By अभिनय आकाश | Aug 09, 2023
राज्यसभा सांसद और भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ख़बरें बनाने के लिए जाने जाते हैं। वह एक बार फिर चर्चा में हैं। इस बार संसद के उच्च सदन में उनके बयान के कारण है। 7 अगस्त को पारित दिल्ली सेवा विधेयक पर उनके बचाव का अगले दिन सुप्रीम कोर्ट में उल्लेख हुआ और यहां तक कि भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ को यह कहने के लिए प्रेरित किया गया कि एक बार न्यायाधीश पद छोड़ने के बाद जो कुछ भी कहते हैं वह सिर्फ राय है और वह है बाध्यकारी नहीं। आइए घटनाओं के कालक्रम पर एक नज़र डालें। गोगोई ने अगस्त सदन में क्या कहा और सीजेआई चंद्रचूड़ ने टिप्पणी पर क्या प्रतिक्रिया दी। इसके साथ ही बताते हैं कि गोगोई के भाषण के दौरान पांच महिला सांसदों ने क्यों कर लिया वॉक आउट?
गोगोई और दिल्ली सेवा विधेयक
राज्यसभा के लिए नॉमिनेट होने के तीन साल और चार महीने बाद भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने सदन में अपना पहला भाषण दिया। केंद्र सरकार के विवादास्पद दिल्ली सेवा विधेयक के समर्थन में जिसे औपचारिक रूप से दिल्ली (संशोधन) विधेयक, 2023 के रूप में जाना जाता है। संयोगवश, जैसे ही वह कानून के समर्थन में अपनी दलीलें देने के लिए उठे, पांच महिला सांसद जया बच्चन, प्रियंका चतुर्वेदी, वंदना चव्हाण, सुष्मिता देव और कनिमोझी राज्यसभा से बाहर चली गईं। बाद में चतुवेर्दी ने डेक्कन हेराल्ड को बताया कि हम उनके खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोपों के कारण बाहर चले गए। यह ऐसे व्यक्तियों के खिलाफ विरोध का प्रतीक था, चाहे वे कितने भी वरिष्ठ क्यों न हों, महिलाओं का सम्मान नहीं करते हैं और अपने पापों को मिटाने के लिए अपने शक्तिशाली पद का उपयोग करते हैं। गृह मंत्री अमित शाह द्वारा पेश किए गए कानून पर बोलते हुए पूर्व सीजेआई ने राज्यसभा में कहा कि संविधान की मूल संरचना में बहस योग्य न्यायशास्त्रीय आधार है। हो सकता है कि कानून मेरी पसंद का न हो लेकिन यह इसे मनमाना नहीं बनाता है। क्या यह संविधान की मूल विशेषता का उल्लंघन है? मुझे बुनियादी ढांचे के बारे में कुछ कहना है। केशवानंद भारती मामले पर (भारत के पूर्व सॉलिसिटर-जनरल) अंध्यारुजिना की एक किताब है। पुस्तक पढ़ने के बाद मेरा विचार है कि संविधान की मूल संरचना के सिद्धांत बहस योग्य न्यायशास्त्रीय आधार है। मैं इससे ज्यादा कुछ नहीं कहूंगा। उनकी टिप्पणी पर सत्ता पक्ष ने जोरदार तालियां बजाईं और सदस्यों ने जोर-जोर से मेजें थपथपाईं।
गोगोई की टिप्पणी की गूंज सुप्रीम कोर्ट तक
छह घंटे तक बहस के बाद, विधेयक पर मतदान हुआ और सोमवार को ही इसके पक्ष में 131 और विपक्ष में 102 वोट पड़े और इसे पारित कर दिया गया। हालाँकि, मंगलवार को गोगोई की टिप्पणियाँ लोगों के दिमाग में ताज़ा थीं और यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट में भी इसका उल्लेख हुआ। अनुच्छेद 370 मामले की संविधान पीठ की सुनवाई में शीर्ष अदालत में पेश हुए वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने कहा कि वैसे भी, अब आपके एक सम्मानित सहयोगी ने कहा है कि मूल संरचना सिद्धांत भी संदिग्ध है। हालाँकि सिब्बल ने गोगोई का नाम नहीं लिया, लेकिन यह स्पष्ट था कि उनका संदर्भ गोगोई के राज्यसभा बयान की ओर था। सिब्बल की दलील का जवाब देते हुए सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा, “मिस्टर सिब्बल, जब आप किसी सहकर्मी का जिक्र करते हैं, तो आपको एक मौजूदा सहयोगी का जिक्र करना होगा। एक बार जब हम न्यायाधीश नहीं रह जाते, तो हम जो भी कहते हैं, वे केवल राय होते हैं और बाध्यकारी नहीं होते। जबाब में सिब्बल ने कहा कि मैं आश्चर्यचकित हूं...बेशक, यह बाध्यकारी नहीं है। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने भी सिब्बल से कहा कि संसद उस पर चर्चा नहीं करती जो अदालत में होता है और अदालतों को भी संसद में जो चर्चा होती है उस पर चर्चा से दूर रहना चाहिए।
मूल संरचना सिद्धांत क्या है?
सरल शब्दों में सिद्धांत का अर्थ है कि संविधान की एक बुनियादी संरचना है और संसद क़ानून की बुनियादी विशेषताओं में संशोधन नहीं कर सकती है। दिलचस्प बात यह है कि संविधान में कहीं भी बुनियादी संरचना शब्द का कोई उल्लेख नहीं है।यह अवधारणा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 29 अप्रैल, 1973 को ऐतिहासिक 'केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य' निर्णय पारित करते समय बनाई गई थी। यह सिद्धांत सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 1973 में केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के ऐतिहासिक फैसले में विकसित किया गया था। 7-6 के फैसले में 13-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने फैसला सुनाया कि संविधान की 'मूल संरचना' अनुलंघनीय है, और संसद द्वारा इसमें संशोधन नहीं किया जा सकता है। दिलचस्प बात यह है कि जहां सोमवार को गोगोई ने बुनियादी संरचना सिद्धांत के न्यायशास्त्र पर सवाल उठाया, वहीं उन्होंने अतीत में मामलों का फैसला करने के लिए इसका इस्तेमाल किया है। 2019 में, गोगोई ने एक मामले में पांच-न्यायाधीशों की पीठ का नेतृत्व किया था, जिसके दौरान उन्होंने संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन करने के लिए कानून पुनर्गठन न्यायाधिकरणों को रद्द कर दिया था। उसी वर्ष, गोगोई ने यह नियम लागू करने के लिए सिद्धांत लागू किया था कि भारत के मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय सूचना के अधिकार अधिनियम के दायरे में है।
सीजेआई चंद्रचूड़ का क्या कहना है?
सीजेआई चंद्रचूड़ ने भी इस सिद्धांत की 'नार्थ स्टार' के रूप में सराहना की है जो संविधान के व्याख्याकारों और कार्यान्वयनकर्ताओं को मार्गदर्शन और निश्चित दिशा देता है जब आगे का रास्ता जटिल होता है। 21 जनवरी को मुंबई में नानी ए पालकीवाला मेमोरियल व्याख्यान देते हुए, सीजेआई ने कहा था कि हमारे संविधान की मूल संरचना, नॉर्थ स्टार की तरह, संविधान के व्याख्याकारों और कार्यान्वयनकर्ताओं को मार्गदर्शन और निश्चित दिशा देती है जब आगे का रास्ता जटिल होता है। उन्होंने कहा कि हमारे संविधान की मूल संरचना या दर्शन संविधान की सर्वोच्चता, कानून का शासन, शक्तियों का पृथक्करण, न्यायिक समीक्षा, धर्मनिरपेक्षता, संघवाद, स्वतंत्रता और व्यक्ति की गरिमा और एकता और अखंडता पर आधारित है।
केशवानंद भारती केस क्या है?
24 अप्रैल 1973 को भारत की सर्वोच्च अदालत ने केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार मामले में एक ऐतिहासिक फैसला दिया था। इस फैसले को भारत के कानूनी इतिहास में एक मील का पत्थर माना जाता है। 13 जजों की बेंच ने ये फैसला सुनाया था। लगातार न्यायालय में मिल रही हार से सबक लेते हुए केशवानंद भारती केस में इंदिरा गांधी ने पूरी तैयारी कर ली थी। 68 दिन तक चली सुनवाई के दौरान लगभग 100 केस खंगाले गए। अटॉर्नी जनरल ने लगभग 71 देशों के संविधान में संसद द्वारा संविधान में संशोधन करने वाले अधिकारों का चार्ट कोर्ट के समक्ष पेश किया। जब सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अपना फ़ैसला सुनाया तब सुनवाई कर रही पीठ दो भागों में बट चुकी थी। 7 जज जहां इस फ़ैसले के पक्ष में थे, वहीं 6 जज इससे सहमत नहीं थे। खैर, न्यायालय ने तय किया कि संसद के पास संविधान को संशोधित करने का अधिकार है, किन्तु वह किसी भी सूरत में संविधान के मूलभूत ढांचे को नहीं बदल सकते। बुनियादी ढांचे का मतलब है संविधान का सबसे ऊपर होना, कानून का शासन, न्यायपालिका की आजादी, संघ और राज्य की शक्तियों का बंटवारा, धर्मनिरपेक्षता, संप्रभुता, सरकार का संसदीय तंत्र, निष्पक्ष चुनाव आदि।
जगदीप धनखड़ ने क्या कहा था?
इस साल की शुरुआत में,न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर सरकार और न्यायपालिका के बीच खींचतान के बीच, उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहा कि केशवानंद भारती मामले के फैसले ने बुनियादी संरचना सिद्धांत को एक बुरी मिसाल कायम की। धनखड़ ने कहा था कि न्यायपालिका द्वारा संसद की संप्रभुता से समझौता नहीं किया जा सकता है। राज्यसभा के सभापति ने कहा कि अगर कोई संस्था किसी भी आधार पर संसद द्वारा पारित कानून को रद्द कर देती है तो यह लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं होगा और यह कहना मुश्किल होगा कि हम एक लोकतांत्रिक देश हैं।
इसको लेकर क्या कहते हैं विशेषज्ञ
संविधान के जानकारों का मानना है कि अगर संविधान के मूल ढांचे के सिद्धांत को खत्म किया जाता है तो कोई भी प्रचंड बहुमत के साथ आई सरकार संविधन में बड़े चेंज कर सकती है। बेसिक स्ट्रक्चर में बदलाव न करने का सिद्धांत खत्म कर दिया जाता है तो अनुच्छेद 25 या अनुच्छेद 19 जैसे अहम अनुच्छेदों में बदलाव कर सकती है, जिसमें धार्मिक स्वतंत्रता जैसे अहम अधिकारों में कटौती हो सकती है। संविधान के मूल ढांचे के सिद्धांत में बदलाव न करने की व्यवस्था इसलिए दी गई थी कि किसी के पास इतनी ताकत न आ जाए कि वो मनमाना बदलाव करे। संसद के पास इतनी ताकत न आ जाए कि वो इसमें बहुमत वाली पार्टी ऐसे बदलाव कर दे कि कि लोगों के मौलिक अधिकार प्रभावित हो।