भगवान श्रीराम सागर के इस पार केवल इसी चिंतन में थे कि वानर कब अपना सेवा कार्य पूर्ण कर मुझ तक पहुँच पायेंगे। ऐसा नहीं कि उन्हें केवल इसी बात की ही तीव्र उत्कंठा थी, कि वानर श्रीसीता जी का समाचार कब लायेंगे। वैसे भी श्रीसीता जी का समाचार, श्रीराम जी से अधिक अच्छे से, भला ओर कौन जान सकता है। श्रीसीता जी, प्रभु श्रीराम जी की मात्र कहने भर के लिए अर्धांगिनी नहीं हैं। बल्कि श्रीराम जी वास्तविक्ता में भी, श्रीसीता जी को अपने शरीर का अर्ध भाग मानते हैं। प्रभु श्रीराम जी के आधे शरीर में क्या व्याधि अथवा क्या सुख उत्पन्न हो रहा है, क्या उनसे कुछ छुपा रह सकता है? हम साधारण जीवों का उदाहरण ही ले लीजिए। हमारे शरीर के अर्ध भाग में कुछ तबदीलियां हों, तो क्या हम उनसे अनजान रहेंगे? बस यही सिद्धांत श्रीराम जी एवं श्रीसीता जी के मध्य है। इसलिए प्रभु श्रीराम जी को वानरों का इन्तजार केवल श्रीसीता जी के लिए नहीं था, अपितु अपने वानर भक्तों के लिए भी था। उन्हें चिंता थी, कि वानर अपने जीवन की इस सबसे कठिन परीक्षा की घड़ी को, कैसे न कैसे उत्तीर्ण कर लें। फिर तो इसके पश्चात प्रत्येक घड़ी में आनंद ही आनंद है। कारण कि श्रीसीता जी साक्षात भक्ति स्वरूपा हैं। और बिना भक्ति को प्राप्त किए, किसी भी जीव के जीवन में आनंद की प्राप्ति नहीं हो सकती। हालाँकि देखा जाये, तो श्रीसीता जी तक तो, केवल श्रीहनुमान जी ही पहुँचने में सफल हो पाये। और माता सीता जी ने अपने समस्त आशीर्वादों से भी केवल श्रीहनुमान जी को ही सम्मानित किया। लेकिन इसका प्रभाव यह हुआ, कि बाकी वानर भी यह देख आश्वस्त हो गए, कि माता सीता जी से हम भी अब तो बस मिलने ही वाले हैं। हाँ, श्रीसीता जी से उनकी भेंट आज अथवा कल हो ही जायेगी। श्रीराम जी यही देख प्रसन्न हैं, कि देखो मेरे भविष्य के असंख्य हनुमान पधार रहे हैं-
‘राम कपिन्ह जब आवत देखा।
किएँ काजु मन हरष बिसेषा।।
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई।
परे सकल कपि चरनन्हि जाई।।’
बड़े सुंदर घटनाक्रम घट रहे हैं। सभी वानर तो श्रीराम जी के श्रीचरणों में आकर गिरे। लेकिन प्रभु श्रीराम जी ने उन्हें अपने चरणों में ही नहीं पड़े रहने दिया। अपितु उन्हें उठाकर अपने हृदय से लगा लिया। और सबकी कुशल पूछी। सभी वानरों को भी पता था, कि अगर वे श्रीसीता जी की सुधि लिए बिना, किष्किंधा में लौटते, तो सुग्रीव अपने वचनों के अनुसार सभी वानरों को निश्चित ही मृत्यु के घाट उतार देते। वानरों ने कहा कि हे प्रभु! अभी तक तो हमारी कुशल का कुछ अता पता नहीं था, लेकिन अब आपके चरण कमलों के दर्शन सुलभ हो गए, तो अब सब कुशल मंगल है। जाम्बवान जी ने हाथ जोड़कर कहा, कि हे नाथ! सत्य तो यह है, कि जिस पर आप की दया हो जाती है, उसे तो सदा कल्याण और निरंतर कुशल स्वतः ही है। देवता, मनुष्य और मुनि सभी उस पर प्रसन्न रहते हैं। बस आपकी कृपा दृष्टि जिस पर हो जाये, वह स्वतः ही विजयी, विनयी व गुणों का सागर बन जाता है। आपकी दया व कृपा का प्रभाव ही ऐसा होता है, कि उसका यश तीनों लोकों में व्याप्त हो जाता है-
‘सोई बिजई बिनई गुन सागर।
तासु सुजसु त्रैलोक उजागर।।
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू।
जन्म हमार सुफल भ आजू।।’
कमाल की घटना घट रही है। जाम्बवान जी अपने वाक्यों में ऐसा नहीं है, कि केवल श्रीहनुमान जी की ही महिमा गा रहे हैं। वे तो कह रहे हैं, कि हम समस्त वानरों का जीवन सफल हो गया। और जब सब प्रकार की महिमा गा ली गयी। तो मानो अंत में जाम्बवान जी श्रीहनुमान जी की महान करनी का बखान करने लगे-
‘नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी।
सहसहँ मुख जाइ सो बरनी।।
पवनतनय के चरित सुहाए।
जामवंत रघुपतिहि सुनाए।।’
कैसी दिव्य व विचित्र सभा लगी हुई है। जिन श्रीसीता जी को लेकर यह पूरा अभियान चलाया गया था, वह भक्ति व शक्ति की प्रतिमूर्ति, श्रीसीता जी पूरे परिदृश्य से ही गायब हैं। जी हाँ! जाम्बवान जी प्रभु श्रीराम जी के समक्ष अब वो सब गाथा कह रहे हैं, जिसे श्रीहनुमान जी लंका नगरी में मूर्त रूप देकर आये हैं। बहुत ही सुंदर संयोग बना हुआ है। पहले श्रीहनुमान जी लंका नगरी में रावण को प्रभु की कथा सुना कर आये हैं। और अब स्वयं श्रीराम जी अपने भक्त की गाथा श्रवण कर रहे हैं। कहने का तात्पर्य यह कि ऐसा नहीं, कि संसार में गाथा केवल प्रभु की ही गाई जाती है। हम अगर पूर्ण निष्ठा व समर्पण से प्रभु की सेवा में एकनिष्ठ हों, तो संसार क्या, स्वयं प्रभु भी हमारी महिमा का गान करेंगे। प्रभु श्रीराम जी को श्रीहनुमान जी की गाथा अतिअंत प्रिय लगी। वे श्रीहनुमान जी के दिव्य चरित्र को श्रवण कर इतने प्रसन्न हुए, कि उन्होंने पुनः श्रीहनुमान जी को थाम कर अपने हृदय से लगा लिया। और अब कहीं जाकर उन्होंने श्रीसीता जी की सुधि पूछी। श्रीराम जी श्रीहनुमान जी से क्या वार्ता करते हैं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
-सुखी भारती