त्रिपुरा में जीत आसान नहीं रही, कई संघ कार्यकर्ताओं को प्राण गँवाने पड़े

By विजय कुमार | Mar 05, 2018

भारतीय जनता पार्टी पूरे देश में पूर्वोत्तर भारत में हुई विशाल जीत का जश्न मना रही है। जहां लम्बे समय तक उन्हें कोई पूछता नहीं था, वहां ऐसी विराट सफलता सचमुच आश्चर्यजनक ही है; पर इसके पीछे संघ और समविचारी संगठनों का जो परिश्रम छिपा है, उसे भी समझना जरूरी है।

संघ का काम तो सीधे-सीधे शाखा का ही है, जिसमें सब तरह के लोग आते हैं। उम्र और काम के हिसाब से उनकी अलग-अलग शाखाएं लगती हैं। शाखा में आने से अनुशासन और देशप्रेम का भाव जागता है। इससे बिना किसी विशेष प्रयास के स्वयंसेवक एवं कार्यकर्ता का निर्माण होता चलता है। स्वयंसेवक अपने व्यवहार से क्रमशः अपने परिवार, गांव, मोहल्ले और दफ्तर को भी प्रभावित करता है। इसी तरह संघ का काम बढ़ा है।

 

शाखा के अलावा संघ ने और कई काम भी शुरू किये हैं। सेवा के काम इनमें सबसे महत्वपूर्ण हैं। आपातकाल के बाद सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस ने सेवा कार्यों पर जोर दिया। संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री विष्णु जी की देखरेख में सबसे पहले दिल्ली की निर्धन बस्तियों में और फिर पूरे देश में ऐसे केन्द्र खोले गये। इनकी संख्या अब एक लाख से भी अधिक है। शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार प्रशिक्षण, संस्कारशाला, कीर्तन मंडली..जैसे इन केन्द्रों से सेवा के साथ ही संघ का विचार भी लोगों तक पहुंचता है। संघ विचार का हर संगठन किसी न किसी रूप में सेवा जरूर कर रहा है।

 

‘वनवासी कल्याण आश्रम’ जनजातियों में काम करता है। संस्था द्वारा लड़के और लड़कियों के अलग-अलग सैकड़ों छात्रावास पूरे देश में चल रहे हैं। समाज के सहयोग से संचालित इन छात्रावासों के छात्र अन्य राज्य वालों के संपर्क में आते हैं। इससे उनके मन का अलगाव दूर होता है। उन्हें पता लगता है कि वे केवल अपने राज्य या कबीले के नहीं, पूरे भारत के नागरिक हैं। ये छात्र जब वापिस जाते हैं, तो उनके संस्कारों से पूरा गांव प्रभावित होता है। 

 

इन छात्रावासों से सैकड़ों पूर्णकालिक कार्यकर्ता बने हैं, जो अपने ही क्षेत्र में काम कर रहे हैं। ईसाई भी वहां इसी विधि से बढ़े हैं; पर वे उन्हें अपने देश, धर्म, परम्परा, भाषा, भूषा आदि से काटते हैं, जबकि संघ इनसे जोड़ता है। इसीलिए जिस अलगाव को फैलाने में मिशनरियों को 300 साल लगे, उसे संघ 50 साल में ही दूर करने में सफल हो रहा है। 

 

विश्व हिन्दू परिषद भी अपने स्थापना काल (1964) से यहां के साधु-संतों में कार्यरत है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय धर्मसभाओं में जब ये संत जाते हैं, तो इनका दृष्टिकोण व्यापक होता है। इससे वह क्षेत्र तथा जनजाति संपर्क में आती है, जहां इनका प्रभाव है। वि.हि.प. की ‘एकल विद्यालय योजना’ से भी यहां व्यापक परिवर्तन हुआ है। 

 

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद द्वारा 1966 से संचालित ‘अंतरराज्यीय छात्र जीवन दर्शन’ प्रकल्प का पूर्वोत्तर में बहुत लाभ हुआ है। इसके अन्तर्गत युवाओं को दूसरे राज्यों में ले जाकर परिवारों में ठहराते हैं। इससे राष्ट्रीय एकता की भावना विकसित होती है। ऐसे कई युवा राजनीति में भी सक्रिय हैं। कन्याकुमारी के विवेकानंद केन्द्र से संचालित विद्यालय एवं छात्रावासों की भूमिका भी महत्वपूर्ण है।

 

लेकिन ये काम इतना आसान नहीं रहा। वामपंथी और ईसाइयों के कई गुटों ने संघ का सदा हिंसक विरोध किया है। अतः पूरे देश से सैकड़ों साहसी, समर्पित और सुशिक्षित प्रचारक वहां भेजे गये। महाराष्ट्र निवासी सुनील देवधर भी ऐसे ही कार्यकर्ता हैं। ये सब स्थानीय भाषा, बोली, खानपान और रीति-रिवाजों के साथ समरस होकर रहते हैं। इनके कारण स्थानीय कार्यकर्ता भी बड़ी संख्या में प्रचारक एवं पूर्णकालिक बन रहे हैं। 

इस दौरान कई कार्यकर्ताओं को अपने प्राण भी खोने पड़े। ऐसे चार कार्यकर्ताओं की चर्चा यहां उचित होगी, जिनका छह अगस्त, 1999 को कंचनपुरा छात्रावास से अपहरण किया गया था। त्रिपुरा के वामपंथी शासन ने उनकी खोज का नाटक तो किया; पर उससे कुछ नहीं हुआ और उनकी निर्मम हत्या कर दी गयी। 

 

यह घृणित कार्य बैपटिस्ट ईसाई मिशन से प्रेरित आतंकी गुट एन.एल.एफ.टी. ने किया था। उन दिनों दिल्ली में अटल जी की सरकार थी। जब-जब केन्द्र ने इनकी खोज का प्रयास किया, तब-तब उन्हें चटगांव (बंगलादेश) भेज दिया जाता था। 28 जुलाई, 2001 को शासन ने उनकी हत्या की घोषणा कर दी। यद्यपि ये हत्या छह महीने पहले कर दी गयी थीं। मार्च 2000 में गुवाहाटी के संघ कार्यालय में चारों द्वारा हस्ताक्षरित एक पत्र आया था। उसमें उन्होंने लिखा था कि वे अभी जीवित हैं; पर भीषण शारीरिक और मानसिक यातना झेल रहे हैं।

 

ये कार्यकर्ता थे पूर्वांचल क्षेत्र कार्यवाह श्री श्यामलकांति सेनगुप्त, विभाग प्रचारक सुधामय दत्त, जिला प्रचारक शुभंकर चक्रवर्ती तथा शारीरिक शिक्षण प्रमुख दीपेन्द्र डे। पता नहीं उनकी हत्या कब, कैसे और कहां हुई तथा उनके शवों का क्या हुआ ? ऐसे में उनके परिजनों का दर्द समझा जा सकता है। श्यामल जी गृहस्थ थे, जबकि बाकी तीनों अविवाहित प्रचारक। इसके अलावा सर्वश्री ओमप्रकाश चतुर्वेदी, मुरलीधरन, प्रमोद नारायण दीक्षित, प्रफुल्ल गोगोई, शुक्लेश्वर मेधी तथा मधुमंगल शर्मा भी आंतक के शिकार हुए हैं।

 

आज पूर्वोत्तर भारत के केसरिया वातावरण में उन कार्यकर्ताओं की याद आना स्वाभाविक है। इन हत्याओं की पूरी जांच तथा आतंकी गुटों का समूल नाश त्रिपुरा की नयी भा.ज.पा. सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए।

  

-विजय कुमार

 

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