हारे पास मेरा बल तो छिन जाता है और केवल तुम्हारा छल तुम्हारे पास रह जाता है।


बस यहीं से तुम्हारे हारने की गाथा पुनः आरम्भ हो जाती है। अभी तक कर्म रूपी बालि के कष्टदायक प्रहारों का जो तुम पर असर नहीं हो पा रहा था। अचानक तुम पर वह प्रहार प्रभाव डालने लगते हैं। तुम्हें बालि के प्रत्येक घूंसे की असहनीय पीड़ा होने लगती है। अब तुम पलट−पलटकर मेरी तरफ देख रहे हो, कि मैं बाण क्यों नही चलाता हूँ। भले ही तुम्हारी लड़ाई निरंतर चल रही होती है−


पुनि नाना बिधि भई लराई। 

बिटप ओट देखहिं रघुराई।।


हे जीव! मेरे पेड़ की ओट में देखने का तात्पर्य समझते हो न। अर्थात् तुम पर मेरी दृष्टि सदा ही बनी रहती है। जिसमें भले ही तुम मेरे बल से जीतते प्रतीत हो रहे थे या फिर स्वयं के छल से पिटते दिखाई पड़ रहे हो। न मैं तुम्हें जिताते समय इसका श्रेय लेने सबके समक्ष प्रकट होता हूँ और न ही तुम्हें स्वयं के कारण हारते समय अपनी कोई सफाई देने आता हूँ। बस देखता ही रहता हूँ। और यही इंतजार करता रहता हूँ कि मेरा भक्त कब मुझे समर्पित होगा। 


बालि तो कर्म है, वह है ही तुम्हें मारने के लिए। वह तो मुझे समर्पित होगा ही नहीं। और हृदय से हारकर समर्पित होने में सदैव विलंब करते हो। हे सुग्रीव रूपी जीव! हमारे बाण चलाने में तो विलंब कभी भी नहीं रहा। विलंब तो जीव के मुझे समर्पित होने में होता है।

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वाह! कैसी विडंबना है। सुग्रीव पीछे मुड़−मुड़कर मन में मेरे प्रति उलाहने और असंतोष तो निरंतर पाल रहा है कि मैं कुछ भी नहीं कर रहा। और सब देखने के बाद भी बालि के हाथों उसे पिटवा रहा हूँ। यद्यपि इसी स्थान पर यह प्रार्थना भी तो कर सकता था कि प्रभु बालि रूपी कर्म से जीतना मेरे वश में नहीं है। आपसे क्या छुपा है। आप तो निरंतर मुझे निहार ही रहे हैं। मैं कैसे कहूँ कि आपने मुझसे अपनी नज़र फेर ली है। नज़र तो उल्टे मैंने आपसे फेरी। और परिणाम स्वरूप मैं कष्ट झेल रहा हूँ। सत्यता तो यह है कि मैं बालि से भिड़ने में कभी भी समर्थ नहीं था। यह तो आपने सिर पर हाथ रखा है तो तब कहीं जाकर मैं बालि से भिड़ने में समर्थ हो सका। लेकिन स्वयं के पापों के कारण मैंने आपकी कृपा भी खो दी। जिसके लिए मैं निश्चित ही दण्ड का अधिकारी हूँ। प्रभु आप से मेरी प्रार्थना है कि जितना मारना है, आप मुझे स्वयं अपने हाथों से मार लीजिऐगा। परंतु आपके सामने किसी और के हाथों से पिटना मेरे लिए मृत्यु तुल्य है। प्रभु जब आप मेरे जीवन के 'रक्षक' हैं तो 'भक्षक' भी फिर आप ही बनिए। किसी और के हाथों मुझे पराजित नहीं होना। प्रभु मुझे क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए!


हे सुग्रीव! अगर तुम ऐसी प्रार्थना करते तो फिर मैं अपने बाण का संधन कैसे नहीं करता? तुम तो केवल मेरे चरणों में हारना सीखो, जितवाना मैं सिखा दूँगा। अगर तुम्हें मिटना आ जाए तो मैं बनाने में विलंब नहीं करता। 


और सज्जनों यही हुआ। सुग्रीव जान गया कि मेरा छल, बल मुझे ही ले डूबा। मेरे प्रयास अब विफल हैं। अब तो केवल प्रभु ही हैं जो मुझे संभाल सकते हैं। अन्यथा प्राण देह की तार तोड़ने ही वाले हैं। श्रीराम जी ने देखा कि मेरा भक्त हृदय में हार मानकर मुझ पर आश्रित हो रहा है। अर्थात् मेरी कृपा रूपी बाण चलाने का समय आ पहुँचा है−


बहु छल बल सुग्रीव कर, हियँ हारा भय मानि।

मारा बालि राम तब हृदय माझ सर तानि।।


सुग्रीव हृदय में भय मानकर हार चुका था। और हारे हुए के गले में जीत का हार डालना ही तो प्रभु की रीति, नीति और प्रीति है। सुग्रीव ने ऐन वक्त पर आकर श्रीराम जी पर नज़र टिका दी। श्रीराम जी की नज़र तो पहले से ही सुग्रीव पर थी। और सुग्रीव इस नज़र के ही इन्तज़ार में था। बस फिर क्या था प्रभु ने तुणीर से बाण निकाला और सीधा बालि के हृदय की तरफ संधन कर दिया। प्रभु का बाण भला अपने लक्ष्य से कैसे भटकता। उसे तो बालि की छाती में जाकर गड़ना ही था। क्या बालि तत्क्षण मर जाता है या कुछ वार्ता भी करता है। जानने के लिए पढ़ते रहिए ज्ञान गंगा...क्रमशः..जय श्रीराम जी


-सुखी भारती

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