By सुखी भारती | May 11, 2023
रावण को वीर अंगद भले ही फूटी कौड़ी नहीं सुहा रहे थे। लेकिन फिर भी वह उनकी बातों को बड़े कष्ट से श्रवण कर पा रहा था। कारण यह था, कि वह यह जानना चाह रहा था, कि वीर अंगद, उसके कौन से मित्र का बेटा था? लेकिन वीर अंगद के तेवर देख कर ऐसा किंचित भी प्रतीत नहीं हो रहा था, कि उन्हें रावण से रत्ती भर भी कोई सदभाव हो। वीर अंगद ने रावण को जो सलाह दी, कि ऐसा करने से श्रीराम जी तुम्हारे समस्त पाप क्षमा कर देंगे, वह सलाह क्या रावण को स्वीकार होने वाली थी? क्योंकि ऐसी सलाह तो रावण को किसी ने स्वपन में भी नहीं दी थी। रावण हैरान था, कि मुझे मेरी ही सभा में, ऐसा कहने का साहस, भला कैसे कोई कर सकता है? जी हाँ, वीर अंगद जी की रावण को दी जाने वाली सलाह ही ऐसी थी, कि उसे श्रवण कर आप भी हँस पड़ेंगे-
‘दसन गहहु तृन कंठ कुठारी।
पसजिन सहित संग निज नारी।।
सादर जनकसुता करि आगें।
एहि बिधि चलहु सकल भय त्यागें।।’
अर्थात हे रावण! तुम्हें ज्यादा कुछ नहीं करना है। माता सीता जी ने भी तुम्हारे समक्ष एक तिनके को ही मध्य में रखकर, अपनी रक्षा की थी न? तो बस तुम भी यही करो। क्या करो, कि एक तिनका अपने दांतों में दबाकर, गले में भी कुछ डाल लो। और हाँ, गले में कोई हार-वार नहीं डालना है। अपितु एक कुल्हाड़ी को गले में डालना है। माना कि यह तुम्हारी झूठी प्रतिष्ठा के लिए, कहीं भी उचित नहीं है। लेकिन तब भी तुम्हें यह करना है। और इसमें भी एक बात का विशेष ध्यान रखना। वह यह कि जब तुम अपने महलों से ऐसा करते हुए निकलो, तो तुम भूलकर भी अकेले न हो। जी हाँ, आपके साथ आपके सभी कुटुम्बि व आपकी समस्त रानियां साथ में अवश्य हों। ऐसा भी न हो, कि पूरी यात्र के दौरान तुम सबसे आगे हो चलो। मेरे द्वारा तुम्हें आगे नहीं चलने का सुझाव देने का अर्थ यह भी नहीं, कि तुम सबसे पीछे अथवा कुटुम्बियों की भीड़ में बिल्कुल मध्य में ही चलने लगो। रहना तो अपने कुटुम्बियों की भीड़ में सबसे आगे ही है, लेकिन तुमसे भी आगे किसी और को होना होगा। और वे होंगी जगजननी माता सीता जी। जिनको कि तुम ससम्मान के साथ प्रभु को वापिस लौटा रहे होगे।
रावण ने यह सुना, तो भीतर ही भीतर हतप्रभ रह गया। कि अरे, यह बँदर तो अपनी मर्यादा को तार-तार किए जा रहा है। पहले वाला वानर तो फिर भी ठीक था। कम से कम मेरी महिमा तो जानता था। लेकिन इसने तो मुझे उल्लू ही समझ रखा है। मैं त्रिलोकपति रावण भला ऐसे वेष में भी आ सकता हूँ क्या? यह वानर तो मेरे बारे में बड़ी नीच कल्पना करे बैठा है। रावण इससे पहले, कि आगे कुछ बोल पाता, वीर अंगद फिर बोल उठे-
‘प्रनतपाल रघुबंसमनि त्रहि त्रहि अब मोहि।
आरत गिरा सुनत प्रभु अभय करेंगे तोहि।।’
हे रावण! एक अहतयात और। वह यह, कि ऐसा तो भूल कर भी मत करना, कि तुम संपूर्ण कुटुम्ब को लेकर, श्रीराम जी के समक्ष केवल खडे़ होकर ही लौट आओ। जी नहीं, तुम्हें अब श्रीराम जी के समक्ष यह स्तुति करनी है, कि 'हे शरणागत के पालन करने वाले रघुवंश शिरोमणि श्रीराम जी! मेरी रक्षा कीजिए, मेरी रक्षा कीजिए’। इस प्रकार आर्त पुकार सुन कर, श्रीराम जी तुम्हें अवश्य ही निर्भय कर देंगे।
अब रावण से रहा न गया। कारण कि ऐसी बात सुनना तो उसके लिए विष के समान था। रावण की आँखों में क्रोध की ज्वाला प्रज्जवलित हो उठी। वह किसी विषैले नाग की भाँति फनफनाने लगा। उसके होंठों को तिलमिलाते हुए, वर्णमाला के शब्दकोष से कोई उचित शब्द भी नहीं मिल पा रहे थे, लेकिन तब भी रावण बोला-
‘रे कपिपोत बोलु संभारी।
मुढ़ न जानेहि मोहि सुरारी।।
कहु निजल नाम जनक कर भाई।
केहि नातें मानिऐ मिताई।।’
रावण अब तक तो वीर अंगद को मारने का आदेश भी दे देता। लेकिन उसके मन में एक ही बात घूम रही थी, कि आखिर यह मेरे कौन से मित्र का बेटा है? अब रावण भले ही क्रोध में है, लेकिन तब भी वह पूछता है, कि हे बँदर के बच्चे! तनिक सँभलकर बोल। मूर्ख! मुझ देवताओं के शत्रु को तूने अभी तक जाना नहीं। अरे भाई! अपना और अपने बाप का नाम तो बता। मुझे भी तो पता चले, कि किस नाते तू हमसे मित्रता मानता है?
वीर अंगद ने यह सुना, तो वे पूर्ण उत्साह व चाव से बोले-
‘अंगद नाम बालि का बेटा।
तासों कबहुँ भई ही भेंटा।।
अंगद बचन सुनत सकुचाना।
रहा बालि बानर मैं जाना।।’
रावण ने जैसे ही बालि का नाम सुना। तो वह सकुंचा गया। सकुंचाना तो था ही। कारण कि, जिसने उसे छह माह तक अपनी कांख में दबा कर घुमाया हो। उसका ही वीर पुत्र उसके समक्ष खड़ा हो। और वह भी उसके परम शत्रु का दूत बनकर। तो ऐसे में सकुंचाना तो बनता ही है न? अब मामला थोड़ा पेचीदा बन गया था। रावण असमंजस में था, कि अब वह वीर अंगद को बालि का पुत्र होने के नाते, अपना हितकारी माने, अथवा श्रीराम जी का दूत होने के नाते अपना शत्रु माने।
ऐसी स्थिति में रावण व वीर अंगद के मध्य क्या वार्ता होती है, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती