By आरएन तिवारी | Apr 23, 2021
यह सच कहा गया है--- जीवन में किसी के प्रति की गई भलाई कभी व्यर्थ नहीं जाती, वह कब और किस रूप में आप के पास लौट कर आएगी ये सिर्फ भगवान ही जानते हैं। अर्जुन द्वारा कभी किए गए उत्कृष्ट कर्म का ही यह फल है कि उन्हे भगवान के विराट स्वरूप के दर्शन हो रहे हैं। आइए ! हम सब भी अपनी चित्तवृतियों को समाहित करें और भगवान के विराट स्वरूप के दर्शन का लाभ लेकर अपने जीवन को धन्य बनाएँ ।
अर्जुन उवाच
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रंपश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम् ।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिंपश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ॥
अर्जुन कहते हैं-- हे विश्वेश्वर ! मैं आपके शरीर में अनेकों हाथ, पेट, मुख और आँखें तथा चारों ओर से असंख्य रूपों को देख रहा हूँ। तात्पर्य यह है कि आपके हाथों, पेटों, मुखों, और नेत्रों का कोई अंत नहीं है, सबके सब अनंत हैं।
किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् ।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् ॥
मैं आपको चारों ओर से मुकुट पहने हुए, गदा धारण किये हुए और चक्र सहित अपार तेज से प्रकाशित देख रहा हूँ, और आपके रूप को सभी ओर से अग्नि के समान जलता हुआ, सूर्य के समान चकाचौंध करने वाले प्रकाश को बड़ी कठिनाई से देख पा रहा हूँ। भगवान के द्वारा प्रदान की गई दिव्य दृष्टि से भी अर्जुन भगवान के विराट रूप को देखने में पूरी तरह से समर्थ नहीं हो रहे हैं। इससे सिद्ध होता है कि भगवान की दी हुई शक्ति से भी भगवान को पूरा नहीं जाना जा सकता। सच तो यह है कि भगवान भी अपने को पूरा नहीं जानते, यदि जान जाएँ तो वे अनंत कैसे रहेंगे।
त्वमक्षरं परमं वेदितव्यंत्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ॥
हे भगवन ! आप ही जानने योग्य परब्रह्म परमात्मा हैं, आप ही इस जगत के परम-आधार हैं, आप ही अविनाशी सनातन धर्म के पालक हैं। हे प्रभों ! मैं तो ऐसा मानता हूँ कि, आप ही अविनाशी सनातन और सदा रहने वाले उत्तम पुरुष हैं।
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् ।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रंस्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् ॥
आप अनादि है, अनन्त है और मध्य-रहित हैं, आपकी महिमा अनन्त है, आपकी असंख्य भुजाएँ है, चन्द्र और सूर्य आपकी आँखें है, मैं आपके मुख से जलती हुई अग्नि के निकलने वाले तेज के कारण इस संसार को तपते हुए देख रहा हूँ।
तात्पर्य यह है कि भगवान के तेज से तपने वाला यह संसार भगवान से अलग नहीं है। अत: तपाने वाला और तपने वाला दोनों ही भगवान के स्वरूप हैं।
द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः ।
दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदंलोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् ॥
हे महापुरूष ! सम्पूर्ण आकाश से लेकर पृथ्वी तक के बीच केवल आप ही अकेले सभी दिशाओं में व्याप्त हैं और आपके इस भयंकर आश्चर्यजनक रूप को देखकर तीनों लोक भयभीत हो रहे हैं। अर्जुन ने भगवान को महात्मन् कहकर संबोधित किया है, इसका अर्थ यह है कि आपके स्वरूप के समान किसी का स्वरूप हुआ नहीं, है नहीं और होगा भी नहीं।
अमी हि त्वां सुरसङ्घा विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति ।
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घा: स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ॥
जब अर्जुन स्वर्ग में गए थे, उस समय उनका जिन देवताओं से परिचय हुआ था उन्हीं देवताओं के लिए यहाँ अर्जुन कह रहे हैं, कि वे ही देव-समूह आप में प्रवेश कर रहे हैं उनमें से कुछ भयभीत होकर हाथ जोड़कर आपका गुणगान कर रहे हैं, और महर्षिगण और सिद्धों के समूह 'कल्याण हो' इस प्रकार कहकर उत्तम वैदिक स्तोत्रों द्वारा आपकी स्तुति कर रहे हैं।
रुद्रादित्या वसवो ये च साध्याविश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च ।
गंधर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घावीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे ॥
हे प्रभों! शिव के सभी रूप, सभी आदित्यगण, सभी वसु, सभी साध्यगण, सम्पूर्ण विश्व के देवता, दोनों अश्विनी कुमार तथा समस्त मरुतगण और पितरों का समूह, सभी गंधर्व, सभी यक्ष, समस्त राक्षस और सिद्धों के समूह वह सभी आश्चर्यचकित होकर आपको देख रहे हैं।
नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णंव्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् ।
दृष्टवा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो ॥
अर्जुन कहते हैं- विश्व का पालन करने वाले हे विष्णो ! आकाश को स्पर्श करता हुआ, अनेको प्रकाशमान रंगो से युक्त मुख को फैलाये हुए और आपकी चमकती हुई बड़ी-बड़ी आँखों को देखकर मैं भयभीत हो रहा हूँ। मैं न धैर्य धारण कर पा रहा हूँ और न ही शान्ति को प्राप्त कर पा रहा हूँ। यहाँ हम सबके मन में एक शंका पैदा होती है, कि अर्जुन में एक तो खुद की सामर्थ्य है, दूसरी भगवान ने दिव्य-दृष्टि भी दे रखी है, फिर भी भगवान का विराट स्वरूप देखकर अर्जुन डर गए, पर संजय नहीं डरे, क्यों? संत महापुरुषों से ऐसा सुना जाता है कि भीष्म, विदुर, संजय और कुंती ये चारों श्रीकृष्ण-तत्व को विषेशरूप से जानते थे। संजय पहले से ही भगवान के भाव-प्रभाव से भली-भांति परिचित थे इसलिए नहीं डरे। अर्जुन का मोह अभी दूर नहीं हुआ था, इसलिए विमूढ़ भाव के कारण अर्जुन भय-भीत हुए।
दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानिदृष्टैव कालानलसन्निभानि ।
दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥
अर्जुन कहते हैं— हे जगत के मालिक ! आपके प्रलयंकारी अग्नि के समान प्रज्ज्वलित विकराल मुखों को देखकर मैं आपकी न तो कोई दिशा को जान पा रहा हूँ और न ही सुख पा रहा हूँ। इसलिए हे देवेश ! हे जगन्निवास ! आप मुझ पर प्रसन्न हों। भगवान तो प्रसन्न होकर अर्जुन को अपने विराटस्वरूप के दर्शन करा रहे थे, पर उनके उग्र रूप को देखकर अर्जुन को वहम हो रहा था कि भगवान अप्रसन्न हैं। इसलिए वे भगवान को प्रसन्न होने के लिए प्रार्थना कर रहे हैं।
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे।
हे नाथ नारायण वासुदेव ॥
श्री वर्चस्व आयुस्व आरोग्य कल्याणमस्तु --------
जय श्री कृष्ण ----------
- आरएन तिवारी