Gyan Ganga: कथा के जरिये विदुर नीति को समझिये, भाग-12

By आरएन तिवारी | May 10, 2024

मित्रो ! आज-कल हम लोग विदुर नीति के माध्यम से महात्मा विदुर के अनमोल वचन पढ़ रहे हैं, तो आइए ! महात्मा विदुर जी की नीतियों को पढ़कर कुशल नेतृत्व और अपने जीवन के कुछ अन्य गुणो को निखारें और अपना मानव जीवन धन्य करें। 


प्रस्तुत प्रसंग में विदुर जी ने हमारे जीवनोपयोगी बिन्दुओं पर बड़ी बारीकी से अपनी राय व्यक्त की है। आइए ! देखते हैं –


विदुर जी महाराज अपनी जीवनोपयोगी नीतियों से महाराज धृतराष्ट्र की मलिन बुद्धि को संस्कारित करना चाहते है, वे कहते हैं ---


पर्जन्यनाथाः पशवो राजानो मित्र बान्धवाः ।

पतयो बान्धवाः स्त्रीणां ब्राह्मणा वेद बान्धवाः ॥ 


विदुर जी कहते हैं, हे महाराज युधिष्ठिर! पशुओं के रक्षक हैं बादल, राजाओं के सहायक हैं मन्त्री, स्त्रियों के रक्षक हैं पति और ब्राह्मणों की रक्षा शास्त्र ,वेद और पुराण करते हैं।  


सत्येन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते ।

मृजया रक्ष्यते रूपं कुलं वृत्तेन रक्ष्यते ॥ 


सत्य से धर्म की रक्षा होती है, योग से विद्या सुरक्षित होती है, सफाई से रूप की रक्षा होती है और सदाचार से कुल की रक्षा होती है।। 

इसे भी पढ़ें: Gyan Ganga: कथा के जरिये विदुर नीति को समझिये, भाग-11

मानेन रक्ष्यते धान्यमश्वान्रक्ष्यत्यनुक्रमः ।

अभीक्ष्णदर्शनाद्गावः स्त्रियो रक्ष्याः कुचेलतः ॥ 


तौलने से अनाज की रक्षा होती है, फेरनेसे घोड़े सुरक्षित रहते हैं, बारम्बार देखभाल करने से गौओं की तथा स्त्रियों की रक्षा करनी चाहिए। 


न कुलं वृत्ति हीनस्य प्रमाणमिति मे मतिः ।

अन्त्येष्वपि हि जातानां वृत्तमेव विशिष्यते ॥ 


विदुर जी कहते हैं, कि मेरे विचार से जो व्यक्ति ऊँचे कुल में जन्म लिया है किन्तु वह सदाचार से हीन है तो उसे श्रेष्ठ नहीं माना जा सकता है क्योंकि नीच कुल में उत्पन्न मनुष्यों का भी सदाचार श्रेष्ठ माना जाता है॥ 


य ईर्ष्युः परवित्तेषु रूपे वीर्ये कुलान्वये ।

सुखे सौभाग्यसत्कारे तस्य व्याधिरनन्तकः ॥

 

जो दूसरों के धन, रूप, पराक्रम, कुलीनता, सुख, सौभाग्य और सम्मान देखकर ईर्ष्या करता है, वह बहुत बड़ा रोगी है उसका यह रोग असाध्य है ॥ 


अकार्य करणाद्भीतः कार्याणां च विवर्जनात् ।

अकाले मन्त्रभेदाच्च येन माद्येन्न तत्पिबेत् ॥ 


न करने योग्य काम करने से, करने योग्य काम में आलस करने से तथा कार्य सिद्ध होने के पहले ही मन्त्र प्रकट हो जाने से डरना चाहिये। हमें  ऐसा पेय नहीं पीना चाहिये जिससे नशा हो जाए। 


विद्यामदो धनमदस्तृतीयोऽभिजनो मदः ।

एते मदावलिप्तानामेत एव सतां दमाः ॥ 


विद्या का मद, धन का मद और तीसरा ऊँचे कुलका मद ये केवल घमण्डी व्यक्तियों के लिए हैं, परंतु सज्जन पुरुष के लिये ये दमन के साधन हैं, इनको प्राप्त कर सज्जन सदा नम्र बने रहते हैं। 


असन्तोऽभ्यर्थिताः सद्भिः किं चित्कार्यं कदाचन ।

मन्यन्ते सन्तमात्मानमसन्तमपि विश्रुतम् ॥ 


कभी किसी कार्य में सज्जनों द्वारा प्रार्थित होने पर दुष्ट लोग दुष्ट होते हुए भी अपने को सज्जन ही मानने लगते हैं ॥ 


गतिरात्मवतां सन्तः सन्त एव सतां गतिः ।

असतां च गतिः सन्तो न त्वसन्तः सतां गतिः ॥ 


मनस्वी पुरुषों को सहारा देने वाले सन्त हैं, सन्तों को भी सहारा देने वाले  सन्त ही हैं और आश्चर्य यह है कि  दुष्टों को भी सहारा देने वाले सन्त ही होते हैं, पर दुष्टलोग सन्तों को सहारा कभी नहीं देते ॥ 


जिता सभा वस्त्रवता समाशा गोमता जिता ।

अध्वा जितो यानवता सर्वं शीलवता जितम् ॥ 


अच्छे वस्त्र वाला सभा को जीतता (अपना प्रभाव जमा लेता) है, जिसके पास गौ है, वह मीठे स्वाद की आकाङ्क्षाको जीत लेता है; सवारी से चलने वाला मार्ग को जीत लेता (तय कर लेता) है और शीलवान् पुरुष सब पर विजय पा लेता है।॥ 


शीलं प्रधानं पुरुषे तद्यस्येह प्रणश्यति ।

न तस्य जीवितेनार्थो न धनेन न बन्धुभिः ॥ 


पुरुष में शील ही प्रधान है, जिसका शील नष्ट हो जाता है, उसका सब कुछ नष्ट हो जाता है। इस संसार में उसके जीवन का कोई भी प्रयोजन धन और बन्धुओं सिद्ध नहीं होता ।। 


आढ्यानां मांसपरमं मध्यानां गोरसोत्तरम् ।

लवणोत्तरं दरिद्राणां भोजनं भरतर्षभ ॥ 


भरतश्रेष्ठ ! धनोन्मत्त पुरुषों के भोजन में माँस की, मध्यम श्रेणी वालों के भोजन में गोरस की तथा दरिद्रों के भोजन में तेल की प्रधानता होती है।। 


सम्पन्नतरमेवान्नं दरिद्रा भुञ्जते सदा ।

क्षुत्स्वादुतां जनयति सा चाढ्येषु सुदुर्लभा ॥ 


दरिद्र पुरुष सदा स्वादिष्ट ही भोजन करते हैं, क्योंकि भूख उनके भोजन में स्वाद उत्पन्न कर देती है और वही भूख धनियों के लिये सर्वथा दुर्लभ है॥ 


प्रायेण श्रीमतां लोके भोक्तुं शक्तिर्न विद्यते ।

दरिद्राणां तु राजेन्द्र अपि काष्ठं हि जीर्यते ॥ 


राजन् ! संसार में धनियों को प्रायः भोजन करने की शक्ति नहीं होती, किन्तु दरिद्रों के पेट में काठ भी पच जाता है ।। 


अवृत्तिर्भयमन्त्यानां मध्यानां मरणाद्भयम् ।

उत्तमानां तु मर्त्यानामवमानात्परं भयम् ॥ 


अधम पुरुषों को जीविका न होने से भय लगता है, मध्यम श्रेणी के मनुष्योंको मृत्युसे भय होता है, परंतु उत्तम पुरुषों को अपमान से ही महान् भय होता है॥ 


ऐश्वर्यमदपापिष्ठा मदाः पानमदादयः ।

ऐश्वर्यमदमत्तो हि नापतित्वा विबुध्यते ॥ 


मदिरा आदि पीने से नशा तो होता ही है, किंतु ऐश्वर्य का नशा तो बहुत ही बुरा है; क्योंकि ऐश्वर्य के मद से मतवाला पुरुष नष्ट हुए बिना होश में नहीं आता ॥ 


शेष अगले प्रसंग में ------

श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।


- आरएन तिवारी

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