USA vs Iran: 1953 का तख्तापलट, 1979 की क्रांति, ईरान-अमेरिका क्यों और कैसे बने एक-दूसरे के दुश्मन? समझें मीडिल ईस्ट की पूरी जियोपॉलिटिक्स

By अभिनय आकाश | Oct 03, 2024

मीडिल ईस्ट में इतने सारे देश हैं, लेकिन ईरान का नाम आप आए दिन सुनते होंगे। ईरान का हिजबुल्ला, हमास, हूती को समर्थन, उसके लिए मिसाइल हमला। इजरायल को धमकाना। लेकिन ऐसा क्या फायदा है ईरान का जो पूरी दुनिया के खिलाफ जाकर इन ग्रप्स के साथ खड़ा है और इजरायल और अमेरिका को आखें दिखा रहा है। वहीं अमेरिका और ईरान जो कभी एक दूसरे के अच्छे दोस्त और ट्रेडिंग पार्टनर थे, आज फूंटी आंख नहीं भाते हैं। अमेरिका ने आर्थिक प्रतिबंध लगाकर उसकी अर्थव्यवस्था को जमीन पर ला दिया। फिर भी ईरान सबकुछ दांव पर लगाकर अमेरिका के खिलाफ खड़ा है। ये जो मीडिल ईस्ट में पूरा पावर गेम चल रहा है, इसके पीछे क्या है? क्या हुआ है, क्यों हुआ है और क्या वर्ल्ड वॉर 3 बस होने वाला है? वैसे ये आखिरी वाला सवाल बस एक मजाक था। इतनी बुरी हालत नहीं हुई है। बस कुछ मीडिया हाउस आपको डराने का काम करते हैं। 

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ईरान सीधी वॉर के मूड में है

इजरायल के आसमान में गूंजने वाले मिसाइलों के शोर ने पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया। ईरान ने इस हमले को अपना पहला बदला बताया है और इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने कहा कि ईरान ने ये मिसाइल दागकर बहुत बड़ी गलती की है। ईरान को इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। पूरी दुनिया में इस हमले का असर देखने को मिल रहा है। ब्रिटेन-अमेरिका इजरायल के साथ खुल कर खड़े हुए हैं। अमेरिका ने कहा है कि इस हमले में इजरायल को ज्यादा नुकसान नहीं हुआ है। ब्रिटेन ने भी दावा किया कि जिस वक्त ये हमला हुआ उस वक्त ब्रिटेन के सेना की भी एक टुकड़ी इजरायल में ही मौजूद थी। लगातार इजरायल की मदद के लिए बिल्कुल तैयार बैठी थी। इटली की प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी ने जी-7 देशों की एक मीटिंग बुलाई है। ईरान के विदेश मंत्री ने इजरायल को धमकी दी है कि अब अगर उनके देश पर हमला हुआ तो वो और भी ज्यादा खतरनाक तरीके से इसका जवाब देंगे। ईरान ने खुलकर कहा है कि वो बेंजामिन नेतन्याहू को नहीं छोंड़ेगे और एक लिस्ट भी जारी की है, जिसमें रक्षा मंत्री और सेना प्रमुख का नाम शामिल है। 

मीडिल ईस्ट की जियोपॉलिटिक्स

पूरी अदालत को समझने से पहले थोड़ा बेसिक क्लियर कर लेते हैं। मीडिल ईस्ट में दो बड़ी शक्तियां सऊदी अरब और ईरान है। दोनों एक दूसरे के दुश्मन हैं, लेकिन कभी आमने सामने वाली वॉर में नहीं गए। लेकिन जितने भी विवाद मीडिल ईस्ट में होते हैं उसे इस्तेमाल करके ये दोनों एक दूसरे से प्रॉक्सी वॉर में हैं। ईरान शिया मुस्लिम बहुल देश है और सऊदी अरब सुन्नी मुस्लिमम वाला देश है। ये दोनों देशों के बीच के विवाद को और भी गहरा करता है। दरअसल, दोनों पंथों का बंटवारा पैगंबर मोहम्मद के निधन के बाद हुआ। मोहम्मद साहब के बाद उनका उत्तराधिकारी कौन होगा? मोहम्मद साहब के निधन के बाद मोहम्मद साहब की गद्दी पर उनका कौन वारिस बैठेगा इसी को लेकर दोनों ही समुदाय अलग-थलग पड़ गए। एक पक्ष का मानना था कि मोहम्मद साहब ने किसी को अपना वारिस नहीं बनाया है। इसलिए योग्य शख्स को चुना जाए। दूसरे पक्ष का मानना था कि पैगंबर मोहम्मद ने गदीर के मैदान में जो घोषणा की थी वो वारिस को लेकर ही थी। एक धड़े ने पैगंबर मोहम्मद के ससुर अबु बक्र को अपना नेता माना। जबकि दूसरे धड़े ने पैगंबर मोहम्मद के दामाद हजरत अली को अपना नेता माना। पैगंबर मोहम्मद के कथनों और कार्यों यानी सुन्ना में विश्वास रखने वाले सुन्नी कहलाए। हजरत अली को पैगंबर मोहम्मद का वारिस मानने वाले शियाने अली यानी शिया कहलाए। सऊदी अरब, ईरान, यूएई, भारत समेत 40 देश सुन्नी बहुल हैं जबकि ईरान, इराक, यमन, अजरबैजान शिया बहुल हैं। पूरे दुनिया की 87 से 90 प्रतिशत मुस्लिम आबादी सुन्नी जबकि बाकी शिया हैं। ईरान मीडिल ईस्ट में है लेकिन अरब लीग का सदस्य नहीं है। अरब लीग में अरबी भाषा बोली जाती है। 17 मीडिल ईस्ट देशों में से 13 अरब देश हैं।

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मीडिल ईस्ट की जड़ में शिया सुन्नी विवाद

शिया सुन्नी के बीच हमेशा से विवाद रहा है। इसकी वजह से पूरे मीडिल ईस्ट में चाहे ईरान सऊदी प्रॉक्सी विवाद, ईरान सिविल वॉर, सीरिया वॉर, बहराइन विद्रोह यानी मीडिल ईस्ट के हर विवाद की जड़ में ये नजर आएगा। यानी अरब सुन्नी बहुल क्षेत्र के बीच में ईरान स्थित है। ईरान अपनी जियोपॉलिटक्ल लोकेशन और रिसोर्स की वजह से सुपरपावर्स की नजर हमेशा से रहा है। ईरान का एक बॉर्डर साउथ एशिया से तो दूसरा बॉर्डर अरब से लगा है। नीचे इसके अरेबियन सी है, जहां से दुनिया भर का व्यापार होता है। तेल और नैचुरल गैस के भंडार यहां पर हैं। लेकिन कुछ चीजें ऐसी हुई जिसकी वजह से आज ईरान की 20 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे है और आने वाले सालों में 40 प्रतिशत गरीबी रेखा के नीचे जाने वाली है। मीडिल ईस्ट में सऊदी अरब अमेरिका का एक सहयोगी है। लेकिन अमेरिका और ईरान के बीच 36 का आंकड़ा है। ईरान और अमेरिका के बीच के रिश्ते पिछले चार दशक से खराब हैं। 

ईरान का तेल उद्दोग और ब्रिटेन-रूस की दोस्ती के बीच अमेरिका की एंट्री

वर्ल्ड वॉर 2 से पहले ईरान के तेल उद्योग पर ब्रिटेन का खासा प्रभाव था। ब्रिटेन इस प्रभाव और कंट्रोल को एंग्लो-ईरानी ऑइल कंपनी के माध्यम से बनाए रखता था। वक्त बीतता है और फिर साल 1953 आता है, ईरान में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई मुहम्मद मोसेद्दक सरकार का राज था। जिसका तख्तापलट हो गया। इस तख्तापलट के पीछे लंबे समय से अमेरिका और ब्रिटेन का हाथ होने की संभावना जताई जा रही थी। अब अमेरिकी स्टेट डिपार्टमेंट द्वारा सार्वजनिक किए गए कुछ अहम कागजातों से इस पूरी घटना के पीछे अमेरिका की भूमिका को स्पष्ट कर दिया है और साबित हो गया है कि इस पूरी घटना के पीछे CIA का हाथ था। 1953 में ईरान की लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई मुहम्मद मोसेद्दक सरकार के तख्तापलट के पीछे लंबे समय से अमेरिका और ब्रिटेन का हाथ होने की संभावना अमेरिकी स्टेट डिपार्टमेंट द्वारा सार्वजनिक किए गए कुछ अहम कागजातों से स्पष्ट हो गया है। 1,000 पन्नों में 1951 से 1954 के बीच अमेरिका के ईरान के साथ संबंधों का ब्योरा दिया गया है। इन्हीं कागजातों में बताया गया है कि किस तरह तत्कालीन अमेरिकी प्रशासन ने ईरान में गुप्त ऑपरेशन की मदद से मोसेद्दक सरकार का तख्तापलट कराया। 1953 से लेकर 1977 तक ईरान में शाह रेजा पहलवी ने अमेरिका की मदद से हुकूमत चलाई। अपने काल में ईरान में अमेरिकी सभ्यता को फलने-फूलने तो दिया, लेकिन साथ ही साथ आम लोगों पर कई तरह के अत्याचार भी किए। ऐसे में कई धार्मिक गुरू शाह के खिलाफ हो लिए। 1963 में शाह पहलवी की पश्चिमीकरण की नीतियों खिलाफ रूहोल्लाह खोमैनी ने मोर्चा खोल दिया। खोमैनी को शाह के खिलाफ प्रदर्शन करने के लिए पहले गिरफ्तार किया गया और फिर 1964 में देश निकाला दे दिया गया। ईरान पर इस्लामिक रिपब्लिक कानून लागू किया गया। अमेरिका ने ऐसा कुछ नहीं किया। और फिर वो घटना घटी जिसके बाद अमेरिका और ईरान के संबंध ऐसे टूटे के आज तक नहीं जुड़ पाए।

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अमेरिकी एम्बेसी पर हमला और फिर ऐसे बिगड़े संबंध की कभी जुड़ न पाए

1979 में ईरानी रेवोल्यूशन के दौर में नवंबर 4, 1979 को तेहरान की अमेरिकी एम्बेसी पर हमला हुआ। इसमें 63 लोगों को कब्जे में लिया गया। उसके बाद तीन और लोगों को बंदी बनाकर लाया गया।कुल 66 लोगों को बंदी बनाया गया। छात्रों ने बंधकों के बदले अमेरिका से शाह को लौटाने की मांग की जो उस वक्त ईरान से भागकर अमेरिका की पनाह में थे। अमेरिका ने जवाब में देश के बैंकों में मौजूद ईरान की संपत्ति जब्त कर ली। अमेरिकी राष्ट्रपति ने बाकायदा आर्मी ऑपरेशन Eagle Claw की मदद से बंधकों को छुड़वाने की कोशिश भी की थी, लेकिन ये सफल न हो पाया। इस ऑपरेशन में 8 अमेरिकी सर्विसमैन और 1 ईरानी नागरिक की मौत भी हो गई थी। सितंबर में इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन ने ईरान पर हमला बोल दिया। ईरान को साथ की जरूरत थी। लेकिन लगभग सभी देशों की शर्त थी कि अमेरिकी नागरिकों को कैद में रख कर ईरान मदद की अपेक्षा नहीं कर सकता। जिसके बाद अल्जीरिया के राजनयिकों की मध्यस्थता से कुछ दिन बाद उनमें से कई लोगों को छोड़ा गया, लेकिन बचे 52 लोगों को तेहरान की अमेरिकी एम्बेसी में ही 444 दिनों तक रहना पड़ा यानी पूरे डेढ़ साल तक। इन 52 बंधकों को 20 जनवरी, 1981 में छुड़वाया गया था। तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने इसे ब्लैकमेल और आतंकवाद की घटना बताई थी। ये घटना इतनी ताकतवर थी कि अमेरिका में भी जिमी कार्टर को अपनी सत्ता गंवानी पड़ गई थी। इसे ईरान में अमेरिकी के दखल का विरोध बताया जा रहा था। इस घटना के बाद से अमेरिका और ईरान के रिश्ते कभी सामान्य नहीं हो पाए।

ओबामा ने साइन की ऐतिहासिक न्यूक्लियर डील, ट्रंप ने किया बैक-ऑफ

2015 में जब ओबामा प्रेसिडेंट थे तो अमेरिका ने ईरान के साथ एक न्यूक्लियर डील साइन की थी। वर्ष 2015 में ईरान और संयुक्त राज्य अमेरिका सहित कई विश्व शक्तियों फ्रांस, ब्रिटेन,रूस, चीन और जर्मनी के बीच हुआ यह एक ऐतिहासिक समझौता था. सामूहिक रूप से इस समझौते को P5+1 के नाम से भी जाना जाता है। लेकिन 8 मई 2018 को डोनाल़्ड ट्रंप ने इस न्यूक्लियर डील से अपने कदम वापस खींच लिए। उन्होंने कहा कि अमेरिका अब न्यूक्लियर डील में भागीदार नहीं होगा। उन्होंने कहा कि ईरान के मिसाइल कार्यक्रम और क्षेत्रीय प्रभाव को नियंत्रित करने में विफल रहा। ट्रंप ने कहा था कि मीडिल ईस्ट में फैली अशांति के पीछे ईरान जिम्मेदार है। इसके बाद दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ता ही रहा। ईरान ने अपने परमाणु कार्यक्रमों पर लगे प्रतिबंधों को नजरअंदाज करना शुरू कर दिया। सऊदी अरब के तेल टैंकर पर ड्रोन अटैक हुआ तो अमेरिका ने आरोप लगाया कि ये ईरान ने करवाया है। 2019 में अमेरिका के एक ड्रोन को ईरान ने मार गिराया। ईरान ने कहा कि वो उनके हवाई क्षेत्र में घूम रहा था। 

कासिम सुलेमानी की मौत और बिगड़े रिश्ते

8 अप्रैल 2019 को ट्रंप ने एक और अनोखे फैसले में ईरान की इस्लामिक रिव्यल्यूशनरी गार्ड कॉप्स को फॉरेन टेररिस्ट ऑर्गनाइजेशन का दर्जा दे दिया। ये पहली बार था जब किसी दूसरी देश की सेना को आतंकवादी संगठन कहा गया। 28 दिसंबर 2019 को इराक के अंदर मौजूद अमेरिकी मिल्ट्री बेस पर रॉकेट अटैक हुआ। इसमें एक अमेरिकी कॉट्रैक्टर की मौत हो गई। इस हमले के लिए अमेरिका ने ईरान की मीलिट्री को जिम्मेदार ठहराया। फिर आया जनवरी 2020 का वक्त जब फ्लोरिडा में अपने घर पर छुट्टियां मना रहे अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने आधी रात एक ट्वीट किया जिसमें एक शब्द भी नहीं लिखा बस अमेरिका के झंडे को पोस्ट भर कर दिया। दरअसल, ट्रंप के इस ट्वीट की क्रोनोलाजी इराक के बगदाद में अमेरिकी सेना के उस एयर स्ट्राइक से जुड़ी थी। जिसमें उसने ईरान के सबसे ताकतवर जनरल कासिम सुलेमानी को मार डाला। कासिम ही थे जो पश्चिम एशिया में ईरान के लिए किसी भी मिशन को अंजाम देते थे। कुद्स फोर्स ईरान के रेवॉल्यूशनरी गार्ड्स की विदेशी यूनिट का हिस्सा है। इसे ईरान की सबसे ताकतवर और धनी फौज माना जाता है। उनकी मौत से यकीनन एक मुल्क के तौर पर ईरान बुरी तरह जख्मी हुआ। ट्रंप ने उस वक्त कहा कि उन्हें खबर मिली थी कि जनरल सुलेमानी अमेरिका के खिलाफ किसी अटैक की प्लानिंग कर रहे थे। 


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