By सुखी भारती | Mar 07, 2024
महापुरुषों ने संसार को एक भयानक वन भी कहा है। जिसमें प्राणी अक्सर भटक जाता है। या फिर खूंखार वनजीवों का शिकार हो जाता है। लेकिन विरले ही लोग होते हैं, जो इस वन को पार करने का साहस भी दिखाते हैं। वे जैसे-तैसे मार्ग खोजते आगे निकलते रहते हैं। लेकिन प्रश्न उठता है, कि क्या इस वन प्रदेश में केवल चलते रहना ही पर्याप्त होता है? क्या राह में चलते राही की कोई अन्य आवश्यकता नहीं होती? निश्चित ही होती है। पहली आवश्यकता यह, कि वन मार्ग में आप कभी भी अकेले चलने को प्राथमिकता नहीं देते। आप का यह प्रबल प्रयास होता है, कि आप का कोई न कोई संगी साथी अवश्य ही होना चाहिए। क्योंकि एक और एक, केवल दो नहीं, अपितु ग्यारह होते हैं। फिर दूसरी आपकी आवश्यकता होती है, कि आप राह के लिए के दैनिक जीवन में काम आने वाली, कुछ वस्तुयें रख लेते हैं। जैसे भोजन सामग्री, कपड़े इत्यादि। माना कि आप यह दो आवश्यकतायों को भी पूर्ण कर लेते हैं। लेकिन अगर आपको अपने लक्ष्य पर पहुँचने की धुन नहीं है। तो आपको सफलता प्राप्त नहीं हो सकती। आपको अपने गंतव्य स्थान के प्रति प्रेम व लगन होनी ही चाहिए।
ठीक इसी प्रकार से ईश्वरीय यात्रा का भी नियम है। लक्ष्य अगर श्रीराम जी हैं। तो राह के लिए खर्चा पानी व किसी का अवश्यंभावी संग किसे कहा गया है-
‘जे श्रद्धा संबल रहित नहिं संतन्ह कर साथ।
तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ।।’
अर्थात राह खर्च के लिए हमें श्रद्धा की अपार आवश्यकता है। अगर हृदय में श्रद्धा का अभाव है, तो यह मार्ग अतिअंत कठिन व दुर्गम है। श्रद्धा ही तो हमारे हृदय में बसने वाली श्रीराम जी की परम भक्ति की पोषक है। भक्ति का पौषण नहीं होगा, तो आगे बढ़ने का बल कैसे आयेगा? श्रद्धा हमारी प्रेरणा बनती है। हमें सदा तरंग से भरे रखती है।
अब बारी आती है, कि इस मार्ग पर हमें साथ किसका चाहिए? साथ के लिए गोस्वामी जी कहते हैं, कि हमें संतों के संग के बिना इस मार्ग के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए। क्योंकि भक्ति मार्ग पर अगर हम संतों को साथ लेकर चलते हैं, तो हम केवल एक और एक ग्यारह ही नहीं होते, अपितु अनंत हो जाने का सामर्थ पा लेते हैं। कारण कि संतों को उस राह पर संगी बनाने के पीछे एक विशेष कारण यह होता है, कि संत भक्ति मार्ग के उस कठिन पथ से पग-पग पर, भलिभाँति अवगत होते हैं। उन्हें भली प्रकार से पता होता है, कहाँ पर आगे बढ़ना है, कहाँ विश्राम लेना है, और कब और कहाँ पीछे भी हटना है। बाहरी वन में जैसे सींह, चीता व भालू जैसे भयानक जीवों से बचने की समस्त युक्तियाँ जानना आवश्यक होती हैं, ठीक वैसे ही आध्यात्म के मार्ग पर भी काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार रुपी भयानक जीवों से बचने की समस्त युक्तियाँ संतों को पता होती हैं। जिस कारण पग-पग पर संत हमारी रक्षा करते हैं।
गोस्वामी जी कहते हैं, कि माना कि संतों का साथ भी है। राह खर्च के लिए श्रद्धा भी है। लेकिन अगर लक्ष्य (श्रीराम जी) पर पहुँचने के प्रति धुन ही नहीं है, प्रेम ही नहीं है, तो सब व्यर्थ है। ऐसे जीवों को श्रीराम चरित मानस को समझना संभव नहीं है।
इसी समस्या के समाधान के लिए प्रयागराज जी में, पूरे माघ माह तक भरद्वाज मुनि के आश्रम में नित संतों का संगम होता था। अनेकों संत भाँति-भाँति प्रकार से प्रभु की कथा सुनते व बाँचते। प्रभु के अवतारों को लेकर भिन्न-भिन्न शास्त्रें की व्याखयों व चर्चायों के माध्यम से समाधान देते-
‘तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा।
जाहिं जे मज्जन तीरथराजा।।
मज्जहिं प्रात समेत उछाहा।
कहहिं परसपर हरि गुन गाहा।।’
ऐसे ही एक बार पूरे मकर भर स्नान करके सभी मुनि व संत अपने-अपने आश्रमों को लौट गये। लेनिक परम ज्ञानी याज्ञवल्क्य मुनि को चरण पकड़ कर भरद्वाज मुनि ने रोक लिया। उन्हें सुंदर आसन पर बिठाकर, उनके चरण प्रक्षालन करके, भरद्वाजजी बड़े ही श्रद्धा भाव से बोले-
‘नाथ एक संसउ बड़ मोरें।
करगत बेदतत्तव सबु तोरें।।
कहत सो मोहि लागत भय लाजा।
जौं न कहउँ बड़ होइ अकाजा।।’
अर्थात हे नाथ! मेरे मन में एक बड़ा संदेह है। वेदों का तत्व सब आपकी मुट्ठी में है। जिस कारण आप ही मेरे संदेह का नाश कर सकते हैं। लेकिन उस संदेह को कहते मुझे लाज आती है, कि कहीं आप यह न समझें, कि मैं आपकी परीक्षा ले रहा हूं। लाज इसलिए भी कि मेरी इतनी आयु हो चुकी है, और अभी तक मुझे ज्ञान नहीं हुआ है। अगर मैं संकोचवश अपना यह अवगुन नहीं कहता, तो निश्चित ही बड़ी हानि होगी। आप बताइये मुझे क्या करना चाहिए?
याज्ञवल्क्य मुनि जी, भरद्वाजजी को क्या उत्तर देते हैं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती