Gyan Ganga: श्रीराम ने जब सेतु निर्माण का आदेश दिया तब जाम्बवान की क्या प्रतिक्रिया रही?

By सुखी भारती | Feb 14, 2023

भगवान श्रीराम जी से आज्ञा पाकर, समुद्र नरेश चला गया। श्रीराम जी, जिनके श्रीमुख से हमने अभी तक भी यह शब्द नहीं सुने थे, कि ‘हम सबने सागर पार करने पर इतना विलम्भ कयों कर रखा है’, लेकिन अब वह क्षण सामने खड़ा था, जब श्रीराम जी उत्साह के साथ कह रहे हैं-


‘सिंधु बचन सुनि राम सचिव बोलि प्रभु अस कहेउ।

अब बिलंअु केहि काम करहु सेतु उतरै कटकु।।’


हे मंत्रियों! अब आप लोग विलंब क्यों कर रहे हैं? शीघ्रता से सागर पर सेतु तैयार करो और अपनी संपूर्ण सेना को उस सेतु पर उतार दो। आध्यात्मिक दृष्टि से देखें, तो श्रीराम जी यहाँ आंतरिक जगत की झलकी का दर्शन करवा रहे हैं। विचार करने योग्य बात यह है, कि वानरों एवं स्वयं श्रीराम जी को, भक्ति स्वरूपा श्रीजानकी जी के पावन मिलन की, कब शीघ्रता नहीं थी? वे तो सदा से इस दिव्य मिलन हेतु तत्पर थे। अर्थात आत्मा का प्रभु से पूर्ण मिलन तो तभी हो सकता है, जब बीच में भक्ति की प्राप्ति का पड़ाव आता है। भगवान भले ही हमारे साथ रहते हुए भी क्यों न दृष्टिपात हों, लेकिन जब तक भक्ति स्वरूपा माँ जानकी जी की शरण में हम नहीं रहते, तब तक प्रभु का मिलन अधूरा ही रहता है। जिसमें सबसे बड़ी रुकावट यह विशाल सागर हुआ करता है। सागर क्या है? जिसे बड़े से बड़े योद्धा भी पार नहीं कर पा रहे हैं। वास्तव में हमारी विषय वासनाओं का संकलन ही सागर है। जिसे सहज ही पार नहीं पाया जा सकता। इसे पार करने के लिए तीन दिन तक श्रीराम जी ने उपवास रखा, प्रार्थनायें की एवं तपस्या की। तब कहीं जाकर सागर पार करने की युक्ति प्राप्त होती है। वह युक्ति ही सार है। साधक भी त्याग तपस्या के बल पर ऐसी युक्ति के लिए स्वयं को तैयार करता है। युक्ति न हो, तो भगवान भी असहाय से प्रतीत हो रहे हैं। लेकिन जैसे ही युक्ति प्राप्त होती है, फिर वह होता है, जो होना सृष्टि का नियम ही नहीं है। जी हाँ, पत्थर का स्वभाव पानी में जाने पर, डूब जाना है। लेकिन युक्ति प्राप्त होने पर वे पत्थर भी आराम से तैर रहे हैं। और सबसे बड़ी बात, कि वानरों ने इससे पूर्व कभी इतने बड़े-बड़े पत्थरों को नहीं उठाया था। लेकिन जैसे ही सेतु निर्माण के इस महान कार्य में जुटे, तो वानर इन विशाल पर्वतों को उठाने के पश्चात भी, न ही तो थक रहे हैं, और न ही उन्हें यह परिश्रम प्रतीत हो रहा है। कारण कि सभी वानर मन में श्रीराम जी के सुमिरन में रत थे। और प्रभु के सुमिरन के प्रताप से सब अपने आप हो रहा था-

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‘राम प्रताप सुमिरि मन माहीं।

करहु सेते प्रयास कछु नाहीं।।’


लेकिन श्रीराम जी ने, जैसे ही सेतु निर्माण करने का अविलम्ब आरम्भ करने का आदेश दिया, तो जाम्बवान् जी से रुका न गया। वे उसी क्षण श्रीराम जी को बोले, कि हे नाथ! सेतु तो आपका नाम ही है। जिस पर चढ़कर मनुष्य संसार रूपी सागर से पार उतरता है।


निश्चित ही जाम्बवान् जी ने सत्य भाषण दिया था। कयोंकि संसार से पार होना है, तो प्रभु के नाम का सहारा तो लेना ही होगा। फिर देखना, जिन जीवों को पत्थरों की भाँति डूबना ही डूबना था, वे भी तैर जाते हैं। और ऐसे पत्थर रूपी जीवों का समूह जब आपस में मिलकर कार्य करता है, तो लंका विजय की गाथा, सहज ही गढ़ी जाती है। नल और नल पत्थरों पर ‘श्रीराम’ अंकित करके, उन पत्थरों को सागर में फेंकते और पत्थर पानी में तैरने लगते। साथ में एक विलक्षण घटना यह भी घट रही थी, कि नल और नील को उन पत्थरों का तनिक भी भार न लगना। वे उन भारी भरकम पत्थरों को गेंद की मानिंद फेंक रहे थे।

साधारण जन मानस के हृदय में यह प्रश्न उत्पन्न होना स्वाभाविक है, कि क्या सेतु निर्माण कार्य में ऐसा क्या था, कि वानर सेना को थकान छू भी नहीं पा रही थी। वास्तव में श्रीराम सेतु निर्माण कोई साधारण सेतु नहीं था। कारण कि इस सेतु में विशेषता थी, कि यह सेतु बड़े से बड़े समुद्री तुप़फ़ान का भी मुख मोड़ सकने में सक्षम था। कैसी भी सुनामी आती, उसे श्रीराम सेतु पर आकर निश्चित ही रुकना था। फिर यह सेतु केवल वानरों के उस पार जाने के लिए थोड़ी न था। इस सेतु को तो युगों युगों तक अपनी सेवायें प्रदान करनी थी। इस सेतु को कितने ही जीवों का आश्रय बनना था। और इसमें वानरों द्वारा किया गया परिश्रम, केवल मात्र परिश्रम नहीं था, अपितु एक महान सेवा थी। और समाज कल्याण के लिए की गई सेवा, कभी थकाती नहीं है, अपितु ऊर्जा से भरती है। श्रीराम जी के कार्य में लगना ऊर्जावान होना ही सिखाता है। तभी तो आज तक असंख्य ही जीव, जन सेवा के माध्यम से अपना कल्याण करवा रहे हैं।


इसी बीच उत्साह से परिपूर्ण श्रीराम जी मन में भगवान शंकर के प्रति भक्ति भाव का सागर हिलोरे लेने लगता है। श्रीराम अपने भक्ति भाव को कैसे मूर्त रुप देते हैं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।


-सुखी भारती

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