By सुखी भारती | Jan 20, 2022
अशोक वाटिका में माता सीता गहन शोक की अवस्था में हैं। और यह पीड़ा से सनी घड़ी का साक्षी बनना, श्रीहनुमान जी के लिए अपने आप में ही जीवन की सबसे कठिन व दुखद घड़ियों में से, शायद यह पहली घड़ी थी। श्रीहनुमान जी वृक्ष के पत्तों में छुपे हुए हैं। वे चाहते तो उसी क्षण वृक्ष पर से छलाँग लगा, नीचे माता सीता जी को सब गाथा सुना, उन्हें वहाँ से, सीधे आकाश मार्ग द्वारा प्रभु श्रीराम जी के श्रीचरणों में ले जा बिराजते। लेकिन पता नहीं क्यों, श्रीहनुमान जी ने रात्रि के चारों प्रहर माता सीता जी के बिरही पलों को निहारते हुए ही बिता दी। लेकिन श्रीहनुमान जी से मानों अब माता सीता जी की पीड़ा का स्तर देखा नहीं जा रहा था। वे मन ही मन सोच रहे थे, कि क्या किया जाये, और क्या न किया जाये। लेकिन तभी दुष्ट रावण बहुत-सी स्त्रियों सहित सज धज कर वहाँ पर आ धमका-
‘तरु पल्लव महँ रहा लुकाई।
करइ बिचार करौं का भाई।।
तेहि अवसर रावतु तहँ आवा।
संग नारि बहु किएँ बनावा।।’
बाहरी दृष्टि से देखेंगे तो यह घटना सामान्य-सी लगेगी, कि रावण आया, श्रीहनुमान जी वृक्ष के पत्तों की आड़ में छुपे हुए हैं, आदि आदि। लेकिन आध्यात्मिक, तात्विक व भावपूर्ण दृष्टि, इस संपूर्ण घटनाक्रम में, भक्ति पथ के महान रहस्य को गढ़ा हुआ देख पा रही है। श्रीहनुमान जी क्या हैं? एक ऐसे पात्र, जो भक्ति की खोज में सागर के उस पार से इस पार आन पहुँचे। माता सीता साक्षात भक्ति हैं। वे देह में होते हुए भी देह के बँधनों से परे हैं, इसलिए वे ‘बैदेही’ भी कहलाती हैं। उनके पिता जनक भी बैदेही ही हैं, और पुत्री भी। पूरे समीकरण को समझने का प्रयास कीजिए। श्रीहनुमान जी ने जबसे अपनी यह लंका के लिए भक्तिपथ की यात्र आरम्भ की, मार्ग में कहीं भी यह नहीं हुआ, कि वे स्वयं को कहीं, असहाय प्रतीत कर रहे हों। कैसी भी, कठिन से कठिन परिस्थिति में भी, उन्हें कोई निर्णय लेने में कोई परेशानी नहीं हुई। लेकिन यहाँ माता सीता जी को देख, वे सन्न से हुए, बस सोचे ही जा रहे हैं। माता सीता के पास जाकर बात करने का भी, मानों वे साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। जिन भक्ति व उसकी शक्ति को, समस्त सुखों की खान कहा गया है। आज वही दुखों से चहुँ ओर घिरी प्रतीत हो रही है, तो सोचिए, यह देख श्रीहनुमान जी के भक्तिमय हृदय पर क्या प्रभाव पड़ा होगा। गोस्वामी तुलसीदास जी ने तो लिखा भी है-
‘भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी।।’
लेकिन यहाँ तो संपूर्ण दृश्य ही विपरीत है। भक्ति को शास्त्रों में, एक ऐसी सुंदर प्रणाली कहा गया है, जो समस्त सुखों की खान है। लेकिन विडंबना देखिए कि सुखों की खान, भक्ति की साक्षात मूर्ति माता सीता, स्वयं ही दुखों का सागर बनी प्रतीत हो रही है। सोचिए यह देख एक साधक के अबोध व सरल हृदय पर क्या प्रभाव पड़ना चाहिए। पूरी-पूरी संभावना है, कि वह साधक संशय की खाई में गोते लगाता दिख जायेगा। कारण कि जिस भक्ति के संबंध में, इतना बल देकर कहा गया है, कि वह सुखों की खान है व ऋद्धि सिद्धि प्रदायनी है, और वही ऐसी दयनीय स्थिति में है, तो भला वह हमारे सुख व कल्याण का कारण कैसे बन सकती है। लेकिन देखिए, श्रीहनुमान जी कितने निष्कप्ट व भोले हैं। वे शंका लेने की बजाए, इसी चिंतन में डूब जाते हैं, कि मैं माता की पीड़ा का निवारण कैसे करुँ। प्रभात बेला का आगमन हो चुका है। श्रीहनुमान जी मानों सोच ही रहे हैं, कि मैं माता सीता से अभी के अभी ही जाकर भेंट करलूँ। लेकिन तभी वहाँ किसी के आने का बिगुल बजता है। देखा तो वास्तव में वह रावण था। जो अपनी पटरानी व अनेकों सुंदर रानियों सहित, माता सीता के समक्ष उपस्थित होता है। मानो भक्तिसूत्र यह सिद्धांत रख रहा हो, कि जैसे ही आप भक्ति के समीप जाने का प्रयास करेंगे, तभी मन रूपी रावण, अपने समस्त वैभव के साथ वहाँ आन धमकेगा। और कुछ समय के लिए ही सही, लेकिन वह आपका रास्ता रोकने का प्रयास अवश्य करेगा। और देखिए, आप भले श्रीहनुमान जी जैसे श्रेष्ठ भी क्यों न हों, लेकिन एक बार के लिए तो आपको भी रुकना पड़ सकता है। आप स्वयं को प्रगट ही नहीं कर पाओगे। और हो सकता है, कि जिस भक्ति के संबंध में यह अटल सत्य है, कि भक्ति ही जीव की मुत्तिफ़ का आधार है, शायद वही मुत्तिफ़ प्रदायनी भक्ति व शक्ति, स्वयं ही बँधन में बँधी दृष्टिपात हों। बिल्कुल वैसे, जैसे श्रीहनुमान जी माता सीता को, अभी अभी रावण की कैद में देख पा रहे हैं।
सज्जनों महाआश्चर्य है, श्रीसीता जी को पाने हेतु, दोनों ही पक्ष प्रयासरत हैं। श्रीहनुमान जी भी, और लंकापति रावण भी। रावण का माता सीता को प्राप्त करने का अर्थ है, श्रीसीता जी पर पूर्णतः अधिकार व नियंत्रण कर लेना। उन पर अपना प्रभुत्व जमा लेना। उन्हें स्वयं तक सीमित कर लेना। यद्यपि श्रीहनुमान जी का माता सीता जी को पाने का आधार छल, बल अथवा दल नहीं। अपितु स्वयं को माता सीता जी के श्रीचरणों में पूर्णतः समर्पित कर देना है। श्रीसीता जी पर शासन नहीं, अपितु स्वयं को माता सीता द्वारा शासित व अनुशासित होना था। और सबसे बड़ी बात कि रावण श्रीसीता जी को पाना नहीं, अपितु हथियाना चाहता था। अधिकार करने में और प्यार करने में धरती और आस्माँ-सा अंतर होता है। रावण का अधिकार भाव उसके अहंकार की उपज है। और श्रीहनुमान जी के प्यार का आधार जानकी जी के प्रति, उनके मातृ प्रेम की उपज है। हम यह तथ्य किस आधार पर कह रहे हैं। जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
-सुखी भारती