By टीम प्रभासाक्षी | Jan 10, 2022
चुनाव आयोग ने पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान कर दिया है। उत्तर प्रदेश में भी चुनावी बिगुल बज चुका है, सत्ताधारी बीजेपी से लेकर सभी पार्टियां चुनाव में जीत के दावे कर रही हैं। चुनावी बिगुल बजने के साथ ही सभी सियासी दल अपने प्रत्याशियों की सूची तैयार करने में जुट गए हैं। लेकिन इन सबके बीच एक सवाल जिसका जवाब अभी तक नहीं मिला वह ये कि, उत्तर प्रदेश के इस चुनावी मैदान से बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती दूर क्यों हैं? मायावती ने अभी तक किसी बड़ी रैली को भी संबोधित नहीं किया है। कोविड की वजह से चुनाव आयोग ने अब रैलियों को भी रोक दिया है, चुनाव आयोग की इस रोक ने मायावती की चुनौती और बढ़ा दी है। चार बार यूपी की मुख्यमंत्री रहीं मायावती के चुनाव में सक्रिय न होने के सवाल का जवाब हर सियासी पंडित ढूंढ रहा है। मायावती के सक्रिय ना होने से क्या बीएसपी के वोटर नई जगह तलाशने को देखेंगे? और अगर ऐसा होता है तो इसका लाभ किसे मिल सकता है?
लगातार कमजोर होती बीएसपी
मायावती 2007 में अपने सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले के दम पर यूपी की सत्ता पर काबिज हुईं। लेकिन 2012 में सत्ता से बाहर होने के बाद बीएसपी का चुनावी ग्राफ लगातार नीचे ही आया है, 2012 में भी बीएसपी बस 80 सीटें ही जीत पाई थी। उस वक्त बीएसपी दूसरे नंबर की पार्टी थी। फिर आया 2017 का चुनाव इसमें बीएसपी का प्रदर्शन बहुत ही खराब रहा वह इस चुनाव में बस 19 सीटें ही जीत पाई और तीसरे पायदान पर खिसक गई। इसके चलते 2019 के आम चुनावों में मायावती को समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करना पड़ा। इस गठबंधन के बावजूद सपा और बसपा मोदी लहर का मुकाबला नहीं कर सके। हालांकि बसपा को गठबंधन से लाभ जरूर मिला और उसके 10 सांसद संसद पहुंच गए।
बड़े नेताओं ने छोड़ा साथ
बहुजन समाजवादी पार्टी के लगातार कमजोर होने से उसके नेताओं ने पाला बदलना शुरू कर दिया। 2017 के चुनावों में बीएसपी ने 19 सीटें जीती थी लेकिन अब मायावती के विधायकों की संख्या सिर्फ 3 रह गई है। 16 विधायक पार्टी का साथ छोड़ चुके हैं इनमें से कुछ बर्खास्त कर दिए गए और कुछ विधायकों ने इस्तीफा दे दिया। बसपा के बड़े नामों में शामिल हरिशंकर तिवारी और पूर्व सांसद राकेश पांडे हाल ही में सपा में शामिल हो गए हैं।
पार्टी के वोट बैंक में हो रहा विखराव
2007 में दलित ब्राह्मण और मुस्लिम वोट को साध कर अपने सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले के जरिये यूपी की सत्ता में आने वाली बीएसपी का वोट बैंक लगातार बिखर रहा है। पिछले कुछ चुनावों में मायावती के हाथ से दलित वोट बिखरे हैं। सियासी पंडित मानते हैं कि बीजेपी ने मायावती के वोट बैंक में सेंध लगाई है, जिनपर कभी बीएसपी की अच्छी खासी पकड़ थी। हिंदुस्तान से बात करते हुए उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्र कहते हैं मायावती के कम सक्रिय रहने से किसे लाभ होगा यह अभी साफ तौर पर नहीं बताया जा सकता। वह कहते हैं प्रत्याशियों के ऐलान के बाद विभिन्न क्षेत्रों में समीकरण बनेंगे। बीएसपी वोटरों में भी बिखराव होगा, इस सवाल के जवाब में योगेश मिश्र कहते हैं, मायावती की राजनीति में दलित वोट काफी अहम रहा है और उनमें भी जाटव वोटर मायावती के कट्टर समर्थक माने जाते हैं। वह बीएसपी की हार जीत देखे बिना हाथी को ही वोट करते हैं, लेकिन गैर जाटव जैसे पासी, बाल्मीकि वोट मायावती से जरूर छिटक सकते हैं।
सियासी पंडितों का मानना यह भी है कि मायावती जिस सोशल इंजीनियरिंग के दम पर 2007 में सत्ता में आई थीं, इस चुनाव में वो जिताऊ कॉम्बिशन नजर नहीं आ रहा है। मायावती के इसी सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले को सपा भी अपना रही है। विपक्षी दल दावा कर रहा है कि, ब्राह्मण योगी आदित्यनाथ से नाराज हैं इसीलिए विपक्षी दल उनको अपने पाले में लाने की कोशिश में जुटे हुए हैं। योगेश मिश्र सवाल का जवाब देते हुए कहते हैं कि, मायावती को जीतने के लिए कॉम्बिनेशन बनाना पड़ता है, लेकिन इस बार ऐसा होता नजर नहीं आ रहा है। बीएसपी ब्राह्मणों के अलावा ओबीसी को भी साधने की कोशिश में है, लेकिन इन दोनों तबकों के वोट सपा और बीजेपी में भी बटेंगे।