By सुखी भारती | Jun 02, 2022
रावण द्वारा श्रीहनुमान जी का अपमान जितना अधिक से भी अधिक संभव हो सकता था, उसने उससे भी, दो रत्ती और अधिक प्रयास किया। पूरी लंका नगरी के राक्षसों में इसी बात की होड़ मची हुई है, कि कौन श्रीहनुमान जी को अधिक प्रताड़ित कर पाता है। हर राक्षस दूसरे राक्षस से यही पूछता है, कि उसने श्रीहनुमान जी को कितनी लातें मारीं। मानों उन्हें इस कुकृत्य का कोई पुरस्कार अथवा मैडल प्राप्त होना था। पर उन्हें क्या पता था, कि उनका यही पाप उनकी लंका राख करेगा। किसी शायर ने बड़ी सुंदर बात कही है-
‘दगा किसी का सगा नहीं,
न मानों तो कर देखो।।
जिस ने जिस से दगा किया,
जा के उसका घर देखो।।’
यह दगा ही तो था, कि सभी श्रीहनुमान जी का सम्मान करने की बजाये, उनके अपमान में पूर्णतः रत्त थे। मूर्ख राक्षसों ने अंततः श्रीहनुमान जी की पूँछ को आग लगा ही दी। श्रीहनुमान जी ने देखा, कि पूँछ पर अग्नि की लपटें युवा होती जा रही हैं। तो उन्होंने उसी क्षण अपना रूप लघु बना लिया। रूप लघु होते ही वे पाश से स्वतंत्र हो गए-
‘पावक जरत देखि हनुमंता।
भयउ परम लघुरुप तुरंता।।’
बंधन से मुक्त होते ही वे लंका की बड़ी-बड़ी अटारियों पर जा चढ़े। यह महा आश्चर्य इतने क्षण भर में हुआ, कि किसी को कुछ समझ में ही नहीं आया, कि यह क्या घट गया। इससे सबसे पहले तो राक्षसों की पत्नियों के कलेजे मुंह को आ गए। उन्हें अपना विधवा होना निश्चित दिखाई देने लगा। राक्षस पत्नियों की चीख-चिंघाढ़ से पूरी लंका में कोलाहल-सा मच गया। श्रीहनुमान जी के कर्म में ऐसी तीव्र गति थी, कि पवन भी उनसे कोसों मील पीछे रह जाती थी। श्रीहनुमान जी ने अब एक और विचित्र कार्य किया। उन्होंने अपना रूप ऐसा बढ़ाया, कि वे सीधा आसमाँ को छूने लगे। उनका इतना विशाल रूप देख कर किसी से कुछ कहा नहीं जाता। अब तक श्रीहनुमान जी अपने रुद्र रूप में आ चुके थे। वे एक अटारी से दूसरी अटारी, और दूसरी से तीसरी अटारी पर कूदे जा रहे थे। परिणाम यह हुआ, कि सोने की अटारियां धू-धू कर जलने लगी। प्रभु श्रीराम जी का दूत, रावण की लंका पर काल बन कर टूट पड़ा था। सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह था, कि प्रभु के दूत को ऐसे सेवा में रत्त देख, हरि प्रेरणा से उन्चासों पवन बहने लगे-
‘हरि प्ररित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अटट्हास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास।।’
जिसका परिणाम यह हुआ, एक समय पर जहाँ श्रीहनुमान जी द्वारा केवल एक ही अटारी जलनी थी, वहाँ इनकी सँख्या पच्चास हो गई। क्योंकि उनचास पवन जो प्रभु के दूत के साथ बहने लगी थी। श्रीहनुमान जी कोई घर, गुम्बद अथवा मुडे़र बिना अग्नि की भेंट चढ़ाये मान ही नहीं रहे थे। राक्षसों को भागने के लिए कोई दिशा ही नहीं मिल पा रही थी। कारण कि वे जिधर भी भागने का सोचते, उधर ही लंका का मार्ग अग्नि की लपटों से ढंका होता-
‘देह बिसाल परम हरुआई।
मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई।।
जरइ नगर भा लोग बिहाला।
झपट लपट बहु कोटि कराला।।’
श्रीहनुमान जी की देह इतनी विशाल है, कि कुछ कहे नहीं बनता। लेकिन साथ ही यह भी बड़े आश्चर्य की बात थी, कि श्रीहनुमान जी जितने भी विशाल दिखाई प्रतीत हो रहे थे, उतने ही वे फुर्तीले व हलके भी थे। इस पूरे परिदृश्य में, आश्चर्य पे महाआश्चर्य घट रहे हैं। कारण कि रावण का ‘फायर ब्रिगेड सिस्टम’ भी पूरी तरह असफल सिद्ध हो रहा है। जी हाँ! रावण के यहाँ ऐसी अक्समात घटना घट जाने पर भी अकथनीय श्रेष्ठ प्रबंध थे। और रावण ने इस विपदा का सामना करने के लिए, अपने संपूर्ण प्रयासों का लगा दिया। लेकिन जो जल देवता आठों पहर रावण के समक्ष, सदैव हाथ जोड़े खड़ा रहता था, आज वह भी पूर्णतः बेबस था। लंका नगरी का विराट सागर के बिल्कुल मध्य होने के कारण, पानी की भी कहीं कोई कमी नहीं थी। दमकल कर्मियों द्वारा अग्नि की लपटों पर मानो पूरा का पूरा सागर उड़ेल दिया गया। लेकिन तब भी अग्नि क लपटें ऐसा व्यवहार कर रही हैं, कि उन पर मानों पानी की बौछार नहीं, अपितु कोई ज्वलनशील पदार्थ डाला गया हो। जितना पानी इन अग्नि लपटों पर गिराया जा रहा था, अग्नि की लपटें, उतना ही आसमाँ छूती जा रही थीं। यह लपटें मात्र केवल रावण की लंका ही नहीं जला रही थीं, अपितु साथ में रावण तथा अन्य राक्षसों के हृदय भी जलाये जा रही हैं। हृदयों के साथ-साथ, एक और चीज भी धू-धू कर जल रही थी। और वह चीज थी लोगों का भ्रम। भ्रम कैसे? हमने पहले ही वर्णन किया है, कि एक साथ उन्चास मरुत बहने लगे। क्या ऐसा होते हुए, पहले कभी आपने देखा है? यहाँ पर पानी भी अपना अग्नि बुझाने का धर्म भूल गया। अग्नि ने भी अपना पासा पलट लिया है। जी हाँ! अग्नि ने लंका में सब घर तो जलाये, लेकिन विभीषण जी का एवं माता सीता जी का स्थान नहीं जलाया। जबकि अग्नि देवता, जल देवता एवं पवन देवता, सभी रावण की सभा में दोनों हाथ जोड़ कर खड़े रहते हैं। और सबको अब तक यही भ्रम था, कि सभी रावण के दास हैं। उसकी आज्ञा के बिना वे एक कदम भी नहीं हिलाते थे। लेकिन देखो, उन देवों ने प्रभु श्रीराम जी के दूत को, प्रभु के सेवा में लगे क्या देखा, सभी रावण की प्रभुता को छोड़, प्रभु की सेवा में साथ हो लिए। कोई भी देवता रावण के कहने में नहीं है। सब अपनी प्रकृति से विपरीत व्यवहार कर रहे हैं। पवन बेकाबू हो बह रही है। जल अग्नि बुझाने में रुचिकर ही नहीं है। और अग्नि का स्वभाव तो स्वर्ण को चमका देने का है। लेकिन लंका का स्वर्ण, इस धरा का प्रथम ऐसा स्वर्ण है, जो अग्नि ताप से बजाये चमकने के, उल्टा राख ही हुए जा रहा है।
भगवान शंकर जी भी यह संपूर्ण दृश्य देखे जा रहे हैं। और एक बार भी यह नहीं कह रहे, कि हे पवनपुत्र हनुमान जी! जिस लंका को आप स्वर्ण से राख किए जा रहे हैं। वह लंका हमने ही रावण को दान में दी थी। हमारी तो यही मंशा थी, कि रावण इस स्वर्ण की लंका में स्वर्ण जैसे ही सुंदर-सुंदर व चमकते कार्य करे। लेकिन उसने तो चमचमाती इस स्वर्ण लंका में, कोयले से भी काले कर्म किए। ऐसी लंका का लाभ ही क्या, जहाँ समस्त पुण्य व संस्कार, रावण के पापों की अग्नि में जल कर राख हो जाए। इससे अच्छा तो इस लंका का ही राख हो जाना श्रेष्ठ है। जो कि श्रीहनुमान जी कर ही रहे हैं।
श्रीहनुमान जी के इस पलटवार का लंका वासी क्या समाधान निकालते हैं। उनके हृदयों में क्या-क्या बवंडर उठ रहे हैं। यह जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती