By सुखी भारती | Dec 02, 2021
श्रीहनुमान जी द्वारा लंकिनी पर मुष्टिका का प्रहार कोई शत्रुता भाव से न होकर, कल्याण का ही साधन बना। कारण कि लंकिनी स्वयं कहती है, कि हे तात! आपने जो सुख मुझे अभी-अभी, आपके द्वारा कराये गए सतसंग से हुआ, वह तो किसी देवलोक अथवा स्वर्ग लोक में भी नहीं है। क्या अद्भुत लीला करते हैं श्रीहनुमान जी। उनका आशीर्वाद स्वरूप सिर पर धरा हाथ तो कल्याण करता ही है, साथ में अगर वे मुष्टिका प्रहार भी करें, तो भी जीव का कल्याण ही होता है। इधर रावण का दुर्भाग्य भी तो देखिए, उसके द्वार पर जो लंकिनी पहरा दे रही है, वह भी कोई साधारण स्त्री नहीं है। अपितु ब्रह्मा से वरदान प्राप्त करने वाली एक तपस्विनी के मानिंद है। कारण कि ब्रह्मा जी किसी को ऐसे ही वरदान थोड़ी न दे देते हैं। लंकिनी ने कोई तपस्या की होगी, तभी तो ब्रह्मा जी ने उसे यह वरदान दिया, कि जिस समय तूं किसी वानर के प्रहार से व्याकुल हो जाये, तो समझना कि राक्षसों का अंतकाल समीप आन पहुँचा है। रावण की नगरी पर ऐसी तपस्विनी होने पर भी रावण के प्रवेश द्वार पर संतों का कोई सम्मान नहीं है। उल्टे संतों को ही चोर की दृष्टि से देखा जा रहा है। जहाँ संतों का ऐसा अपमान हो, भला वह नगरी बस ही कैसे सकती है। उसका उजड़ना तो तय है। शाँति का वास वहाँ हो ही नहीं सकता। एक अन्य दृष्टि से भी देखें तो दुर्भाग्य केवल रावण का ही नहीं है, कि वह संतों का सम्मान नहीं कर पा रहा है। साथ में दुर्भाग्य लंकिनी का भी है, कि वह ऐसी महान तपस्विनी होने के पश्चात भी, रावण की सेविका बनी हुई है। निश्चित यह लंकिनी के लिए दण्ड़ ही हैं। यह बात और है, कि लंकिनी को जब श्रीहनुमान जी के पावन दर्शन सुलभ होते हैं, तो वह अपना दुर्भाग्य भूलकर, स्वयं को धन्य ही मानती है, कि यह मेरे पुण्य ही होंगे कि मुझे श्रीराम जी के महान दूत, श्रीहनुमान जी के पावन दर्शन प्राप्त हुए हैं-
‘तात मोर अति पुन्य बहूता।
देखेउँ नयन राम कर दूता।।’
इन सब पक्षों से परे एक पहलू और भी है, कि श्रीराम जी कितने दयालु हैं। सर्वप्रथम तो वे अपने परम शत्रु का भी इतना ध्यान रखते हैं, कि उसके घर पर भी भक्तों का होना निश्चित करते हैं। यह बात अलग है, कि रावण सर्प की भाँति व्यवहार करता है। एक ऐसा सर्प, जो दिन रात चंदन से लिपटा रहता है, लेकिन चंदन की चुटकी भर सुगंध भी वह नहीं ले पाता। नहीं तो चंदन की ठंडक से वह तनिक भी ठंडक नहीं ले पाता। और दिन रात विष के ताप से पीड़ित रहता है। यह समस्त कृपायें प्रभु की ही देन होती हैं। हमारे दैनिक जीवन में भी ऐसी अनेकों घटनायें घटती रहती हैं, जिनका हमको भान ही नहीं होता कि यह किसकी कृपा से हो रहा है। कुछ अच्छा हो गया, तो हमें लगता है, कि यह हमारे प्रयास व बल से हुआ है। या फिर कुछ कार्य ऐसे हो रहे होते हैं, जिनका हमें पता ही नहीं होता, कि यह कैसे हो गये। कारण कि उन कार्यों के लिए तो हमने प्रयास किए ही नहीं होते। लिए फिर भी हमें लाभ मिल रहे होते हैं। रावण को कहाँ ज्ञान था, कि पगले तेरी लंका ऐसे भक्तों के वास से ही चिरकाल से वास कर रही है। जबकि उसे तो लगता था, कि लंका की शोभा मेरे ही प्रभाव से है। मेरे ही भय व प्रताप से समस्त संसार में किसी की हिम्मत नहीं हो पाती, कोई शत्रु लंका की तरपफ़ झाँक नहीं पाता। केवल रावण ही नहीं, निश्चित ही हम सभी माया से प्रेरित जीव भी यही सोचते हैं, कि हमारे बल व परिश्रम के प्रभाव से ही, हम समस्त ऋद्धि-सिद्धियों के स्वामी बने हुए हैं। और यह भाव भी मानो छिपकली के भाव जैसा ही है। जो छत्त पर उल्टी लटकी होते हुए भी, यह सोचती है, कि मैंने छत्त को अपने हाथों से पकड़ा हुआ है। मैं इसे छोड़ दूंगी, तो यह छत्त गिर जाएगी। लंकिनी श्रीहनुमान जी को लंका प्रवेश हेतु शुभकामनाएं देती कहती हैं, कि हे श्रीहनुमान जी अब आप लंका में प्रवेश करें। लेकिन साथ में एक मंत्र को सदा अपने मन में बसाये रखें कि निरंतर श्रीराम जी को अपने मन में बसाये रखें-
‘प्रबिसि नगर कीजे सब काजा।
हृदयँ राखि कोसलपुर राजा।।’
हालाँकि श्रीहनुमान जी तो वैसे भी निरंतर श्रीराम जी को अपने हृदय से कभी विलग नहीं करते। लेकिन वास्तव में श्रीहनुमान जी के बहाने से, लंकिनी हम सांसारिक जीवों को यह बताना चाहती हैं, कि हम अपने समस्त कार्य श्रीराम जी को अपने हृदय में धारण करके करें, तो निश्चित ही सफलता हमारी कदम चूमने को तत्पर होगी। और इसके पश्चात श्रीहनुमान जी लंका नगरी में प्रवेश करते हैं। (क्रमशः)...जय श्रीराम...!
-सुखी भारती