सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥
प्रभासाक्षी के श्रद्धेय पाठकों ! आइए, भागवत-कथा ज्ञान-गंगा में गोता लगाकर सांसारिक आवा-गमन के चक्कर से मुक्ति पाएँ और इस मानव जीवन को सफल बनाएँ। पिछले अंक में हम सबने ऋषि दुर्वासा और राजा अंबरीष के अनन्य भक्ति की कथा सुनी।
वास्तव में ऋषि दुर्वासा भगवान शंकर के अवतार हैं। वे किसी को भी दुख पहुंचाना नहीं चाहते। उन्होंने विष्णु भगवान के भक्तों की महिमा बढ़ाने के लिए यह लीला रची। यदि दुर्वासा ने यह लीला नहीं की होती तो आज इस जगत में राजा अंबरीष की अनन्य भक्ति को कौन जानता ? यही इस कथा का हृदय है।
आइए ! आगे की कथा प्रसंग में चलते हैं---
परम हंस श्री शुकदेव जी महाराज परीक्षित से कहते हैं, हे परीक्षित !
इन्हीं अंबरीष के पावन वंश में युवनाश्व हुए, उन्होंने मंत्र पढ़े हुए (अभिमंत्रित) जल को पी लिया था इसलिए उनके उदर से मानधाता का जन्म हुआ। मानधाता के ही वंश में सत्यव्रत हुए और उन्हीं के वंश में हरिश्चंद्र हुए। हरिश्चंद्र के पुत्र रोहित हुए रोहित के बाहुक हुए बाहुक के सगर हुए और सगर के हजारो पुत्र हुए। इनके अश्वमेघ यज्ञ का घोड़ा इन्द्र ने चुराकर कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया। सगर पुत्रों ने कपिल मुनि को चोर समझ लिया और अपशब्द कहने लगे।
एष वाजि हरश्चोर: आस्तेमिलितलोचन;
पाखंडी को देखो हमारा घोड़ा चुराकर कैसे आँख बंद करके बैठा है। कपिल मुनि के नेत्र खुल गए और राजा सगर के साठ हजार पुत्र जलकर राख हो गए। अब कैसे उधार हो? कपिल मुनि ने ही उपाय बताया कि गंगा मैया के जल के स्पर्श से ही उधार हो सकता है। तब सगर पुत्र असमंजस, असमंजस पुत्र अंशुमान, अंशुमान पुत्र दिलीप और दिलीप के पुत्र भगीरथ। भगीरथ ने घोर तपस्या की तब जाकर गंगा प्रकट हुईं। भगवान शंकर ने जटाओं के बीच गंगा को स्थान दिया। आगे-आगे भगीरथ और पीछे-पीछे भागीरथी चल पड़ी। रास्ते में जहनु ऋषि के आश्रम को गंगा ने बहा दिया, जह्नु बाबा ने पूरी गंगा को ही पान कर लिया। भगीरथ ने प्रार्थना की तब जह्नु ने गंगा को पुन: प्रकट किया। जह्नु पुत्री होने के कारण गंगा को जाह्नवी भी कहते हैं। बोलिए-- गंगा मैया की जय
अंत में जहाँ सगर पुत्रों की राख पड़ी थी वहाँ गंगा मैया ने जैसे ही स्पर्श किया समस्त सगर पुत्रों का उद्धार हो गया।
यत् जल स्पर्श मात्रेण ब्रह्मदंडाहतादपि।
सगरात्मजा दिवम् जग्मु; केवलम् भस्मभि;॥
इन्हीं भगीरथ के वंश मे ऋतुपर्ण हुए उनके सौदास हुए, सौदास के अश्मद हुए, अश्मद के नारीकवच हुए और नारीकवच के खट्वांग हुए, वहीं खट्वांग जिनके पास मात्र दो घड़ी का समय था और उसी दो घड़ी में ही उनको परम पद प्राप्त हो गया था। खट्वांग के दिलीप हुए, दिलीप के रघु हुए जिनके नाम पर रघुवंश चला। रघु के पुत्र अज़ हुए, अज़ के बेटा दशरथ हुए और दशरथ के घर मे राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न चारों भाइयों का प्रादुर्भाव हुआ।
बोलिए— राघवेंद्र सरकार की जय
श्री शुकदेव जी महाराज ने एक श्लोक मे ही पूरी राम कथा सुनाई।
परीक्षित को संतुष्टि नहीं हुई, एक श्लोक की राम कथा से, तब शुकदेवजी ने दो अध्यायों में राम कथा बहुत ही सूत्रात्मक ढंग से वर्णन की। आइए ! श्रीराम जी की कथा का आरंभ उनकी वंदना से ही करें।
श्री राम चंद्र कृपालु भजमन हरण भाव भय दारुणम् ।
नवकंज लोचन, कंज मुख, कर कंज, पद कन्जारुणम ॥
कंदर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरज सुन्दरम ।
पट पीत मानहु तड़ित रुचि शुचि नौमि जनक सुतावरम् ॥
भजु दीनबंधु दिनेश दानव दैत्य वंश निकंदनम् ।
रघुनंद आनंदकंद कोशलचंद दशरथ नन्दनम ॥
सिर मुकुट कुण्डल तिलक चारू उदारु अंग विभूषणं ।
आजानु भुज शर चाप धर संग्राम जित खर-दूषणं ॥
इति वदति तुलसीदास शंकर-शेष-मुनि-मन-रंजनम् ।
मम हृदय कंज निवास कुरु कामारि खल दल गंजनम् ॥
राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न चारों भाइयों का अवतार अयोध्या में हुआ और उनकी शक्तियों का प्राकट्य मिथिला में हुआ। इन चारों वधुओं ने भी एक ही साथ एक ही परिवार में जन्म लिया। आइए ! हम भी अपने हृदय भवन को अवध और मिथिला बनाकर उन चारों शक्तिमानों को उनकी शक्तियों के साथ अपने-अपने हृदय में विराजमान करें और अपने हृदय में ही रामराज्य की प्रतिष्ठा करें। यह कैसे संभव है। आइए इस पर थोड़ी-सी चर्चा करके रामकथा मन्दाकिनी में आचमन करके फिर आगे बढ़ेंगे। चारों भाइयों में हम नीचे से ऊपर की ओर चलेंगे। राम तत्व को समझने के लिए सबसे पहले छोटे भैया शत्रुघ्न जी का आश्रय लेना पड़ेगा। शत्रुघ्न का मतलब जिनका सुमिरन करने मात्र से समस्त शत्रुओं का नाश हो जाए उनका नाम शत्रुघ्न है। नाम रखते समय गुरुजी ने यही कहा था।
जाके सुमिरन से रिपु नाशा, नाम शत्रुहन वेद प्रकाशा ।
जिनके सुमिरन मात्र से समस्त शत्रु नष्ट हो जाएँ वह शत्रुघ्न है। पर यह ध्यान रखना चाहिए कि बिना शक्ति के शक्तिमान काम नहीं करते। शत्रुघ्नलाल जी की शक्ति का नाम क्या है? श्रुत कीर्ति। श्रुतकीर्ति का अर्थ है कि अपने कर्णपूटो से भगवान का गुण-गान सुनना। भगवान की कीर्ति जो शास्त्रों में भरी पड़ी है, जिसको सुनते ही जीवन में मंगल हो जाता है।
श्रवण मंगलम। वह श्रुतकीर्ति जब हृदय में पहुंचेगी तब जो काम, क्रोध, मद, लोभ आदि शत्रु हमारे हृदय भवन में छिपे बैठे हैं उन सभी शत्रुओं का विनाश हो जाएगा। यह साधक की पहली सीढ़ी है।
प्रथम भगति संतन्ह करि संगा, दूसरी गति मम कथा प्रसंगा।
संतों के समीप में बैठकर कथा का श्रवण करेंगे तो भीतर के शत्रु खुद ही समाप्त हो जाएंगे। ये बाहर के शत्रुओं से भी ज्यादे भयानक होते हैं। देखो भाई मकान जब खाली होगा तभी तो आप उस पर कब्जा करेंगे। ठीक उसी तरह जब हृदय रूपी हमारा मकान खाली होगा तभी तो ठाकुरजी उस पर कब्जा करेंगे। नहीं तो शत्रुओं से भरा हुआ देखकर सोचेगे houseful है वापस लौट जाएंगे। हमारे लिए कोई जगह नहीं। श्रुतकीर्ति का आश्रय लेते ही शत्रुघ्न जी सारे शत्रुओं को नष्ट कर देते हैं। अब मकान खाली हो गया----------------
शेष अगले प्रसंग में । --------
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
-आरएन तिवारी