कुल्लु में रावण ही नहीं जलता, फिर भी क्यों मशहूर है यहाँ का दशहरा

By संतोष उत्सुक | Oct 18, 2018

दशहरा की धूम के बीच सरकारी अफसर से मैंने पूछा था कि कुल्लू के दशहरे में अंर्तराष्ट्रीय क्या है। उन्होंने मुझे अंग्रेज़ी में समझाया था कि हर साल हम दूसरे देशों के सांस्कृतिक दलों को बुलाते हैं जो यहां अपने लोकनृत्य प्रस्तुत करते हैं। लगा, यह शायद इसलिए कि इस आयोजन में ज्यादा विदेशी पर्यटक आएं। हमारी अपनी लोक संस्कृति व धरती में कम आकर्षण नहीं है। यहां तो सैंकड़ों बरस से दूसरे देशों से व्यापारी आते रहे व सांस्कृतिक कला सम्बंध भी उगते रहे। बात तो कहने, समझने की व सही प्रस्तुति की है। लगभग तीन सौ साठ बरस से मनाए जा रहे इस एतिहासिक, पारम्परिक उत्सव में अभी आन बान व शान सलामत है। दशहरे की परम्पराएं आज भी जीवंत हैं। हिमालय के बेटे हिमाचल की पहाड़ियों की गोद में बसे हर गांव का अपना देवता है। आज भी जब जब लोकउत्सव होते हैं तब तब आम जनता का अपने ईष्ट से मिलना होता है। कुल्लू की नयनाभिराम घाटी में आयोजित होने वाले कई लोकोत्सवों का सरताज है कुल्लू दशहरा। संसार व पूरे देश में दशहरा सम्पन्न हो जाने के बाद आरम्भ होता है यह लोकदेव समागम।

 

 

व्यास नदी के नीले स्वच्छ जल के दाएं किनारे बसे शहर कुल्लू में ढोल, शहनाई, रणसिंघे बज रहे हैं। पहाड़ियों की घाटियों, शिखरों व पगरास्तों से रंगबिरंगी पालकियों व रथों में विराजे देवता, ऋषि, सिद्ध व नाग  पधार रहे हैं। पीतल तांबे चांदी के वाद्य, रंग बिरंगे झंडे, चंवर व छत्र, विशेष चिन्ह, अनुभवी पुजारी, पुरोहित, संजीदा गूर व कारदार सब शामिल हैं देव यात्रा में। देवों में भाई, बहन, भाई भाई, छोटे बड़े व गुरु चेले के रिश्ते हैं। बताते हैं कभी इस समागम में देव शिरोमणि श्री रघुनाथजी के पास हाजिरी देने पूरे तीन सौ पैंसठ देवी-देवता पधारते थे अब यह संख्या कम रह गई है। शहर के तीन मुख्य हिस्से सुल्तानपुर, अखाड़ा बाजार व ढालपुर मैदान में मेले की रौनक होती है।

 

सत्रहवीं सदी में राजा मान सिंह ने उत्सव को व्यापारिक मोड़ दिया। आर्थिक कारणों से यह उत्सव तब शुरू होता था जब देश के निचले भागों में सम्पन्न हो चुका हो ताकि स्थानीय व्यापारी शामिल हो सकें। तब यहां रूस, समरकंद, यारकंद, तिब्ब्त, रूस व चीन से व्यापारी भी आते थे। राजाओं के जमाने में उत्सव में नए आयाम जुड़े। बिकने आए घोड़ों की घुडदौड़ से लेकर शाही कैम्पों में अपने अपने ढंग का नाचगान-खानपान होता रहता। समय के बहाव में कुछ बदलाव तो आए ही कुछ लोकतंत्र व शासकतंत्र ने भी प्रयास किए।

 

 

सन 1660 में पहली बार दशहरा आयोजित किया गया था। दिलचस्प व अनूठा यह है कि इस आयोजन में रावण, मेघनाद व कुम्भकरण के पुतले नहीं जलाए जाते, बल्कि ढालपुर मैदान में लकड़ी से बने कलात्मक व आकर्षक सजे रथ में फूलों के बीच आसन पर विराजे रघुनाथ की पावन सवारी को मोटे मोटे रस्सों से खींचकर दशहरा की शुरूआत होती है। इससे पहले देवी देवता सुल्तानपुर में स्थित रघुनाथजी के मंदिर में माथा टेक यहीं स्थित राजमहल में जाते हैं। कुछ देव सीधे रथयात्रा में शामिल होते हैं। सुल्तानपुर में रघुनाथजी को एक पालकी में सुसज्जित कर देव समुदाय व गाजेबाजे के साथ ढालपुर लाया जाता है। रथ में बिठाकर पूजा अर्चना की जाती है। चंवर झुलाया जाता है। राज परिवार के सदस्य पारम्परिक शाही वेशभूषा में छड़ी लेकर उपस्थित रहते हैं। परिक्रमा की जाती है। रथ के आसपास देवता उपस्थित रहते हैं। यह घटनाक्रम देखना सचमुच अविस्मरणीय व एतिहासिक है। इतिहास प्रत्यक्ष सामने होता है। अनूठे अतिसुविधायुक्त कैमरे यह समय अलग अलग कोणों से यादें संचित कर रहे होते हैं। हर श्रद्धालू चाहता है कि वह रथ खींचे मगर ऐसा कहां हो पाता है। माना जाता है जो इस क्रिया का हिस्सा बन पाता है उसकी कामना पूरी होती हैं। रस्से के बाल को पवित्र मानते हैं।

 

यह उत्सव आज भी क्षेत्रवासियों के लिए अपने देवताओं से मिलने का अभिन्न अवसर है। आयोजन के दौरान देवनृत्य होता है तो श्रद्धालु भी रात-रात उनके इर्दर्गिद नाचते रहते हैं। दिन में देव, गूर के माध्यम से भविष्यवाणी करते हैं। भक्त मनौतियां करते हैं। यहां दैवीय शक्ति के अनुभव होते देखे जा सकते हैं। दशहरा के अंतिम दिन लंका दहन होता है। निश्चित समय पर रथ पर सवार रघुनाथजी, मैदान के निचले हिस्से में नदी के किनारे पर ग्रामीणों द्वारा लकड़ी एकत्र कर निर्मित की सांकेतिक लंका को जलाने जाते हैं। शाही परिवार की कुलदेवी होने के नाते देवी हिडिम्बा भी यहां विराजमान रहती हैं। परम्पराएं ऐसी हैं कि कई देवता व्यास नदी लांघे बिना इस देव समारोह का हिस्सा बनते हैं। एक देवी की माता गांव के साथ एक पेड़ के पास बैठकर दशहरा देखती हैं।

 

इस वर्ष भी अंर्तराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा में लोक संस्कृति का रंग खूब जमेगा। हर बरस की मानिंद आमंत्रित देवी-देवताओं को सरकार नजराना पेश करेगी। दशहरा के साथ-साथ पर्यटक कुल्लू में सेब बागीचों, राक क्लाइंबिंग, रिवर राफ्टिंग, पर्वतारोहण, ट्रैकिंग, पैराग्लाइडिंग का स्वाद चख सकते हैं। धार्मिक श्रद्धालू कुल्लू नगर में भगवान राम रघुनाथ के मंदिर के इलावा, कुल्लू मनाली रोड पर वैष्णोदेवी का गुफामंदिर, भेखली में भुवनेश्वरी मंदिर जो पहाड़ी पेंटिंग्स व पत्थर मूर्ति शिल्प के लिए प्रसिद्ध है, दियार में भगवान विष्णु मंदिर, बजौरा में आठवीं शताब्दी निर्मित पत्थर पर कार्विंग के लिए प्रसिद्ध शिव के विश्वेश्वर मंदिर का रूख कर सकते हैं। कुल्लू का रूपी महल मिनिएचर पेंटिंग्स का दिलकश नमूना है। इस शहर से आगे कितनी ही जगहें हैं जो आपको बार बार बुलाने में सक्षम हैं।

 

इस बार दशहरा कुल्लू में हो जाए।

 

-संतोष उत्सुक

प्रमुख खबरें

भारत दूसरों को अपने फैसलों पर वीटो लगाने की अनुमति नहीं दे सकता: जयशंकर

National Mathematics Day 2024: रामानुजन के गणितीय सूत्र दुनिया भर के गणितज्ञों के लिए आज भी पहेली हैं

फरीदाबाद में महिला ने प्रेमी और साथियों के साथ मिलकर पति की हत्या की साजिश रची, एक गिरफ्तार

वाराणसी में बदमाशों ने सर्राफा कर्मचारी और उसके बेटे को गोली मारकर आभूषण लूटे