By सुखी भारती | Aug 12, 2021
करोड़ों की संख्या में वानर श्रीराम जी को प्रणाम करके श्रीसीता जी की खोज में संलग्न हेतु तत्पर थे। लेकिन श्रीहनुमान जी का कोई तो गहन चिंतन रहा होगा, कि वे श्रीराम जी को तब प्रणाम करते हैं, जब सभी वानर श्रीराम जी को प्रणाम कर निवृत्त हो जाते हैं। और आश्चर्य की बात यह भी रही कि श्रीराम जी अपनी दिव्य मुद्रिका अन्य किसी वानर को न दे करके, मात्र श्रीहनुमान जी को ही प्रदान करते हैं। इससे पहले कि हम आगे घटित होने वाली घटना पर चिंतन करें, पहले इस तथ्य पर दृष्टिपात करें कि श्रीराम जी को प्रणाम करने, श्रीहनुमान जी सबसे अंत में ही क्यों आये। क्या श्रीहनुमान जी के हृदय में श्रीराम जी के पावन दर्शनों की कोई उत्कण्ठा ही शेष नहीं बची थी? जो श्रीहनुमान जी, श्रीराम जी के पावन मुख से कभी नजरें ही नहीं हटाना चाहते थे, वे भला इस स्वर्णिम अवसर को अपने हाथ से कैसे जाने दे सकते हैं। कहीं उन्हें इस बात का अहं तो नहीं हो गया था, कि मैंने सुग्रीव के मसले को कितने सुंदर ढंग से सुलझा दिया? जी नहीं! ऐसा तो कहीं लेश मात्र भी नहीं था। क्योंकि श्रीहनुमान जी के संबंध में ऐसा लिखना अथवा सोचना भी पाप है। कारण यह कि श्रीहनुमान जी जिस उच्च कोटि के भक्त हैं, उसमें उनके प्रति इस प्रकार की कल्पना तो स्वप्न में भी नहीं की जा सकती। वैसे तो हमारी कलम व शब्दों में इतना सामर्थ्य कहाँ, कि उनकी पावन महिमा को कागज की छाती पर छाप पायें, लेकिन उनकी महिमा को हमें गाने का शुभ अवसर मिले, तो ऐसा सौभाग्य भला हम अपने हाथों से कैसे जानें देने देंगे? और ऐसा भी नहीं है कि केवल आज ही हम यह प्रयास करेंगे, हम तो प्रार्थना करते हैं कि यह पुनीत कार्य, प्रभु हमसे बार-बार करवायें। खैर! चलिए पुनः मूल विषय पर लौटते हैं।
श्री हनुमान जी, श्रीराम जी के प्रति भाव शून्य हो गये हों, ऐसा तो किंचित मात्र भी नहीं है। तो फिर क्यों, श्रीहनुमान जी ने श्रीराम जी को पहले प्रणाम करने का अवसर जाने दिया। सज्जनों! श्रीराम जी समस्त संसार के समक्ष श्रीहनुमान जी के माध्यम से, भक्ति के महान सूत्रों को प्रस्तुत करना चाहते हैं। तभी श्रीहनुमान जी ऐसी अटपटी व रहस्यमयी-सी लीलायें कर रहे हैं। श्रीराम जी की दिव्य प्रेरणा से श्रीहनुमान जी सेवक धर्म का सुंदर आदर्श रखना चाहते हैं। आदर्श यह कि प्रभु भले ही आपको सबसे श्रेष्ठ भक्त होने का मान क्यों न दें। आपको सबसे अलग व विशेष स्नेह व घनिष्ठता से भी मिले। लेकिन तब भी आपके मन में यह कभी भी, लेष मात्र भी न आने पाये कि आप अन्य वानरों से कहीं कुछ अधिक श्रेष्ठ हैं। और प्रभु के आप ही एक मात्र महान सेवक हैं। निश्चित ही ऐसे भाव अहंकार का सूचक होंगे। और अहंकार ही तो भक्ति मार्ग का सबसे बड़ा बाधक है। अहंकार भक्ति पथ के महान से महान पर्वत को भी ऐसे खा जाता है, जैसे कोई चिंगारी का नन्हां-सा कण भी रुई के विशाल भण्डार को जलाने के लिए पर्याप्त होता है।
श्रीहनुमान जी तो क्योंकि भगवान शंकर जी के अवतार ठहरे। उन्हें भला अहंकार ने कहाँ छूना था। अहंकार उन्हें छूने निकले भी, तो उल्टे अहंकार ही नष्ट हो जायेगा। लेकिन समस्या यह थी कि अन्य वानर तो श्रीहनुमान जी जैसे महान योगी व अवतार नहीं थे। उन्हें मात्र अहंकार ही नहीं, अपितु प्रत्येक विषय अपनी चपेट में सहज ही ले लेता था। सुग्रीव के जीवन में हम इसका प्रत्यक्ष उदाहरण देख ही चुके हैं। श्रीहनुमान जी ने जब सबसे अंत में प्रणाम किया, तो वे मुख्यतः यही संदेश देना चाहते हैं, कि भले ही आप असीम बल के धनी हों, सूर्य को भी कभी आप ने खेल-खेल में फल समझकर खाने का अविश्वसनीय कार्य भी कर डाला हो। सबसे बड़ी बात आप साक्षात महादेव के अवतार भी क्यों न हों। तब भी अगर आप कहीं समूह में किसी परमार्थ कार्य में संलग्न हों। और यह भी स्पष्ट हो कि वह कार्य को आप ही पूर्ण करने जा रहे हैं, तब भी आपका यही प्रयास रहना चाहिए कि सर्वप्रथम यह अवसर औरों को पहले मिले। जिससे उनके मन में भी यह भाव बना रहे कि हाँ, वे भी सेवा के अभिन्न अंग हैं।
प्रभु उन पर भी विश्वास करते हैं। जिससे उनके मन में अपने लक्ष्य के प्रति निष्ठा व समर्पण में वृद्धि होती रहे। सेवा में निर्धारित लक्ष्य पाने के पश्चात, साधक के मन में आश्चर्यजनक रूप से परिर्वतन आते हैं। उसकी आंतरिक व बाह्य अवस्था आध्यात्मिक मिठास से भरपूर हो जाती है। दैविक गुण उसकी प्रत्येक क्रिया में झलकने लगते हैं। अगर कहीं किसी जीव के जीवन में ऐसा होने लगे तो समझिए कि प्रभु के अवतरण का उद्देश्य पूर्ण हो गया। और इस सुंदर व पुनीत कार्य में आपके प्रयास का नन्हां-सा भी अंश लग गया, तो आपके कितने पुण्य कर्म बनेंगे, इसका आप अनुमान भी नहीं लगा सकते। श्रीहनुमान जी अपने जीवन में इस सुंदर संदेश वाहक घटना से भक्ति का संस्कार रोपित करना चाहते हैं। उनकी यह दृढ़ इच्छा है कि प्रत्येक साधक समर्पण व त्याग की भावना से इसी तरह संपन्न हो। श्रीहनुमान जी सबसे अंत में श्रीराम जी के चरणों में उपस्थित हुए, तो इसके पीछे व्यक्ति की दो सोच हो सकती हैं। पहली है सांसारिक सोच, जो यह कहती है कि जब भी कहीं कुछ बंट रहा हो, तो सबसे पहले ही, अग्रिम पंक्ति में लगकर झपट लो, क्योंकि क्या पता कि अंत में कुछ हाथ ही न लगे, सब समाप्त हो जाये। ऐसे में हम घाटे में चले जायेंगे। इसलिए पहले ही झोलियां भर-भर कर ले जाना चाहिए। लेकिन इसके ठीक उल्ट आध्यात्मिक चिंतन का सोचना दूसरा है।
आध्यात्म कहता है कि बांटने वाला अगर कोई सांसारिक दानी है, तो संभावना है कि उसके खजाने अंत तक खाली हो जायें। लेकिन बांटने वाले जब साक्षात श्रीराम जी हों, तो खजानों की भला क्या मजाल कि वे घट जायें। लेने वाले लेते-लेते थक जायेंगे, लेकिन देने वाला कभी नहीं थकता और न ही उसके भण्डार में कभी त्रुटि आती है। हाँ, एक लाभदायक संभावना व अवसर अवश्य ही प्रकट हो जाता है, वह यह कि आपने अगर अंत में भी झोली फैलाई है, तो आपकी झोली में जो डलना है, वह तो डलना ही है। हो सकता है कि प्रभु आपको देखें और यह कहें, कि अरे! अब तो एक ही भिक्षार्थी बचा है? तो चलो बाकी का बचा, सारा धन्य-धान्य इस भिक्षार्थी को ही दे देते हैं। बाकी बचा हुआ मिलने का अर्थ आप समझते हो न? जी हाँ! प्रभु के भण्डार में बाकी बचा हुआ तो फिर अनंत ही होता है। अर्थात आपको अनंत की प्राप्ति होना निश्चित है। और देखो प्रभु श्रीराम जी ने श्रीहनुमान जी को जो मुद्रिका दी है, वह सूचक है कि वही श्रीराम जी का बचा हुआ भण्डार है। कारण कि आगे चलकर श्रीहनुमान जी की भेंट जब श्रीसीता जी से होती है, तो इस मुद्रिका के आधार पर ही, श्रीसीता जी श्रीहनुमान जी पर विश्वास कर पाती हैं। क्योंकि श्रीसीता जी साक्षात भक्ति हैं, और भक्ति ही तो वास्तव में समस्त खजानों का स्रोत है। श्रीहनुमान जी मुद्रिका लेकर आगे क्या करते हैं, जानेंगे अगले अंक में...(क्रमशः)...जय श्रीराम!
-सुखी भारती