By प्रभासाक्षी न्यूज नेटवर्क | Nov 26, 2020
विगत अंक में हमने पढ़ा कि सुग्रीव श्री हनुमान जी को निवेदन करते हैं कि वे श्रीराम जी की विधिवत परीक्षा लेकर स्थिति स्पष्ट करें कि वे दोनों वीर कहीं बालि के भेजे तो नहीं हैं? इस सुंदर प्रसंग में हमें सुग्रीव के व्यक्तित्व पर भी एक दृष्टिपात करना आवश्यक प्रतीत होता है। रामायण में दो ग्रीवों की चर्चा की गई है। एक हैं सुग्रीव और दूसरा दसग्रीव। ग्रीव या ग्रीवा का अर्थ होता है 'गर्दन'। रावण के दस सिर होने के नाते वह 'दसग्रीव' कहलाया। और सुग्रीव की एक ही ग्रीव है तो मूलतः उसका नाम एकग्रीव होना अधिक उचित था। लेकिन वह 'सुग्रीव' नाम से विख्यात हुआ। जिसका अर्थ है सुंदर ग्रीवा वाला। यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि रावण 'दसग्रीव' होने के बाद भी सुंदर ग्रीव वाला नहीं बन पाया। जबकि सुग्रीव एक ग्रीवा वाला होने के पश्चात् भी सुंदर ग्रीवा वाला कहलाया। वास्तव में ग्रीवा किसकी सुंदर होती है? आध्यात्मिक दृष्टि में किसी का रूप, रंग एवं वेष उसके किसी अंग की सुंदरता को निधार्रित नहीं करते। अपितु जो भी अंग अथवा शरीर किसी संत−महापुरुष को नतमस्तक है, सेवा रत है, वही सुंदर व पावन कहलाता है। जैसे संसारिक दृष्टि में सुंदर नयन वे हैं जो मृग के नयनों से मेल खाते हों। लेकिन गोस्वामी तुलसीदास जी की दृष्टि तो कुछ और ही कहती है−
नयनन्हि संत दरस नहीं देखा।
लोचन मोरपंख कर लेखा।।
अर्थात् अगर हम इन नेत्रों के द्वारा किसी संत−महापुरुष का पावन दर्शन नहीं करते तो हमारे नेत्र कोई सजीव व सुंदर तो कतई नहीं हैं। अपितु ठीक उस आंख की तरह हैं जो मोर के पंख पर बनी होती है। जो मात्रा दिखने में ही सुंदर है। परन्तु उसके माध्यम से कोई नेत्रहीन देख नहीं सकता।
सुग्रीव की ग्रीवा सुंदर इसलिए है क्योंकि वह किसी भी परिस्थिति में श्री हनुमान रूपी साधु का संग नहीं त्यागते। सुग्रीव को पता है कि भले ही मैं उन दोनों वीर पुरुषों को पहचानने में असमर्थ हूँ। लेकिन तब भी चिंता किस बात की। मेरे पास श्री हनुमान जी के रूप में साधु का सान्निध्य तो है ही। और साधु की दृष्टि से भला क्या छुप सकता है। उनकी दृष्टि धोखा कैसे खा सकती है। इसलिए सुग्रीव ने अपनी सोच को श्री हनुमान जी को समर्पित कर दिया।
लेकिन वहीं श्री हनुमान जी जिस घड़ी रावण की सभा में उपस्थित होते हैं तो रावण उन्हें किसी साधु की संज्ञा देकर सम्मान नहीं करता अपितु उनकी पूँछ जलाकर उनका अपमान करने का जघन्य व अक्षम्य अपराध करता है। कहने को तो रावण की 'ग्रीवा' की संख्या 'दस' है। लेकिन उसमें एक भी ग्रीवा श्री हनुमान जी के समक्ष झुक नहीं रही, अपितु अकड़ अवश्य रही है।
श्री हनुमान जी केवल संत ही नहीं हैं बल्कि भगवान शंकर के अवतार भी हैं। वही भगवान शंकर जिन्हें रावण ने अपने दसों शीश काट कर अर्पित किए थे। लेकिन आज स्वयं भगवान शंकर वेष बदलकर श्री हनुमान जी रूप में क्या आए, रावण उन्हीं के समक्ष अपने दसों शीश अकड़ा कर बैठा है। यद्यपि श्री हनुमान जी कोई भी वेष धारण करें वे हर वेष में ही सम्मानीय हैं−
किएहुँ कुबेषु साधु सनमानू।
जिमि जग जामवंत हनुमानू।।
अर्थात् बुरा वेष बना लेने पर भी साधु का सम्मान ही होता है। जैसे हनुमान जी और जामवंत का हुआ। और आज श्री हनुमान जी को श्रीराम जी के समक्ष ब्राह्मण का वेष धरण करना पड़ा। तो हृदय के किसी कोने में उलाहना तो था ही कि हे प्रभु हमें तो आपकी पावन लीला का अंग बनने का सुअवसर मिला ही है, लेकिन दिखने में यह जितना सरल व रोचक लगता है, उतना है नहीं अपितु कष्टदायक अवश्य है। कष्टदायक इसलिए क्योंकि किसी भी मापदंड व समीकरण के आधर पर समीक्षा करें तो श्रीराम जी तो निःसंदेह सर्वश्रेष्ठ व शिरोमणि हैं ही और हम असंख्य जन्म लेकर भी उनकी चरण धूलि के एक कण की भी बराबरी नहीं कर सकते। परंतु आज जब उनकी पावन लीला का पात्रा बनना पड़ रहा है तो वे क्षत्रिय धर्म निभाते दृष्टिपात हो रहे हैं। और मैं ब्राह्मण के वेष में हूँ। और यहाँ न चाहते हुए भी मुझे श्रीराम जी का प्रणाम स्वीकार करने की धृष्टता करनी पडे़गी। और उसपे भी कठिनता यह कि ब्राह्मण वेश के कारण मुझे उन्हें कुछ उपदेश करने की कठिन घड़ी से भी गुजरना पड़ेगा। निःसंदेह मैं इन विकट परिस्थितियों के लिए किंचित भी तत्पर नहीं हूँ। लेकिन क्योंकि यही मेरे प्रभु की इच्छा है तो स्वाभाविक है मुझे इस दौर से गुजरना ही पड़ेगा।
लेकिन सज्जनों कैसा मीठा घटनाक्रम घट रहा है। श्री हनुमान जी भले ही पूरी तैयारी में गए थे। लेकिन सेवक धर्म लाख चाहने पर भी त्याग नहीं पाए। क्योंकि−
बिप्र रूप धरि कपि तहँ गयऊ।
माथ नाइ पूछत अस भयऊ।।
अर्थात् श्री हनुमान जी ब्राह्मण का वेष धारण कर श्रीराम जी के समक्ष उपस्थित हुए और मस्तक नवाकर इस प्रकार पूछने लगे।
सज्जनों यहाँ प्रसंग को आप जरा महीन दृष्टि से अवश्य देखिए। लीला है तो लीला को, लीला की ही तरह निर्वाह करना चाहिए। लेकिन यहाँ तो श्री हनुमान सोलह आने असफल हो गए। कारण यह कि जब आप ब्राह्मण रूप धरण कर क्षत्रिय रूप धरण किए श्रीराम के समक्ष उपस्थित हो गए तो लौकिक संस्कार क्या यह कहता है कि एक ब्राह्मण किसी क्षत्रिय को प्रणाम करे? यह तो व्यवहारिक रीति व मर्यादा का सरासर उल्लंघन था। लेकिन श्री हनुमान जी के मन की अवस्था में झांकना भी तो आवश्यक था। जैसा कि हमने पहले ही वर्णन किया कि श्री हनुमान जी भगवान शंकर जी का अवतार हैं। और भगवान शंकर की यह प्रबल व दृढ़ इच्छा थी कि वे श्रीराम जी के पावन युगलचरणों का स्पर्श प्राप्त करें। और इसी के निमित उनकों तीन सुअवसर प्राप्त हुए एवं तीनों बार भगवान शंकर असफल हुए। कब? प्रथमतः श्रीराम जी का अयोध्या में अवतरण हुआ तो भगवान शंकर ज्योतिषी बनकर गए परंतु चरण स्पर्श करने में असफल रहे। दूसरे श्रीराम जी जब वनों में श्रीसीता जी के वियोग में व्याकुल थे तो भगवान शंकर सती जी के साथ अगस्त्य मुनि जी के आश्रम से लौट रहे थे। तब भी उनकी चरण स्पर्श की मनोकामना पूर्ण नहीं हुई। और तीसरी बार भगवान शंकर प्रभु श्रीराम जी के विवाह मंडप में भी उपस्थित थे लेकिन यहाँ भी श्रीराम जी के चरणों की उनसे दूरी मिट नहीं पाई। श्री हनुमान जी ने सोचा कि हम भगवान बनके घूमते रहे और हमारे भगवान हमसे दूर ही रहे। बंदर क्या बने कलंदर भगवान श्री राम सामने खड़े हो गए। छोड़िए जी लीला−वीला तो चलती रहेगी? क्यों न प्रभु को निकट होकर प्रणाम करने का प्रसाद तो लूट ही लिया जाए।
प्रणाम करने के पश्चात श्री हनुमान जी श्री राम जी से क्या मीठी वार्ता हुई जानेंगे अगले अंक में...क्रमशः