प्राचीन भारतीय नीतिज्ञों और विद्वानो में महात्मा विदुर का एक महत्वपूर्ण स्थान है। महात्मा विदुर ही महाभारत के एकमात्र ऐसे पात्र हैं, जिन्होने पूर्णतया उदासीन व्यवहार प्रकट किया था। महर्षि विदुर नीतिज्ञ, शास्त्रों के ज्ञाता, उचित-अनुचित का विवेक रखने वाले और पांडवों के काका थे। उन्होने महाभारत का युद्ध टालने के लिए धृतराष्ट्र को अधर्म का साथ न देने के लिए भी कहा लेकिन वे धृतराष्ट्र का हृदय परिवर्तन नहीं कर सके, परिणामस्वरूप कौरवों का विनाश सामने आया।
विदुर एक महान नीतिज्ञ थे और कौरवों के महामंत्री भी थे। इसलिए महात्मा विदुर की प्रत्येक नीति राज्य, राजा और प्रजा के कुशल संचालन और व्यवहार के बारे में बताती है। महाभारत का युद्ध उनकी नीतियों का अनुसरण न करने के कारण ही हुआ। यद्यपि महाभारत भूतकालीन विषय है फिर भी महात्मा विदुर की नीति आज के समय में भी अत्यंत प्रासंगिक एवं ज्ञान से परिपूर्ण है। विदुर नीति महाभारत का ही भाग है, जिसमें विदुर जी ने धृतराष्ट्र को लोक परलोक की कल्याणकारी नीतियो के बारे में बताया है। इन सभी नीतियों को पढ़कर आज के समय में भी कुशल नेतृत्व और जीवन के कुछ अन्य गुणो को निखारा जा सकता है।
पौराणिक महाकाव्य महाभारत तथा हिन्दू मान्यताओं के अनुसार महर्षि वैशम्पायन व्यास जी के प्रधान शिष्य और एक प्रसिद्ध ऋषि थे। वे कहते हैं, कि महाभारत युद्ध के बाद धृतराष्ट्र अत्यंत दुखी थे। उन्होने द्वारपाल को बुलाया और महात्मा विदुर से मिलने की इच्छा व्यक्त की। द्वारपाल विदुर के पास आता है और धृतराष्ट्र की आज्ञा सुनाता है। महात्मा विदुर जी आज्ञा शिरोधार्य करते हैं और धृतराष्ट्र के पास आते हैं---
विदुर नीति--------
द्वारस्थ: उवाच----
विदुरोऽयमनुप्राप्तो राजेन्द्र तव शासनात् ।
द्रष्टुमिच्छति ते पादौ किं करोतु प्रशाधि माम् ॥ ४ ॥
द्वारपाल ने जाकर कहा- महाराज! आपकी आज्ञा से विदुरजी यहाँ आ पहुँचे हैं, वे आपके चरणों का दर्शन करना चाहते हैं। उनके लिए क्या आज्ञा है ?
धृतराष्ट्र उवाच ।
प्रवेशय महाप्राज्ञं विदुरं दीर्घदर्शिनम् ।
अहं हि विदुरस्यास्य नाकाल्यो जातु दर्शने ॥
धृतराष्ट्र ने कहा- महाबुद्धिमान् दूरदर्शी और नीतियों के ज्ञाता महात्मा विदुर को भीतर ले आओ, मैं महात्मा विदुर से मिलने के लिए आतुर हूँ।
द्वारस्थ: उवाच----
प्रविशान्तः पुरं क्षत्तर्महाराजस्य धीमतः ।
न हि ते दर्शनेऽकाल्यो जातु राजा ब्रवीति माम् ॥
द्वारपाल विदुर के पास आकर बोला -'विदुरजी ! आप बुद्धिमान् महाराज धृतराष्ट्र के अन्तःपुर में प्रवेश कीजिये। महाराज ने मुझसे कहा है कि मुझे विदुर से मिलने की तीव्र इच्छा है' ॥
वैशंपायन उवाच ।
ततः प्रविश्य विदुरो धृतराष्ट्र निवेशनम् ।
अब्रवीत्प्राञ्जलिर्वाक्यं चिन्तयानं नराधिपम् ॥
वैशम्पायन जी कहते हैं- तदनन्तर विदुर धृतराष्ट्र के महल के भीतर जाकर चिन्ता में पड़े हुए राजासे हाथ जोड़कर बोले— ॥
विदुरोऽहं महाप्राज्ञ सम्प्राप्तस्तव शासनात् ।
यदि किं चन कर्तव्यमयमस्मि प्रशाधि माम् ॥
महाप्राज्ञ ! मैं विदुर हूँ, आपकी आज्ञा से यहाँ आया हूँ । यदि मेरे करने योग्य कुछ काम हो तो मैं उपस्थित हूँ, मुझे आज्ञा दीजिये' ॥
धृतराष्ट्र उवाच ।
सञ्जयो विदुर प्राप्तो गर्हयित्वा च मां गतः ।
अजातशत्रोः श्वो वाक्यं सभामध्ये स वक्ष्यति ॥
धृतराष्ट्रने कहा- विदुर ! बुद्धिमान् संजय आया था, मुझे बुरा-भला कहकर चला गया है। कल सभा में वह अजातशत्रु युधिष्ठिर के वचन सुनायेगा ॥
तस्याद्य कुरुवीरस्य न विज्ञातं वचो मया ।
तन्मे दहति गात्राणि तदकार्षीत्प्रजागरम् ॥
आज मैं उस कुरुवीर युधिष्ठिर की बात न समझ सका- यही मेरे सम्पूर्ण अङ्गों को जला रहा है और इसी चिंता में मैं अभी तक इस अर्ध रात्रि में भी जग रहा हूँ।
जाग्रतो दह्यमानस्य श्रेयो यदिह पश्यसि ।
तद्ब्रूहि त्वं हि नस्तात धर्मार्थकुशलो ह्यसि ॥
तात ! मैं चिन्ता से जलता हुआ अभी तक जग रहा हूँ । मेरे लिये जो कल्याण की बात समझो, वह कहो; क्योंकि हमलोगों में तुम्हीं धर्म और अर्थ के ज्ञान में पूरी तरह से निपुण हो ॥
यतः प्राप्तः सञ्जयः पाण्डवेभ्यो न मे यथावन्मनसः प्रशान्तिः ।
सवेन्द्रियाण्यप्रकृतिं गतानि किं वक्ष्यतीत्येव हि मेऽद्य चिन्ता ॥
संजय, जबसे पाण्डवों के यहाँ से लौटकर आया है, तब से मेरे मनको पूर्ण शान्ति नहीं मिलती। सभी इन्द्रियाँ विकल हो रही हैं। कल वह क्या कहेगा, इसी बात की मुझे इस समय बड़ी भारी चिन्ता हो रही है ।।
विदुर उवाच ।
अभियुक्तं बलवता दुर्बलं हीनसाधनम् ।
हृतस्वं कामिनं चोरमाविशन्ति प्रजागराः ॥
विदुरजी बोले- हे राजन् ! इस जगत में उन चार लोगों को रात में जगने का रोग लग जाता है। पहला जिसका बलवान के साथ विरोध हो गया है उस साधन हीन और दुर्बल मनुष्य को, जिसका सब कुछ हर लिया गया है उसको, कामी को तथा चोर को इसलिए इन चार बातों से हमेशा दूर रहना चाहिए।
शेष अगले प्रसंग में ------
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
- आरएन तिवारी