मित्रो ! आज-कल हम लोग विदुर नीति के माध्यम से महात्मा विदुर के अनमोल वचन पढ़ रहे हैं, विदुर जी ने धृतराष्ट्र को लोक परलोक की कल्याणकारी नीतियो के बारे में बताया है। इन सभी नीतियों को पढ़कर आज के समय में भी कुशल नेतृत्व और जीवन के कुछ अन्य गुणों को निखारा जा सकता है।
नीति धर्म का उपदेश देते हुए विदुरजी महाराज धृतराष्ट्र को समझा रहे हैं कि ---
परापवाद निरताः परदुःखोदयेषु च ।
परस्परविरोधे च यतन्ते सततोथिताः ॥
स दोषं दर्शनं येषां संवासे सुमहद्भयम् ।
अर्थादाने महान्दोषः प्रदाने च महद्भयम् ॥
जो दूसरों की निन्दा में ही लगे रहते हैं, दूसरों को दुःख देने और आपस में फूट डालने के लिये सदा उत्साह के साथ प्रयत्न करते हैं, जिनका दर्शन दोष से भरा है और जिनके साथ रहने में भी बहुत बड़ा खतरा है, ऐसे लोगों के साथ धन का आदान-प्रदान नहीं करना चाहिए।
ज्ञातयो वर्धनीयास्तैर्य इच्छन्त्यात्मनः शुभम् ।
कुलवृद्धिं च राजेन्द्र तस्मात्साधु समाचर ॥ १८ ॥
हे राजेन्द्र ! जो लोग अपने भले की इच्छा करते हैं, उन्हें अपने भाई बंधुओं को उन्नतिशील बनाना चाहिये; इसलिए आप भली भांति अपने कुल की वृद्धि करें ।
किं पुनर्गुणवन्तस्ते त्वत्प्रसादाभिकाङ्क्षिणः ।
प्रसादं कुरु दीनानां पाण्डवानां विशां पते ॥
हे भरतश्रेष्ठ ! अपने कुटुम्ब के लोग गुणहीन हो तो भी उनकी रक्षा करनी चाहिये। फिर जो ये पांडव हैं ये तो परम गुणवान् हैं, इनकी बात ही क्या है ?
दीयन्तां ग्रामकाः के चित्तेषां वृत्त्यर्थमीश्वर ।
एवं लोके यशःप्राप्तो भविष्यत्सि नराधिप ॥
राजन ! आप समर्थ हैं, वीर पाण्डवों पर कृपा कीजिये और उनकी जीविका के लिये कुछ गाँव दे दीजिये ॥
वृद्धेन हि त्वया कार्यं पुत्राणां तात रक्षणम् ।
मया चापि हितं वाच्यं विद्धि मां त्वद्धितैषिणम् ॥
नरेश्वर ! ऐसा करने से आपको इस संसार में यश प्राप्त होगा। तात ! आप वृद्ध हैं, इसलिये आपको अपने पुत्रो पर शासन करना चाहिये ||
ज्ञातिभिर्विग्रहस्तात न कर्तव्यो भवार्थिना ।
सुखानि सह भोज्यानि ज्ञातिभिर्भरतर्षभ ॥
भरतश्रेष्ठ ! मुझे भी आपके हित की ही बाते कहनी चाहिये। आप मुझे अपना हितैषी समझिए। तात ! शुभ चाहने वाले को अपने जाति-भाइयो के साथ कलह नहीं करना चाहिये; अपितु उनके साथ मिलकर सुख का उपभोग करना चाहिये॥
सुवृत्तो भव राजेन्द्र पाण्डवान्प्रति मानद ।
अधर्षणीयः शत्रूणां तैर्वृतस्त्वं भविष्यसि ॥
राजेन्द्र ! आप पाण्डवो के प्रति सद्व्यवहार करें। हे मानद ! उनसे सुरक्षित होकर आप शत्रुओं के आक्रमण से बचे रहेंगे।।
पश्चादपि नरश्रेष्ठ तव तापो भविष्यति ।
तान्वा हतान्सुतान्वापि श्रुत्वा तदनुचिन्तय ॥ २८ ॥
नरश्रेष्ठ ! आप पाण्डवों को अथवा अपने पुत्रों को मारे जाने की खबर सुनकर पीछे सन्ताप करेंगे; अतः इस बात का पहले ही विचार कर लीजिये ।।
येन खट्वां समारूढः परितप्येत कर्मणा ।
आदावेव न तत्कुर्यादध्रुवे जीविते सति ॥
इस जीवन का कोई ठिकाना नहीं है। जिस कर्म के करने से अन्त में खाट पर बैठकर पछताना पड़े, उसको पहले से ही नहीं करना चाहिये॥
न कश्चिन्नापनयते पुमानन्यत्र भार्गवात् ।
शेषसम्प्रतिपत्तिस्तु बुद्धिमत्स्वेव तिष्ठति ॥
शुक्राचार्य के सिवा दूसरा कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है, जो नीति का उल्लंघन नहीं करता, अतः जो बीत गया सो बीत गया। अब शेष कर्तव्य का विचार आप जैसे बुद्धिमान पुरुषो पर ही निर्भर है॥
दुर्योधनेन यद्येतत्पापं तेषु पुरा कृतम् ।
त्वया तत्कुलवृद्धेन प्रत्यानेयं नरेश्वर ॥
नरेश्वर ! दुर्योधन ने पहले पांडवों के प्रति जो अपराध किया है आप इस कुल में बड़े-बूढ़े हैं, आपके द्वारा उसका मार्जन हो जाना चाहिये॥
तांस्त्वं पदे प्रतिष्ठाप्य लोके विगतकल्मषः ।
भविष्यसि नरश्रेष्ठ पूजनीयो मनीषिणाम् ॥
नरश्रेष्ठ । यदि आप पांडवों को राज पद पर स्थापित कर देंगे तो संसार में आपका कलङ्क धुल जायगा और आप बुद्धिमान् पुरुषों के माननीय हो जायेगे॥
पापोदयफलं विद्वान् यो नारभति वर्धते |
यस्तु पूर्वकृतं पापमविमृश्यानुवर्तते ।
अगाधपड्के दुर्मेंधा विषमे विनिपात्यते ॥
जो विद्वान पाप-रूप फल देने वाले कर्मों का आरग्भ नहीं करता, वह बढ़ता है, किन्तु जो पूर्व में किये हुए पापो का विचार करके उन्हीं का अनुसरण करता है, वह खोटी बुद्धि वाला मनुष्य अगाध कीचड से भरे हुए बीहड़ नरक में गिराया जाता है।।
न वै श्रुतमविज्ञाय वृद्धाननुपसेव्य वा !
धर्मार्थौ वेदितुं शक्यौ बृहस्पतिसमैरपि ॥
बृहस्पति के समान मनुष्य भी शास्त्रज्ञान अथवा बृद्धों की सेवा किये बिना धर्म और अर्थ का ज्ञान नही प्राप्त कर सकता ।।
नष्टं समुद्रे पतितं नष्टं वाक्यमश्रृण्वति ।
अनात्मनि श्रुते नष्टं नष्टं हुतमनग्निकम् ॥
समुद्र में गिरी हुई वस्तु नष्ट हो जाती है, जो सुनता नहीं उससे कही हुई बात नष्ट हो जाती है, अजितेन्दय पुरुष का शास्त्रज्ञान और रास्ते में किया हुआ हवन भी नष्ट ही है।।
अवृत्तिं विनयो हन्ति हन्त्यनर्थं पराक्रमः ।
हन्ति नित्यं क्षमा क्रोधमाचारो हन्त्यलक्षणम् ॥ ४२ ॥
विनयभाव अपयश का नाश करता पराक्रम अनर्थ को दूर करता है, क्षमा सदा ही क्रोध का नाश करती है और सदाचार कुलक्षरण का अन्त करता है ॥४2 ॥
उपस्थितस्य कामस्य प्रतिवादो न विद्यते ।
अपि निर्मुक्तदेहस्य कामरक्तस्य किं पुनः ॥
देहाभिमान से रहित पुरुष के पास भी यदि न्याययुक्त पदार्थ स्वतः उपस्थित हो तो वह उसका विरोध नहीं करता, फिर कामासक्त मनुष्य के लिये तो कहना ही क्या है ?
शेष अगले प्रसंग में ------
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
- आरएन तिवारी