किसानों की खुशियों वाली वैसाखी खालसा का स्थापना दिवस भी है !

By प्रभासाक्षी न्यूज नेटवर्क | Apr 12, 2021

बसंत की इन्द्रधनुषी छटा से संपूर्ण धरती दुल्हन की तरह सजी हुई है। फसलें पककर खेतों में अपनी सुनहरी आभा बिखेर रही हैं। गेहूँ, चने, सरसों, जौं इत्यादि की पफसलें हवा के मंद−मंद झोकों से लहलहा रही हैं। यौवन पर आई अपनी फसलें को देखकर किसान खुशी से पुलकित हो रहे हैं। क्योंकि जिस फसल को अपने बच्चों की तरह पाला पोसा, उसे लहलहाता देखकर किसान का हृदय झूम उठता है। पसीने से सींची गई मिट्टी अन्नपूर्णा जो बन गई है। उनकी दिन−रात की मेहनत रंग लाई है। इसलिए पंजाब की पावन ध्रा पर ढोलक की धूम मची है। उसकी जिंदादिल ताल पर किसान भंगडे़ डालते हुए खुशियां मना रहे हैं और यही गा रहे है−

खेतां दी मुक गई राखी,

जट आई वैसाखी।


वैसाखी केवल खेती करने वालों के ही जीवन में नवप्राणों का संचार नहीं करती, अपितु यह वर्ष चक्र को भी एक नई दिशा प्रदान करती है। भारतीय संवत के अनुसार वैसाखी से ही नववर्ष का शुभारम्भ होता है। लेकिन इतिहास की वह घटना जो इस वैसाखी पर्व की आत्मा है, इसकी ध्ड़कन है, इसकी ध्मनियों का लहू है। इस घटना ने संपूर्ण विश्व को ही एक नई दिशा प्रदान की थी। और वह कारण है साहिब−ए−कमाल दशम पातशाह श्री गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा वैसाखी वाले दिन खालसा पंथ की संस्थापना!


सन् 1699, वैसाखी का वह पावन दिवस, जब श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने आनंदपुर साहिब में एक खास समागम का आयोजन किया था। श्री गुरुदेव की आज्ञा प्राप्त कर, उनके लाखों ही शिष्य देश के कोने−कोने से हर्षोल्लास के साथ उनके दरबार में पहुँचे थे। खचाखच भरे पंडाल के बीचोबीच एक बहुत बड़ा दीवान सजा था। जिसके आगे पर्दा लगा हुआ था। दर्शनों की प्यासी आँखें इसी पर्दे पर टिकी हुई थीं। वे उस पर्दे को चीरकर, अंदर सिंहासन पर विराजित गुरुदेव की एक झलक पाना चाहती थीं। उनके ओजस्वी, शांतमय रूप को निहारना चाहती थीं। संगत की पुकार शायद गुरुदेव के हृदय तक पहुँच चुकी थी। अकस्मात्! वह पर्दा हटता है और सामने गुरु महाराज जी प्रकट हुए परंतु यह क्या

 

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आज उनका मुखमंडल शांत नहीं था अपितु एक विलक्षण तेज़ से दमक रहा था। उनका जोश देखते ही बन रहा था। वे अपने दाएँ हाथ में एक चमचमाती, नंगी तलवार पकड़े हुए थे। उनके इस विलक्षण व्यवहार ने उनके अनुयायियों के माथों पर प्रश्नवाचक लकीरें खींच दीं। और तभी श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिंह के समान गर्जना करते हुए जयकारा लगाया−बो{{{{लेसो{{निहाल!' उसी उत्साह के साथ प्रतिध्वनि हुई 'सत् श्री अकाल।' पिफर गुरु साहिब ने कड़कते स्वर में ऐलान किया−'आज मेरी तलवार एक शीश की प्यासी है। उठो! गुरु के प्यारे शिष्यों उठो और खुशी−खुशी अपने सिर भेंट चढाओ, अपने प्राणों के मोह का त्याग करो।' 


श्री गुरुदेव के मुखारविंद से यह वचन सुनकर संपूर्ण माहौल में सहम पैफल गया, सबके चेहरों की रंगत उड़ गई, चारों और नितान्त खामोशी पैफल गई! मानों साँप सूंघ गया हो। हवा भी ठिठक कर वहीं थम गई, मानों वह भी सहम गई हो। तभी गुरु साहिब ने पुनरू पिफर हुँकार भरी−'साहस करो मेरे बहादुर सिक्खों! आगे बढ़कर अपने सिर दो।'

निरूसन्देह गुरु जी की माँग अद्भुत थी। गुरु की खड़ग चमककर जैसे ललकार रही थी, 'हे सिक्खों! आज तक गुरु के शिष्य होने के बहुत दम भरते आए हो। किन्तु मात्रा जुबान हिलाने से ही बात नहीं बनती। आज तुम सबको अपने शिष्यत्व का प्रमाण देना पडे़गा। 


तलवार की इस ललकार को एक सच्चे सिक्ख ने स्वीकार किया। सीना ठोकते हुए बोला−'हे सच्चे पातशाह! मैं दूँगा अपना सिर! हे गुरुदेव! मुझे अपफसोस है कि मेरे ध्ड़ पर सिर्पफ एक ही शीश है। अगर हज़ार सिर होते तो सब के सब मैं आपके चरणों पर न्योछावर कर देता।' यह लाहौर का क्षत्रिाय 'दया राम' नामक सिक्ख था। गुरुदेव उसे बाजू से पकड़कर पर्दे के पीछे ले गए। और कुछ समय बाद खून की एक धरा पर्दे के पीछे से बह निकली। 

 

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तत्क्षण गुरु साहिब पिफर पर्दे से बाहर आए एवं उनके हाथ में रक्त से सनी तलवार थी। तलवार से टपकते रक्त को देखकर लाखों दिल सिहर गए। यह क्या? क्या गुरु इतने निष्ठुर भी हो सकते हैं कि अपने ही शिष्य की गर्दन पर तलवार चला दें। परंतु आज तो परीक्षा की घड़ी थी। करुणा स्वरुप गुरु ने रौद्ररूप धरण किया हुआ था। गुरुदेव ने पुनरू पिफर महाघोष किया−'मेरा सच्चा शिष्य वही है जो मुझे बेझिझक शीश प्रदान कर दे। है कोई और माई का लाल?'


हम जानते हैं कि शीश झुकाना जितना आसान है शीश कटवाना उतना ही कठिन, क्योंकि आज बलिदान के लिए झुकाना था। आज जीवन मृत्यु का प्रश्न था। आज गुरुदेव जीवन को संवारने की बात नहीं कर रहे थे अपितु जीवन ही मांग रहे थे। अब जिन लोगों ने गुरुदेव को प्राणपति बनाया ही नहीं था ज़ाहिर है कि उन्हें यह मांग नाजायज़ लगी। परंतु इस भीड़ में एक ऐसा शिष्य भी था, जो पहले से ही सब कुछ गुरु चरणों में अर्पित कर चुका था। यह था रोहतक का जाट 'र्ध्मदास'। उसने गुरुदेव के समक्ष अपना सिर देने की इच्छा जाहिर की। गुरु साहिब उसे भीतर ले गए और पुनरू वही क्रिया दोहराने के बाद बाहर आ गए। सिलसिला आगे बढ़ा तीसरी बार द्वारका का रंगरेज़ 'मोहकम चंद' आगे बढ़ा। चौथी बार जगन्नाथ पुरी का कहार 'हिम्मत राय' दौड़कर आगे आया। इस प्रकार गुरुदेव ने पांचवी बार पिफर रक्त रंजित तलवार ऊँची करके महानाद किया। 'बस! क्या कोई नहीं बचा? लाखों की संगत में क्या सिर्पफ चार ही गुरु को शीश देने वाले मरज़ीवडे़ शिष्य थे। आओ मुझे एक और सिर चाहिए।'

अब तक पंडाल में हाहाकर मच चुका था। कापफी लोग पंडाल छोड़कर भाग चुके थे। जो बैठे थे उनमें से भी बहुत सारे लोगों के अंदर संशयों के तूपफान तबाही मचा रहे थे−'ये गुरुदेव को क्या हो गया है? क्या यूं अपने बच्चों जैसे सेवकों को सिरों को काटा जाता है? लगता है गुरुदेव को अपने शिष्यों से प्रेम ही नहीं है।' लेकिन इन्हीं संशयों के तूपफानों को चीरता हुआ गुरुदेव का एक और सिदकी सिक्ख आगे आया। यह था 'साहिबचंद', जिसकी आँखों में अपने गुरु के लिए अथाह प्रेम का सागर हिलोरे मार रहा था और मस्तक समर्पण भाव में झुका हुआ था। वह जाकर गुरुदेव के चरणों में द.डवत लोट गया−'हे मेरे सच्चे पातशाह!सिर देने वाले भी आप, सिर लेने वाले भी आप। दास आपको चरणों में अर्पित है।' 


एक और सिक्ख गुरु की पुकार पर कुर्बान हो गया। श्री गुरु गोबिंद सिंह जी पुनरू तंबू से बाहर आए। उनके मुख मंडल पर अद्वितीय सौम्यता व दया झलक रही थी। आँखों में नमी व असीम करुणा थी। पिफर उन्होंने निर्णायक स्वर में कहा−'यह पर्दा हटा दो। संसार को पता लग जाना चाहिए जो गुरु के लिए मर मिटने से नहीं चूकते, वे सदा−सदा के लिए जीवित रहते हैं, अमरत्व के अध्किारी होते हैं। पर्दा हटा तो गुरुदेव पर शीश लुटाने वाले पाँचों शिष्य सिर झुकाए, हाथ जोड़े खड़े हुए थे। उन्हें देखकर गुरुदेव के मुख से आशीष वचन प्रस्पुफटित हुए−'यह मेरे पंच प्यारे हैं। इन्हें वहीं लिबास पहनाओ, जो मैं धरण करता हूँ। इन्हें वही शस्त्रा थमाओ, जो मैंने थामा हुआ है। आज से इनके वचनों को मेरे ही वचन मानना, क्योंकि ये जो भी कहेंगे उसका आधर मेरी ही प्रेरणा होगी। मैं ही इनके भीतर निवास करके सब कुछ कहूँगा और करुँगा−

खालसा मेरो रूप है खास,

खालसा महि हऊ करो निवास।


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