वर्चुअल रैली क्या होती है? इसका क्या भविष्य है? इससे राजनीतिक दलों को कितना लाभ मिलेगा?

By गौतम मोरारका | Jan 11, 2022

कोविड 19 के बढ़ते संक्रमण के बीच वर्ष 2020 में संपन्न संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में राष्ट्रपति पद के तत्कालीन दावेदार और अब मौजूदा अमेरिकी राष्ट्रपति जो विडेन ने जिन वर्चुअल रैलियां और इलेक्शन कैंपेन का सहारा लेकर चुनावी विजय श्री का वरण किया है, अब वही डिजिटल व वर्चुअल तकनीक भारत में वर्ष 2022 में होने जा रहे पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी धमाल मचाएगी। हालांकि इसके टेलर तो वर्ष 2020 में हुए बिहार विधानसभा के चुनाव और 2021 में हुए पश्चिम बंगाल विधानसभा के चुनाव में भी देखे जा चुके हैं, जिससे भारतीय राजनैतिक दल भी बेहद उत्साहित हैं।

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बता दें कि केंद्रीय चुनाव आयोग ने बढ़ते कोरोना संक्रमण के बीच सियासी दलों से अपील की है कि चुनाव प्रचार के लिए वो डिजिटल और वर्चुअल चुनाव प्रचार माध्यमों का अधिक से अधिक सहारा लें। क्योंकि आयोग ने चुनावों के दौरान किसी भी तरह की भीड़ नहीं जुटने देने की प्रशासनिक प्रतिबद्धता के मद्देनजर किसी भी तरह की चुनावी रैलियों, नुक्कड़ सभाओं और रोड शो आदि पर प्रतिबंध लगा दिए हैं, ताकि इनमें जुटने वाली भीड़ के सहारे कोरोना वायरस के घर-घर दाखिल होने का मंसूबा पूरा नहीं हो पाए। बता दें कि यह एक ऐसा वायरस है जिसका 'मास इंफेक्शन' किसी भी देश के लिए विपदाकारी बन सकता है।


आपको पता है कि बीते दो वर्षों में वरिष्ठ बीजेपी नेता व गृहमंत्री अमित शाह, उनके बाद रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह समेत अन्य राजनीतिक पार्टियों के नेता भी इक्का-दुक्का  वर्चुअल रैलियां आयोजित कर चुके ने हैं, लेकिन भारत में पहली बार पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में इसका बहुतायत से डिजिटल व वर्चुअल चुनाव प्रचार का अनुप्रयोग होने जा रहा है, जिससे इसका वर्तमान और भविष्य दोनों उज्ज्वल समझा जा रहा है। क्योंकि देश-विदेश के डिजिटल व वर्चुअल कारोबार के विशेषज्ञ कारोबारी इसी शुभ घड़ी का इंतजार कर रहे थे। बता दें कि केंद्रीय चुनाव आयोग ने इस वर्ष हो रहे 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में कोरोना संक्रमण से लोगों को बचाने और समय से चुनाव कराने के मद्देनजर डिजिटल और वर्चुअल चुनावी अभियान चलाने की बात कह कर कतिपय भौतिक प्रतिबंध लागू कर दिये हैं।


देखा जाए तो जनसंख्या के हिसाब से दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में जब चुनावी अभियान की बात उठती है तो प्रथमदृष्टया छोटी-बड़ी रैली को ही अहम माना जाता है। क्योंकि आयोजक गण इन छोटी-बड़ी रैलियों के सहारे बड़े बड़े जनसमूह के दिलो-दिमाग को मनोनुकूल तरीके से प्रभावित करने में सफल होते आये हैं। लेकिन, मौजूदा कोरोना वायरस व उसके नए नए वेरियंट के संक्रमण के दौर में एक जगह भीड़ जुटने से संक्रमण का खतरा है, इसलिए अब चुनाव आयोग के निर्देश पर राजनीतिक पार्टियां भी डिजिटल या वर्चुअल चुनाव रैली का रुख कर रही हैं। जिसमें फेसबुक लाइव, यूट्यूब और जूम मीटिंग्स जैसे सोशल मीडिया के इस्तेमाल के आगे की बात निहित होती है। 


आपको पता होना चाहिए कि वर्चुअल रैली में रियल टाइम इवेंट के तहत न केवल तरह तरह का आयोजन किया जा रहा है, बल्कि कुछ फेमस ब्रांड और कंपनियां शार्प प्लानिंग एवं टाइमलाइन ट्रैकिंग जैसी महंगी और गुणवत्तापूर्ण सेवाएं भी दे रही हैं, जिसकी मांग भारतीय राजनीतिक दलों के बीच काफी बढ़ी है। ऐसा इसलिए कि इस तरह के अभियान में वीडियो के साथ ही आप ग्राफिक, पोल व अन्य जानकारियों को भी हासिल करके अपनी वस्तुनिष्ठ स्थिति का अवलोकन कर सकते हैं। वहीं, कुछ ऐसी कंपनियां भी हैं जो आयोजित वर्चुअल रैली के बाद वर्चुअल रैली में हाज़िरी, सम्बन्धित गतिविधियों और मेल आदि से जुड़े आंकड़े और डेटा भी बड़ी मात्रा में मुहैया करवा रही हैं। इसलिए अब हर किसी राजनैतिक दल व उसके रणनीतिकार नेताओं व हार्ड कोर कार्यकर्ताओं के लिए यह जानना ज़रूरी है कि ये रैलियां कैसे होती हैं और इसमें तकनीक के क्या-क्या पहलू अंतर्निहित होते हैं, जो एक हद तक दर्शकों को प्रभावित करने की क्षमता व दक्षता रखते हैं।


यहां पर यह स्पष्ट कर दें कि बीजेपी इस मामले में शुरू से ही अव्वल रही है। गत अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डिजिटल व वर्चुअल चुनाव प्रचार के सुर्खियों में आने के कुछ महीने बाद ही देश में पहली बार वर्ष 2020 में 'बिहार जन संवाद' शीर्षक से केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने एक वर्चुअल रैली के माध्यम से भाजपा कार्यकर्ताओं को संबोधित किया था, जो काफी सुर्खियों में रही और इसके बहाने बीजेपी नेता अमित शाह भी चर्चा के केंद्र बिंदु में बने रहे। बताया जाता है कि तब उन्होंने बिहार के चुनावों में बड़े पैमाने पर डिजिटल व वर्चुअल रैलियां की, जिससे वह करीब 5 लाख कार्यकर्ताओं तक पहुंचे। आपको पता है कि इसी बिहार विधानसभा चुनाव 2020 के बाद भाजपा दूसरी बार पूरी मजबूती से बिहार में उभरी। इससे पहले उसे 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में काफी मजबूती मिली थी। यही वजह है कि इसके बाद से ही सभी चुनावी रैलियों के डिजिटल होने को लेकर चर्चा छिड़ी हुई है। 


आपको पता है कि बिहार में हिट हुई वर्चुअल रैली की चुनावी अवधारणा के बाद अमित शाह ने उड़ीसा (ओडिशा) में भी एक ऐसी ही वर्चुअल रैली की थी। इसके बाद भाजपा ने पश्चिम बंगाल के 2021 में हुए विधानसभा चुनाव में भी  राज्य में तकरीबन 1000 ऐसी ही रैलियां की थी। जिसका परिणाम सबके सामने है। पूर्वी भारत के इस अहम राज्य में भाजपा भले ही सत्ता से दूर रही, लेकिन उसकी सीटों में आशातीत बढ़ोत्तरी दर्ज की गई। बता दें कि भाजपा के स्वप्नद्रष्टा और इसकी मूल पुरानी पार्टी जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी का गृह राज्य पश्चिम बंगाल ही है, जहां भाजपा की मजबूती एक अलग ही मायने रखेगी। पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता को देश की सांस्कृतिक राजधानी भी कहा जाता है, इसलिए भारतीय संस्कृति की संरक्षा के लिए आस्थावान पार्टी भाजपा के लिए इस राज्य में सत्ता में होने का सपना देखने का महत्व जगजाहिर है।


जानकारों की राय में, बीजेपी की देखा देखी बिहार और पश्चिम बंगाल की क्षेत्रीय पार्टियों, यथा- जदयू, राजद और  तृणमूल कांग्रेस आदि ने भी वर्चुअल रैलियों के बारे में रणनीति बनाई और अनुकरण करके बीजेपी को कड़ी टक्कर देने में सफल रहीं। यही वजह है कि भाजपा सहित अन्य कुछ राजनीतिक पार्टियों का भी मानना है कि यदि कोविड महामारी संबंधी संक्रमण के हालात ऐसे ही रहे तो वास्तविक रैलियां हो पाना मुश्किल ही होगा। ऐसे में चुनावों में डिजिटल और वर्चुअल रैलियों के माध्यम से ही राजनीतिक दलों के पास मतदाताओं तक पहुंचने और उन्हें अपनी पार्टी की नीतियों व कार्यक्रमों से प्रभावित करने का विकल्प बचा है, जिस पर वो ईमानदारी पूर्वक अमल भी कर रहे हैं। वर्ष 2022 के विधानसभा चुनावों की घोषणा करते वक्त केंद्रीय चुनाव आयोग ने इस बाबत अपील करके गेंद उनके पाले में डाल भी दिया।


सबको पता है कि वर्ष 2014 के आम संसदीय चुनावों के सिलसिले में पीएम इन वेटिंग नरेंद्र मोदी ने भाजपा अभियान के तहत 437 बड़ी रैलियां की थीं और कुल 5827 जन समारोहों में शिरकत की थी। इससे उन्हें चमत्कारिक परिणाम मिला और वो देश के प्रधानमंत्री बने।इससे पहले वह लगभग 15 साल तक गुजरात के मुख्यमंत्री थे। वहीं, 2019 के आम संसदीय चुनावों में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपना करिश्मा दुहरा दिया, जबकि इन चुनावों में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने नरेंद्र मोदी से ज़्यादा रैलियां की थीं। इन रैलियों में हज़ारों लोग वास्तविक रूप से जुटते रहे और टीवी पर लाखों-करोड़ों लोगों तक नेताओं की पहुंच रही।

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# वर्चुअल रैलियों के बारे में कमर कस रहे हैं सभी राजनीतिक दल


बदलती दुनियादारी यानी नई विश्व व्यवस्था के जानकारों का कहना है कि किसी भी क्षेत्र में सफलता का मूल मंत्र अब ज्यादा से ज्यादा डिजिटल पकड़ का होना ही होगा । क्योंकि वैश्विक महामारी कोविड 19 के विभिन्न लहरों के इलाज को लेकर क्या भविष्य होगा, इस बात पर ही यह निर्भर होगा कि इन डिजिटल और वर्चुअल रैलियों का भविष्य क्या होगा। हालांकि, डिजिटलीकरण की तरफ राजनेताओं का आक्रामक रुख तो शुरू हो ही चुका है जो निकट भविष्य में तेज गति से ही बढ़ने वाला है। 


यही वजह है कि राजनीतिक पार्टियों की डिजिटल विंग्स भी लगातार नई तकनीकों और विचारों के हिसाब से अपनी अपनी दलगत रणनीतियां बना रही हैं। जिसके चलते सोशल मीडिया पर न केवल बेतहाशा खर्च किया जा रहा है बल्कि सियासी डेटा के विश्लेषण पर भी गहन व सूक्ष्म विचार विमर्श हो रहा है। यही नहीं, राजनीतिक  पार्टियां भी अब अपने ग्रामीण कार्यकर्ताओं तक को टेक सैवी बनाने की अथक कोशिश कर रही हैं, जिससे न केवल गैजेट्स बिक रहे हैं बल्कि इनके मरम्मत का कारोबार भी बढ़ रहा है।


# वर्चुअल रैलियों की ये हैं सीमाएं, पहुंच की और खर्च की


राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, राजनीतिक पार्टियां निकट भविष्य में अलग अलग थीम और अग्रगामी विचार पर आधारित वर्चुअल रैलियों पर फोकस कर सकती हैं।  इन रैलियों को बड़ी बड़ी स्क्रीन वाली टीवी पर प्रसारित किए जाने की योजनाएं भी बन सकती हैं। जहां तक इनकी सीमाओं की बात है तो यह स्पष्ट है कि जहां पहले ये रैलियां एकतरफा संवाद जैसी होती रही हैं और बहुत खर्चीली साबित होती आई हैं। वहीं वर्चुअल व डिजिटल रैलियों में दोतरफा संवाद की गुंजाइश तो है, लेकिन इनमें खर्च कम आएगा या पहले की अपेक्षा अधिक, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि सम्बन्धित राजनीतिक दल की तैयारी क्या है और किस ऑडिएंस तक वह पहुंचना चाहती है। इस बारे में सही जानकारी पार्टी के सक्षम लोग और पेशेवर कम्पनियों के बीच हुई निगोशिएशन से ही मिल सकती है, जो प्रायः कोई पक्ष नहीं देना चाहेगा, अपनी व्यवसायिक व पेशेवर गोपनीयता के नजरिये से। यह कैसे? इसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है। 


दरअसल, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की बिहार में वर्ष 2020 में हुई एक वर्चुअल रैली की कीमत कितनी रही, यह जनचर्चा का विषय बन गई? क्योंकि राज्य के 72 हज़ार बूथों के कार्यकर्ताओं तक अमित शाह का संवाद पहुंचाने के लिए हज़ारों की संख्या में एलईडी स्क्रीनों और स्मार्ट टीवी इंस्टॉल कराए गए। तब आरजेडी इससे अवाक रह गई। उसने लगे हाथ आरोप लगाया था कि इस रैली पर सरकार ने 144 करोड़ रुपए खर्च किए। उसने यह सवाल भी दागा था कि क्या छोटी पार्टियां इतना ज्यादा खर्च कर पाएंगी। वाकई यह सोचने वाली बात है।


# अब डिजिटल माध्यमों की तकनीकों का इस्तेमाल होगा चालाकी से


अपने देश में टीवी चैनल दूरदर्शन के साथ ही आल इंडिया रेडियो जैसे राष्ट्रीय समाचार चैनलों का इस्तेमाल सत्ताधारी पार्टी के हाथ में रहेगा और निजी चैनलों, रेडियो एफएम और सामुदायिक रेडियो के ज़रिये अन्य पार्टियां वर्चुअल कैंपेनिंग कर सकती हैं। चूंकि अभी वर्चुअल रैली का खर्च बहुत ज़्यादा होगा, इसलिए संचार माध्यमों के चतुराई भरे इस्तेमाल से किसी भी सियासी दल द्वारा चुनावी बाज़ी जीती जाएगी। वहीं, सबसे सफल जनसम्पर्क तकनीक स्मार्टफोन के ज़रिये भी सियासी पार्टियां करोड़ों लोगों तक पहुंचने की रणनीति बना सकती हैं। क्योंकि इसके सहारे वॉट्सएप सहित मैसेंजर, वीडियो कॉल और मीटिंग एप्स का प्रयोग किया जा सकता है। इसके अलावा, इस पर संचालित सोशल मीडिया के जरिये भी उनतक पहुंचा जा सकता है और अपने डिजिटल अभियानों से उन्हें जोड़ा व जोड़वाया जा सकता है।

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# अब नई तकनीकें ही तय करेंगी राजनीतिक दलों का चुनावी भविष्य


अंततः आपको यह मानना ही पड़ेगा कि अब नई तकनीकें ही राजनीतिक दलों का चुनावी भविष्य तय करेंगी। इनमें विभिन्न फीचर्स वाले स्मार्ट फोन, विभिन्न रूपों वाले सोशल मीडिया और प्रचलित माध्यमों से वर्चुअल रैलियों और डिजिटल चुनावी अभियानों की शुरूआत होने के बाद यह बाज़ार और बढ़ेगा और नई तकनीकें या आइडिया आएंगे। जानकारों के मुताबिक, कई तकनीकी कंपनियां राजनीतिक पार्टियों के लिए विशेष रूप से इनोवेटिव तकनीकें या मंच तैयार करेंगी। क्योंकि ये अभी ज़ूम क्लाउड जैसी तकनीकों से वीडियो मीटिंग या संवाद प्रचलित कर पा रहे हैं, लेकिन रैलियों के लिए और बेहतर मंच जुटाने की ज़रूरत बनी हुई है, ताकि रैलियों का खर्च कम हो सके और इनमें जीवंतता महसूस हो सके।


हालांकि भारत में डिजिटल पहुंच को समय के साथ बढ़ाना ही वर्चुअल चुनावी अभियानों का भविष्य तय करेगा। क्योंकि अभी तो यह प्रयोग बड़े तौर पर सिर्फ शहरी वोटरों तक की पहुंच में ही होगा। बहरहाल, राजनीतिक पार्टियों का डिजिटलीकरण आने वाले दिनों में एक बेहतरीन कहानी तो बनने जा रहा है, यह तय है।


- गौतम मोरारका

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