काबुल से अमेरिका की वापसी, वियतनाम युद्ध से तुलना क्यों? जब 1975 में भागने पर मजबूर हुए थे US सैनिक

By अभिनय आकाश | Aug 17, 2021

15 अगस्त को जब भारत अपना 75वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा था। उसका एक पड़ोसी फिर से गुलाम हो रहा था। पुरातनपंथी कट्टरता का गुलाम, तालिबान का गुलाम। अफगानिस्तान अब पूरी तरह से तालिबान के कब्जे में है। अफगान लोगों के लिए ये अभूतपूर्व संकट की घड़ी है। सत्ता की बागडोर हाथ से निकलते ही अशरफ गनी देश छोड़ कर निकल गए। अमेरिका और भारत समेत कई देश अपने दूतावासों से राजनयिकों को निकालने में जुटे हुए हैं। इसके साथ ही काबुल हवाई अड्डे से बीते दिनों डरा देनी वाली तस्वीरें सामने आई। दावा किया गया कि उड़ते हुए हवाई जहाज से लोग नीचे गिर रहे हैं। ये लोग विमान के टायरों को पकड़कर बैठ गए थे लेकिन विमान के उड़ने पर नीचे गिर गए। काबुल एयरपोर्ट की तमाम तस्वीरें और वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं। देश छोड़ने की चाह में लोग अपनी जान को भी खतरे में डालने से नहीं चूक रहे हैं। काबुल एयरपोर्ट की सुरक्षा का जिम्मा अमेरिकी सैनिकों ने संभाला हुआ है और मीडिया रिपोर्ट की माने तो भीड़ को देखते हुए अमेरिकी सैनिकों को फायरिंग भी करनी पड़ी। वहीं दो दशकों तक अफगानिस्तान में सैन्य अभियान छेड़ने वाले अमेरिका ने वहां के हालात से पल्ला झाड़ लिया है। अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की हड़बड़ी में हुई वापसी के बाद पैदा हुए हालात ने लोगों को 1975 के वियतनाम युद्ध की याद दिला दी है। पूर्वी एशिया के इस देश में अमेरिका कम्युनिज्म के खात्मे के दाखिल तो हुआ लेकिन परिस्थिति ऐसी बनी कि उसे उल्टे पांव भागना पड़ा। 

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30 अप्रैल, 1975 को क्या हुआ था?

ये कहानी वियतनाम युद्ध की है। आधुनिक इतिहास में इससे भीषण और लंबी लड़ाई की कोई मिसाल नहीं है। वियतनाम लाओस और कंबोडिया के इलाके को कहा जाता है, इंडो चाइना। इस इलाके पर लंबे समय तक फ्रांस का कब्जा रहा। दूसरे विश्व युद्ध के बाद यहां शासन कायम रखना मुश्किल होने लगा। विश्व युद्ध के बाद विचारधाराओं की जंग बढ़ने लगी थी। इंडो चाइना क्षेत्र में सोवियत संघ और चीन का दखल बढ़ने लगा था। यहां के लोग विदेशी शासनों से मुक्ति चाहते थे। कम्युनिस्टों ने उनके विरोधों को स्वर दे दिया। पहले छोटी-मोटी लड़ाई फिर भीषण युद्ध। फिर आया साल 1954। वियत के सैनिकों ने फ्रेंच आर्मी को पस्त कर दिया। फ्रांस ने इंडो चाइना से निकलने का ऐलान कर दिया। लेकिन जाते-जाते वो एक खेल कर गए। 1954 के अप्रैल से जुलाई तक के महीने में स्विजरलैंड की राजधानी जिनेवा में कई लंबी बैठकें चली। तय हुआ कि वियतनाम को दो हिस्सों में बांट दिया जाए। 1954 में जिनेवा समझौते के तहत उत्तर और दक्षिणी वियतनाम की स्थापना हुई। वहां चुनाव होने थे जो कभी हो नहीं सके। उत्तरी वियतनाम की अगुवाई कम्युनिस्ट धड़े के हो चीन मिल कर रहे थे तो दक्षिणी हिस्से की कमान कैथोलिक राष्ट्रवादी नगो दीन्ह दीम के हाथों में थी। 1955 में उत्तरी वियतनाम ने जब दक्षिणी भाग पर सैन्य जमावड़ा शुरू किया तो अमेरिका ने कम्युनिज्म के फैलने से रोकने के लिहाजे से सैन्य कार्रवाई छेड़ दी। 1967 तक वियतनाम में अमेरिकी फौजियों की संख्या 5 लाख को पार कर गई। लेकिन 1969 आते-आते घरेलू दबाव की वजह से अमेरिकी ने वियतनाम से बाहर निकलने का मन बना लिया। जनवरी 1973 में पेरिस में अमेरिका, उत्तरी वियतनाम और दक्षिण वियतनाम व वियतकॉन्ग के बीच एक शांति समझौता हुआ। इसी समझौते की आड़ में अमेरिकी वियतनाम से अपनी सेना हटाना चाहता था। इसके बाद वियतनाम में भी वही हुआ जैसा कि इन दिनों अफगानिस्तान में देखने को मिला। अमेरिकी फौज के पूरी तरह से निकलने से पहले ही 29 मार्च 1973 को उत्तरी वियतनाम ने दक्षिणी वियतनाम पर हमला बोल दिया। दो साल बाद 1975 में 30 अप्रैल को कम्युनिस्ट वियतनाम की फौज साइगॉन में घुस गई और वहां बचे अमेरिकियों को आनन-फानन में भागना पड़ा। काबुल की तरह यहां कब्जा अमेरिका की अपेक्षा से कहीं अधिक तेजी से हुआ। अमेरिका ने साइगॉन स्थित दूतावास को खाली छोड़ दिया और हेलिकॉप्टरों के जरिए करीब 7 हजार अमेरिकी नागरिकों को देश से बाहर निकाला। इस युद्ध में अरबों डॉलर झोंक दिए गए और करीब 58 हजार लोगों की मौत हुई। 

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साइगॉन और काबुल के बीच समानताएं 

कई अमेरिकी नीति निर्माताओं ने साइगॉन और काबुल के बीच समानताएं बताई हैं। रिपब्लिकन हाउस कॉन्फ्रेंस की अध्यक्ष एलिस स्टेफनिक ने ट्वीट किया, ‘ये जो बाइडेन का साइगॉन है. अंतरराष्ट्रीय मंच पर एक विनाशकारी विफलता जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकेगा। 

अमेरिका ने झाड़ा पल्ला

भारतीय समय के मुताबिक देर रात करीब डेढ़ बजे अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कहा है कि जो सवाल अमेरिका से पूछे जा रहे हैं वो सवाल अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी से पूछे जाने चाहिए, जो अफगानिस्तान को कठिन हालात में छोड़कर भाग गए। उनसे सवाल पूछा जाना चाहिए कि वो बिना लड़े अफगानिस्तान छोड़कर क्यों भाग गए। बाइडेन ने कहा कि मैं लोगों को भ्रमित नहीं करूंगा। मेरे बाद भी कोई राष्ट्रपति अमेरिकी सेना के अभियान में तैनाती को जारी नहीं रखता। अमेरिकी सैनिकों के परिवारों ने कई अपनों को अफगानिस्तान में खोया है। हम अपनी सेना को लगातार जोखिम उठाने के लिए नहीं भेज सकते। अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा कि हमने अफगानिस्तान पर अरबों डॉलर खर्च किए और वहां कि लीडरशिप ने बिना लड़े हार मान ली। बाइडेन ने कहा कि अमेरिका ने तालिबान को साफ कर दिया है कि अगर हमारे सैनिकों पर हमला हुआ तो हम बहुत सख्त और बहुत तेज एक्शन लेंगे। उन्होंने कहा कि पिछले 20 सालों में जान लिया है कि अफगानिस्तान से सेना वापसी का कभी सही समय नहीं होता। 

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उस समय भारत का क्या स्टैंड था?

तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने उत्तर को उसकी जीत पर बधाई देते हुए कहा था कि अमेरिकी नीति की विफलता" इसके गैर-प्रतिनिधित्व वाली सरकारों के समर्थन के कारण थी। उस समय इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसारडॉ हेनरी किसिंजर के साथ जुड़े विदेश नीति दृष्टिकोण की एक छिपी आलोचना में इंदिरा गांधी ने  कहा था कि शक्ति संतुलन मॉडल ने निश्चित रूप से कोई जवाब नहीं दिया। यह विचार कि चार या पाँच या छह महाशक्तियाँ आपस में बातचीत करके दुनिया में शांति बनाए रख सकती हैं, 19वीं शताब्दी में यूरोप में विकसित विचारों का ही विस्तार था। इंदिरा गांधी का बयान अप्रत्याशित नहीं था, और यह दर्शाता है कि वियतनाम पर भारत की स्थिति क्या थी। 

अब भारत का रूख

भारत ने हमेशा से कहा है कि जब तक अफगानिस्तान में एक रिप्रेजेंटेटिव सरकार नहीं होगी, राजनीतिक ढांचा नहीं होगा, तब तक अफगानिस्तान की समस्या बनी रहेगी। वहां शांति की स्थापना या स्थिरता नहीं आ सकती। हालांकि तालिबान का कहना है कि सबको साथ लेकर चलेंगे। अगर वे ऐसा कर लेते हैं तो भारत के लिए मामला आसान हो जाएगा। लेकिन अगर ऐसा नहीं होता है तो भारत के लिए बड़ी दिक्कत हो जाएगी क्योंकि उसके लिए किसी ऐसे ग्रुप को मान्यता देना बहुत मुश्किल होगा, जिसने हिंसा के जरिए सत्ता हासिल की हो और जिसकी वैधानिकता पर बड़े सवाल हों।- अभिनय आकाश


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