यूपी चुनाव परिणाम ने तुष्टिकरण की राजनीति करने वालों को सबक सिखाया है

By अजय कुमार | Mar 22, 2022

उत्तर प्रदेश विधानसभा में इस बार मुस्लिम विधायकों की संख्या पिछली बार के मुकाबले थोड़ी बढ़ गई है। 2017 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले इस बार 2022 के विधानसभा चुनाव में 10 मुस्लिम प्रत्याशी ज्यादा जीते और जीतने वाले मुस्लिम प्रत्याशियों की कुल संख्या 34 है। सभी चुने गये विधायक समाजवादी पार्टी गठबंधन के हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में 24 मुस्लिम विधायक विधानसभा में जीत कर आए थे। सपा से जीतने वाले विधायकों में अमरोहा से महबूब अली, बहेड़ी से अता उर रहमान, बेहट से उमर अली खान, भदोही से जाहिद, भोजीपुरा से शहजिल इस्लाम, बिलारी से मो. फहीम, चमरौआ से नसीर अहमद, गोपालपुर से नफीस अहमद, इसौली से मो. ताहिर खान शामिल हैं। वहीं, कैराना से नाहिद हसन, कानपुर कैंट से मो. हसन, कांठ से कमाल अख्तर, किठौर से शाहिद मंजूर, कुंदरकी से जिया उर रहमान, लखनऊ पश्चिम से अरमान खान, मटेरा से मारिया, मेरठ से रफीक अंसारी, मोहमदाबाद से सुहेब उर्फ मन्नू अंसारी, मुरादाबाद ग्रामीण से मो. नासिर सपा की टिकट पर चुनाव जीते।

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इसके अलावा नजीबाबाद से तस्लीम अहमद, निजामाबाद से आलम बदी, पटियाली से नादिरा सुल्तान, राम नगर से फरीद महफूज किदवई, रामपुर से मो. आजम खान, संभल से इकबाल महमूद, सिंकदरपुर से जिया उद्दीन रिजवी, सीसामऊ से हाजी इरफान सोलंकी, स्वार से मो. अब्दुल्ला आजम, ठाकुरद्वारा से नवाब जान, डुमरियागंज से सैय्यदा खातून, सहारनपुर से आशु मलिक भी सपा से विधायक चुने गए हैं। वहीं समाजवादी पार्टी गठबंधन की सहयोगी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) से माफिया मुख्तार अंसारी के बेटे अब्बास अंसारी मऊ सीट से जीतकर विधानसभा पहुंचे हैं। वहीं, राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) के टिकट पर सिवालखास से गुलाम मोहम्मद और थानाभवन सीट से अशरफ अली चुनाव जीत कर विधायक बने हैं। रालोद का भी सपा से गठबंधन था।


समाजवादी पार्टी की तरह ही बहुजन समाज पार्टी, कांग्रेस और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) ने भी काफी संख्या में मुस्लिम उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारा था, लेकिन इन सभी दलों का एक भी उम्मीदवार चुनाव जीतने में कामयाब नहीं रहा, जबकि भाजपा ने किसी भी मुस्लिम को टिकट नहीं दिया था। भाजपा नेतृत्व वाले गठबंधन की सहयोगी पार्टी अपना दल (सुहेलदेव) ने जरूर स्वार सीट से हैदर अली खान को चुनाव मैदान में उतारा था, लेकिन उन्हें सपा नेता आजम खान के बेटे अब्दुल्ला आजम ने करीब 61 हजार वोट से शिकस्त दी। पिछली बार से इस बार ज्यादा मुस्लिम प्रत्याशियों के जीतने की वजह पर गौर किया जाए तो यह बात बिल्कुल साफ थी कि अबकी से मुस्लिम वोटरों को लामबंद रखने के लिए बड़े पैमाने पर तैयारियां की गई थीं। जब से चुनाव की आहट सुनाई दी थी, तब से मुस्लिम वोटरों को समझाया जा रहा था कि उनका वोट बंटना नहीं चाहिए, जैसे 2017 में बंट गया था। इसी वजह से बड़ी संख्या में मुस्लिम प्रत्याशी भी चुनाव हार गए और ओवैसी की पार्टी भी हवा में उड़ गई। 


राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि जिस पार्टी का आधार वोट बैंक मजबूत होता है, उसी पार्टी का मुस्लिम प्रत्याशी चुनाव में जीतता है, क्योंकि कोई भी मुस्लिम प्रत्याशी केवल मुस्लिम मतदाताओं के वोट के सहारे नहीं जीत सकता, बल्कि उसे पार्टी का आधार वोट बैंक भी चाहिए होता है। जैसे सपा का आधार वोट बैंक यादव है। अगर किसी मुस्लिम बाहुल्य सीट पर प्रत्याशी को यादव वोट भी मिल जाए तो वह मुस्लिम-यादव गठजोड़ से चुनाव जीत जाता है। इस बार बसपा का आधार वोट भाजपा के पक्ष में खिसकता नजर आ रहा था, वहीं कांग्रेस के पास आज की तारीख में अपना कोई आधार वोट बैंक ही नहीं है। इसीलिए मुस्लिम वोटरों ने बसपा या कांग्रेस के मुस्लिम प्रत्याशी की तरफ ध्यान ही नहीं दिया।


बसपा के साथ इस चुनाव में केवल बहुत कम दलित वोट थे और बसपा के मुस्लिम प्रत्याशी जिताऊ उम्मीदवार नहीं थे इसलिए उन्होंने बसपा को वोट नहीं दिया। दूसरे, इस बार मुस्लिमों ने एकजुट होकर केवल सपा को वोट दिया क्योंकि उन्हें लगता था कि अगर भाजपा को हराना है तो उसका मुकाबला केवल सपा ही कर सकती है। कांग्रेस पार्टी की बात करें तो उसका अपना कोई वोट बैंक ही नहीं है तो उसके मुस्लिम उम्मीदवार के जीतने की कोई उम्मीद ही नहीं थी।

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उधर, मुसलमानों का रहनुमा होने का दावा करने वाली एआईएमआईएम के उम्मीदवारों के चुनाव में बुरी तरह से नाकामयाब होने के सवाल पर मुस्लिम वोटरों पर पकड़ रखने वाले कहते हैं कि उत्तर प्रदेश के मुसलमानों को यह अच्छी तरह से मालूम है कि सिर्फ मुस्लिम वोट के सहारे कोई भी चुनाव नहीं जीत सकता, इसलिए वे एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी की बातों में नहीं आए और उनकी पार्टी के उम्मीदवारों को बिल्कुल नजरअंदाज कर दिया। मुसलमान उनकी चुनावी रैलियों में खूब जमा हुए लेकिन यह भीड़ वोट में तब्दील नहीं हो पाई, जिसका नतीजा है कि उत्तर प्रदेश में इस बार के विधानसभा चुनाव में ओवैसी की पार्टी को केवल 0.49 प्रतिशत ही वोट मिला।


वैसे चर्चा इस बात की भी छिड़ी हुई है कि तुष्टिकरण की सियासत के चलते समाजवादी पार्टी को फायदा कम नुकसान ज्यादा उठाना पड़ रहा है। इसकी बानगी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के वह जिले हैं जहां अखिलेश राज में हिन्दुओं के पलायन को बीजेपी ने दस चुनाव में एक बड़ा चुनावी मुद्दा बना दिया था, लेकिन सपा प्रमुख ने कैराना से उस नाहिद हसन को टिकट दे दिया, जिस पर हिन्दुओं को पलायन के लिए मजबूर करने का आरोप है। खैर, नाहिद हसन चुनाव जरूर जीत गए, लेकिन नाहिद के चलते कई विधानसभा सीटों पर हिन्दू वोटरों का ध्रुवीकरण हुआ और सपा को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भारी नुकसान उठाना पड़ गया, जिसकी दूर-दूर तक कोई उम्मीद नहीं थी।


-अजय कुमार

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