By अभिनय आकाश | Apr 13, 2023
गैंगस्टर से राजनेता बने अतीक अहमद के बेटे असद और उसका सहयोगी दोनों उमेश पाल हत्याकांड के सिलसिले में वांछित थे। 13 अप्रैल को झांसी में एक मुठभेड़ में दोनों ही मारे गए। इन गैर-न्यायिक हत्याओं, जिन्हें लोकप्रिय रूप से एनकाउंटर के रूप में जाना जाता है। 'एनकाउंटर किलिंग' केवल पुलिस कर्मियों के संदर्भ में प्रयोग किया जाता है। पुलिस सहित सभी के लिए उपलब्ध व्यक्तिगत रक्षा का अधिकार है। भारतीय दंड संहिता, 1860 में धारा 96 से 106 में व्यक्तिगत रक्षा के अधिकार से संबंधित प्रासंगिक प्रावधान हैं। धारा 96 में कहा गया है कि कुछ भी अपराध नहीं है जो निजी रक्षा के अधिकार के प्रयोग के अधिकार में किया जाता है। आपराधिक संहिता यानी सीआरपीसी की धारा 46 कहती है कि अगर कोई अपराधी ख़ुद को गिरफ़्तार होने से बचाने की कोशिश करता है या पुलिस की गिरफ़्त से भागने की कोशिश करता है या पुलिस पर हमला करता है तो इन हालात में पुलिस उस अपराधी पर जवाबी हमला कर सकती है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) और बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने कानून प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा शक्ति के किसी भी दुरुपयोग को रोकने के लिए उचित दिशा-निर्देश और प्रक्रियाओं का पालन किया है।
असद किस मामले में आरोपी था?
इस मामले में उमेश पाल का कथित अपहरण शामिल है, जिसकी 24 फरवरी को प्रयागराज में अपने दो पुलिस गार्डों के साथ गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। उमेश 2005 के राजू पाल हत्या मामले में एक चश्मदीद गवाह था, जिसमें अहमद मुख्य आरोपी है। उमेश की पत्नी जया के मुताबिक, 2006 में पूर्व सांसद और उनके साथियों ने उनके पति का अपहरण कर लिया और उन्हें अदालत में अपने पक्ष में बयान देने के लिए मजबूर किया।
सुप्रीम कोर्ट ने मुठभेड़ों पर क्या कहा है?
23 सितंबर 2014 को तत्कालीन सीजेआई आरएम लोढ़ा और रोहिंटन फली नरीमन की पीठ ने विस्तृत दिशा-निर्देश जारी किए थे। इस बेंच ने अपने फ़ैसले में लिखा था कि पुलिस एनकाउंटर के दौरान हुई मौत की निष्पक्ष, प्रभावी और स्वतंत्र जांच के लिए इन नियमों का पालन किया जाना चाहिए। दिशा-निर्देश "पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज बनाम महाराष्ट्र राज्य" मामले में आए थे और इसमें प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) के पंजीकरण के साथ-साथ मजिस्ट्रियल जांच के प्रावधानों के साथ-साथ खुफिया सूचनाओं के लिखित रिकॉर्ड रखना और निकायों द्वारा स्वतंत्र जांच शामिल थी। पुलिस कार्रवाई के दौरान हुई मौत के सभी मामलों में अनिवार्य रूप से मजिस्ट्रियल जांच की जानी चाहिए। अदालत ने कहा अपने फैसले में कहा था कि ऐसी पूछताछ में मृतक के निकट संबंधी को निरपवाद रूप से संबद्ध किया जाना चाहिए। हर मामले में जब पुलिस के खिलाफ उनकी ओर से आपराधिक कृत्य करने का आरोप लगाते हुए शिकायत की जाती है, जो गैर इरादतन हत्या का संज्ञेय मामला बनता है, तो इस आशय की प्राथमिकी आईपीसी की उपयुक्त धाराओं के तहत दर्ज की जानी चाहिए। दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 176 के तहत की गई इस तरह की जांच से पता चलता है कि "क्या बल का उपयोग उचित था और की गई कार्रवाई वैध थी। अदालत ने कहा कि इस तरह की जांच के बाद, संहिता की धारा 190 के तहत अधिकार क्षेत्र वाले न्यायिक मजिस्ट्रेट को एक रिपोर्ट भेजी जानी चाहिए।
एनएचआरसी का क्या कहना है?
मार्च 1997 में पूर्व सीजेआई न्यायमूर्ति एम एन वेंकटचलैया ने सभी मुख्यमंत्रियों को यह कहते हुए लिखा कि एनएचआरसी को आम जनता और गैर सरकारी संगठनों से शिकायतें मिल रही थीं कि पुलिस द्वारा फर्जी मुठभेड़ों की घटनाएं बढ़ रही हैं, और उन्हें कानून की उचित प्रक्रिया के अधीन करने की बजाय पुलिस आरोपियों को मार देती है। हमारे कानूनों के तहत पुलिस को किसी अन्य व्यक्ति की जान लेने का कोई अधिकार नहीं दिया गया है। यदि, पुलिसकर्मी अपने कार्य से किसी व्यक्ति को मारता है, तो वह गैर इरादतन हत्या का अपराध करता है। इसके आलोक में एनएचआरसी ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को यह सुनिश्चित करने के लिए कहा कि पुलिस उन मामलों में दिशानिर्देशों का पालन करे जहां पुलिस मुठभेड़ में मौत हुई हो। इनमें मुठभेड़ में हुई मौतों के बारे में प्राप्त सभी सूचनाओं को एक "उपयुक्त रजिस्टर" में दर्ज करना और राज्य सीआईडी जैसी स्वतंत्र एजेंसियों द्वारा जांच के प्रावधान शामिल हैं।