By आरएन तिवारी | Oct 08, 2021
सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नुम:॥
प्रभासाक्षी के धर्म प्रेमियों !
पिछले अंक में हमने पढ़ा कि भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु प्राप्त थी किन्तु उनको भी यहाँ से जाना पड़ा। श्रीमदभागवत महापुराण का एक सुंदर-सा संदेश। यह जिंदगी सदा हमारा साथ नहीं देती, पता नहीं कब हमारा साथ छोड़ दे। आया है सो जाएगा राजा रंक फकीर।
आइए ! अब आगे की कथा प्रसंग में चलते हैं।
हम सबको जिंदगी के इस हकीकत को अच्छी तरह समझना चाहिए।
क्या भरोसा है इस जिंदगी का, साथ देती नहीं है,
किसी का ---------------------
दुनिया की ये हकीकत पुरानी, चलके रुकना है इसकी कहानी
फर्ज पूरा करो बंदगी का, साथ देती नहीं है किसी का।
क्या भरोसा है----------------
शम्मा बुझ जाएगी जलते-जलते श्वास रुक जाएगी चलते-चलते।
दम निकल जाएगा आदमी का साथ देती नहीं है किसी का
क्या भरोसा है-------------------
हम रहे न मुहब्बत रहेगी दासता अपनी दुनिया कहेगी
नाम रह जाएगा आदमी का साथ देती नहीं है किसी का।
क्या भरोसा है ------------------
युधिष्ठिर ने पितामह के मृत शरीर की अंत्येष्ठि कराई। सभी ऋषि मुनि अपने हृदय को कृष्णमय बनाकर अपने-अपने आश्रम लौट आए।
युधिष्ठिर कृष्ण के साथ हस्तिनापुर चले आए और अपने चाचा धृतराष्ट्र गांधारी को ढाढ़स बँधाया, धृतराष्ट्र की आज्ञा और कृष्ण की अनुमति से वंश परंपरा गत राज्य शासन करने लगे।
अब कथा आती है, कि बहुत दिनों तक धर्म और न्यायपूर्वक राज्य करने के पश्चात और भगवान श्रीकृष्ण के स्वधाम प्रस्थान करने के बाद युधिष्ठिर ने परीक्षित को राज्य दे दिया और अपने पांचों भाइयों तथा द्रौपदी के साथ स्वर्गारोहण किया।
एक दिन परीक्षित शिकार खेलने के लिए जंगल में गए थे। उन्होंने देखा कि एक बैल जो धर्म का रूप था और एक गाय जो पृथ्वी थी दोनों रो रहे थे। उन दोनों को एक राजपुरुष डंडे से मार रहा था। राजा परीक्षित यह अधर्म देखकर दंग रह गए, उन्होंने तलवार निकाल ली और मारने के लिए उद्यत हुए। कलियुग समझ गया कि ये मुझे मार डालेंगे उसने तुरंत राजचिह्न उतार डाले और परीक्षित के चरणों पर अपना सिर रख दिया। परीक्षित शरणागत रक्षक थे, उन्होंने उसको मारा नहीं बल्कि प्रेम से समझाया कि तू अधर्म का सहायक है इसलिए मेरे राज्य में नहीं रह सकता। कलियुग ने बड़ी अनुनय विनती की तो उसको रहने के लिए चार स्थान दिये। जब वह इतने से नहीं माना तो परीक्षित ने उसे स्वर्ण के रूप में पांचवां स्थान भी दे दिया।
अभ्यर्थित: तदातस्मै स्थानानि कलये ददौ
द्यूतं पानं स्त्रय: सूना यत्राधर्म: चतुर्विध:
पुनश्च याचमानाय जातरूपमदात्प्रभु:।।
हमारी यह प्राचीन परंपरा रही है कि शरण में आए हुए किसी भी प्राणी का तिरस्कार नहीं करना चाहिए।
संत शिरोमणि तुलसीदास जी भी कहते हैं—
कोटि विप्र बध लागहि जाहू आए सरन तजहु नहि ताहू।
यह एक संकेत है कि बुद्धिमान व्यक्ति को इन पांचों से बचकर रहना चाहिए।
आत्म ज्ञानी इन पांचों का सेवन नहीं करता है।
द्युतलाय, मदिरालय, वेश्यालय, हिंसालय और स्वर्णालय इन पांचों स्थानों मे अधर्म का निवास होता है। कलियुग प्रसन्न हुआ उसने तुरंत परीक्षित के स्वर्ण मुकुट में प्रवेश कर गया। और यहीं से भागवत कथा का प्रादुर्भाव होता है। एक दिन परिक्षित वन में शिकार खेलने गए हुए थे। ज़ोर की भूख प्यास लगी थी। पास में ही शमिक मुनि का आश्रम था, वहाँ प्यास बुझाने गए। देखा कि मुनि आँख बंद किए तपस्या में लीन थे। परीक्षित क्रोधित हो गए, अपना अपमान समझा। लौटते समय उन्होंने धनुष की नोक से एक मरा हुआ साँप उठाकर ऋषि के गले में डाल दिया। परीक्षित ने अपने जीवन में यह पहली बार अधर्म किया, क्योंकि कलियुग ने उनकी बुद्धि कलुषित कर दी थी। शमिक मुनि का पुत्र शृंगी बड़ा तेजस्वी था। उसने अपने पिता के गले में मरा हुआ साँप देखा तो बड़ा दुखी हुआ। परीक्षित तूने मेरे पिता का अपमान कर मर्यादा का उलंघन किया है, मैं तुम्हें शाप देता हूँ कि आज के सातवें दिन तक्षक शर्प डस लेगा। राजधानी पहुँचने पर परीक्षित को बड़ा अफसोस हुआ।
ध्रुवं ततो मे कृतदेवहेलनात् दुरत्ययं व्यसनं नातिदीर्घात्
तदस्तु कामं त्वधनिष्कृताय मे यथा ना कुर्यां पुनरेवमद्धा ।।
अद्यैव राज्यं बलमृद्धकोशं प्रकोपितब्रह्मकुलानलो मे
दहत्वभद्रस्य पुनर्न मे भूत पापीयसी धी: द्विजदेवगोभ्य
मुझे अवश्य दंड मिलना चाहिए। उससे मेरे पाप का प्रायश्चित हो जाएगा। परीक्षित ने गंगा तट पर आमरण अनशन करने का निश्चय किया। गंगा तट क्यों चुना? भगवान के चरणों से गंगा निकली हैं—चरणों से निकली गंगा प्यारी। त्रिलोक के सभी ऋषि, महर्षि, साधु-संत वहाँ उपस्थित हो गए और साधु-साधु कहकर उनका अनुमोदन किया। वहाँ सृष्टि के बड़े बड़े कुशल वक्ता उपस्थित थे वे कथा सुना सकते थे किन्तु उनको भी परमहंस श्री शुकदेव जी महाराज की कथा का स्वाद चखना था। इसीलिए सभी मौन थे।
क्रमश: अगले अंक में--------------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
-आरएन तिवारी