Gyan Ganga: विभीषण सबकुछ जानते थे फिर भी माता सीता से पहले मिलने का प्रयास क्यों नहीं किया?

By सुखी भारती | Jan 11, 2022

श्रीहनुमान जी जब श्रीविभीषण जी से वार्ता करते हुए यह कहते हैं, कि ‘देखी चहउँ जानकी माता।।’ तो श्रीहनुमान जी के इस कृत्य में, श्रीविभीषण जी के प्रति मात्र प्रेम व स्नेह के ही उदगार नहीं थे, अपितु स्वयं को, श्रीराम जी द्वारा उन्हें लंका रूपी विदेश नगरी में, विदेश मंत्री के रूप में प्रस्तुत करने की भी सुंदर प्रस्तुति थी। राजनीतिक स्तर पर अगर देखें, तो श्रीहनुमान जी की लंका यात्रा, दो देशों के आगामी भविष्य के आशावादी व निराशावादी संरचना की भी सूत्रपात थी। कारण कि अभी तक तो यह निर्धारित ही नहीं था, कि रावण से युद्ध होना है अथवा नहीं। कारण कि श्रीहनुमान जी रावण के यहाँ, यह ठान कर थोड़ी न गए थे, कि वहाँ युद्ध का बिगुल फूँकना ही फूँकना है। अगर श्रीहनुमान जी को, श्रीराम जी की और से हृदय से भी कोई ऐसा संकेत होता, तो निःसंदेह श्रीहनुमान जी रावण की लंका नगरी की ईंट से ईंट बजा देते। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं था। कारण कि उनकी लंका यात्र में उनके बहुआयामी उद्देश्य थे। वे श्रीराम जी के दूत होने के नाते, केवल उनका संदेश पहुँचाने तक ही सीमित नहीं थे, अपितु दो देशों के मध्य, टकराव के कम से कम अवसर पैदा हों और साथ में परस्पर प्रेम की भी आधारशिला बने, यह भी उनके प्रयासों की सूची में प्रथम स्थान पर था। अगर ऐसा नहीं होता, तो श्रीहनुमान जी ऐसे ही रावण को इतना बड़ा भरोसा देते हुए यह न कहते-

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‘राम चरन पंकज उर धरहू।

लंका अचल राजु तुम्ह करहू।।

रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका।

तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका।।’


अर्थात हे रावण! तुम श्रीराम जी के चरण कमलों को हृदय में धारण करो, लंका का अचल राज्य करो। ऋर्षि पुलस्त्य जी का यश निर्मल चंद्रमा के समान है। उस चंद्रमा में तुम कलंक न बनो। श्री हनुमान जी ने रावण को लंका का राज्य अचल होने का वचन दे दिया था। मानो रावण को आश्वस्त कर दिया था, कि हे रावण! अभी भले ही तूने काल को भी वश में कर रखा हो। लेकिन यह सर्व मान्य सत्य है, कि काल एक समय तेरे लंका के राज का भी काल बन जायेगा। सेर को सवा सेर, और सवा सेर को ढाई सेर, मिल ही जाता है। रावण आज अजय प्रतीत हो रहा है, तो कल कोई और उसके सामने अजेय बन कर आन खड़ा होगा। लेकिन अगर वह श्रीराम जी की शरणागत हो जायेगा, तो निश्चित है, कि उसकी लंका सदा सदा के लिए अजेय हो जायेगी। श्रीहनुमान जी ने मानो रावण को अपने पापों से बचने का सबसे सरल व उपयुक्त उपाय बता दिया था। हो सकता है कि रावण यहाँ श्रीहनुामन जी की सीख मान भी जाता। लेकिन उसके मन में यह भय तो सदैव बना ही रहता, कि श्रीराम भला मुझे क्योंकर क्षमा करेंगे। मैंने उनकी धर्म पत्नी का अपहरण किया है। उनके सम्मान को नष्ट करने का कुप्रयास किया है। उनके सर्वस्व पर चोट मारी है। क्या ऐसे में भी श्रीराम मुझे स्वीकार करेंगे। तो श्रीहनुमान जी रावण के मन का यह खटका भी निवृत कर देते हैं, और कहते हैं-


‘प्रनतपाल नघुनायक करुना सिंधु खरारि।

गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि।।’


अर्थात हे रावण! खर के शत्रु श्री रघुनाथ जी शरणागतों के रक्षक और दया के समुद्र हैं। शरण जाने पर प्रभु तुम्हारा अपराध भुलाकर तुम्हें अपनी शरण में अवश्य रख लेंगे। निःसंदेह श्रीहनुमान जी के समस्त प्रयास इसी दिशा की ओर हैं कि अयोध्या और लंका के मध्य एक सकारात्मक माहौल हो। और श्रीहनुमान जी यहाँ, निःसंदेश एक अच्छे विदेश मंत्री का आदर्श प्रस्तुत करने में अपना शत-प्रतिशत प्रदान कर रहे थे। और श्रीविभीषण जी को यह कहना कि हे भ्राता! अब मैं अपनी मईया को देखना चाहता हूँ। और अपने इन शब्दों में, बातों ही बातों में श्रीहनुमान जी ने विभीषण जी को भाई शब्द से संबोधन कर दिया। मानो कह रहे हों, कि हे भाई! तुम मुझे स्वयं से विलग मत समझो। कारण कि जाति, कुल या संप्रदाय में से हम भले ही मेल न खाते हों। लेकिन क्योंकि श्रीराम और माता जानकी, दोनों ही हमारे माता-पिता हैं, और हम उनके बच्चे हैं। इस आधार पर हम भाई-भाई ही हैं।

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निःसंदेह श्रीहनुमान जी के इन शब्दों ने श्रीविभीषण जी के हृदय के किसी कोने में दबी कुचली, अगर क्षुद्र-सी भी दूरी बची होगी, तो वह भी नष्ट कर दी। अब माँ एक है, पिता एक है। तो श्रीहनुमान जी तो किसी आधार पर भी बेगाने नहीं हुए, अपितु अपनों से भी अपने हुए। और अपनों से भला क्या छुपाना। छुपाया तो गैरों से जाता है। श्रीविभीषण जी, जिन्हें अब तक रावण ही भाई प्रतीत होता था, उन्हें पहली बार लगा, कि अपना वास्तिवक भाई तो मेरे सामने खड़ा है। श्रीविभीषण जी ने अब एक क्षण का भी विलंब न किया। और माता जानकी के संबंध में समस्त ज्ञात जानकारियां दे दीं। बताया कि कैसे-कैसे उन्हें अशोक वाटिका में बंदी बना कर रखा गया है, और उन्हें पीड़ित किया जाता है-


‘पुनि सब कथा बिभीषण कही।

जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही।।’


श्रीविभीषण जी ने माता जानकी जी के संबंध में जो-जो कहा, उसे सुन कर तो हमारे मन में प्रश्न उठता है, कि जब श्रीविभीषण जी को माता जानकी जी के साथ, घटित हुआ सारा अन्याय पता ही था। तो उन्होंने पहले कभी माता सीता को लेकर, रावण को आपत्तिपूर्वक क्यों नहीं समझाया? और न ही किसी अन्य रामायण में भी ऐसा वर्णन है, कि श्रीविभीषण जी, माता सीता के कभी दर्शन ही करने गए हों। तो इसका यही उत्तर है, कि बिना संत मिलन के जीव का हृदय जाग्रित ही नहीं हो पाता है। जिस कारण जीव आँखों के सामने अधर्म घटता देख कर भी, अधर्म नहीं देख पाता है। सोच कर देखिए, कि श्रीहनुमान जी से अधिक भाग्यशाली तो, श्रीविभीषण जी हैं। कारण कि श्रीहनुमान जी के पास तो श्रीराम जी के रूप में केवल पिता थे, माता सीता उनके पास नहीं थी। और श्रीविभीषण जी के पास ममता का स्रोत, माता सीता साक्षात थीं। कौन नहीं जानता कि पिता से बढ़कर ममता व स्नेह, माता में होती है। सोचिए, श्रीहनुमान जी को, भगवान श्रीराम जी को मिले हुए, कई महीने बीत गये थे। लेकिन श्रीराम जी ने उन्हें अभी तक पुत्र शब्द से संबोधित नहीं किया था। और हनुमंत लाल जैसे ही, माता सीता से भेंट करते हैं, तो पहली ही भेंट में माता सीता ने, श्रीहनुमान जी को पुत्र शब्द से पुकार लिया। कारण कि ईश्वर का माँ का स्वरूप, अधिक दुलार व ममता से भरपूर होता है। श्रीविभीषण जी चाहते, तो माता सीता जी का दुलार पाने का, यह स्वर्णिम अवसर बहुत अच्छे से भुना सकते थे। लेकिन आंतरिक जाग्रति न होने के कारण, श्रीविभीषण जी वैसे ही अछूते रहे, जैसे कपड़े में लिपटे पारस के बिल्कुल समीप ही पड़ा लोहा, बिना पारस के स्पर्श के, स्वर्ण नहीं बन पाता, और लोहे का लोहा ही रह जाता है। लेकिन कुछ भी था, दोनों भक्तों के मथ्य, आज एक बढ़िया सौदा हो रहा था। श्रीहनुमान जी के पास श्रीराम जी के रूप में पिता थे, लेकिन माँ के रूप में जानकी जी उनके पास नहीं थी। और श्रीविभीष्ण जी के पास माँ जानकी जी के रूप में माता थी, और श्रीराम जी के रूप में पिता नहीं थे। और आज श्रीहनुमान जी ने, श्रीविभीषण जी को राम रूपी पिता से मिलाने का वचन दे दिया। और श्रीविभीषण जी ने, श्रीहनुमान जी को माता जानकी जी से मिलाने का कार्य पूर्ण कर दिया।

आगे श्रीहनुमान जी माता जानकी जी से मिल पाते हैं, अथवा नहीं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।


-सुखी भारती

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