आज का हिंदू धैर्य से सबकुछ सहन करते रहने वाला नहीं है

By तरुण विजय | Feb 22, 2020

कुछ मामला बदल रहा सा दिखता है जो चुनावी जीत-हार से मीलों परे है। जिसे हिंदू पार्टी कहा जाता है, वह कई प्रांतों में हार रही होगी, पर जिनको हिंदू पार्टियां नहीं कहा जाता, वे 'हम बेहतर हिंदू हैं' दिखाने की कवायद में जुट गई हैं। यानी तुमसे अच्छे हिंदू हम हैं यह चल पड़ा है। यह कुछ नया-नया सा हिंदू दिख रहा है। पटना या बेगूसराय के हिसाब से बोलें तो 'इ हिंदू तनिक्क नया-नया देखत हयन'।

 

शाहीन बाग के सिलसिले में जो कोलाहल हुआ, उस दौरान धर्मयुग के प्रसिद्ध संपादक और लेखक धर्मवीर भारती की बांग्लादेश मुक्ति संग्राम पर लिखी पुस्तक से उद्धृत एक भयावह मर्मांतक चित्र देखा। उसमें एक कृशकाय, अधेड़वय का हिंदू अपनी मृत पत्नी की लाश दोनों हाथों में थामे रोते हुए चला आ रहा है। न तो उस पति के शरीर में हडि्डयों के सिवाय कुछ दिख रहा था और न ही बलात्कारों के शिकार होकर उसकी आंखों के सामने दम तोड़ गई उसकी पत्नी के शरीर में सिर्फ हडि्डयों के अलावा कुछ और था। अनेक अमेरिकी पत्रकारों ने 1971 में बांग्लादेश में पाकिस्तानी फौजों द्वारा हिंदुओं के घरों पर निशान लगा लगाकर उन पर हमले करने और लाखों की संख्या में उनके नरसंहार के वृत्त लिखे हैं। लेकिन मुझे आश्चर्य हुआ कि किसी भारतीय लेखक या पत्रकार के इस संबंध में और जानकारी एकत्र कर या किसी भारतीय सामाजिक, राजनीतिक नेता ने उनकी स्मृति में कोई एक दिवस निश्चित कर दीया जलाने का श्रद्धामय कार्य तक नहीं किया।

 

हम ऐसे ही हैं। सिंध, पंजाब, मुल्तान, कश्मीर... हिंदुओं ने अपने पूर्वजों के तमाम नरसंहार भुला दिए। मीरपुर नरसंहार और सन् 90 में कश्मीर से हिंदुओं की नस्लीय तबाही भी भुला ही दी गई है। कभी कोई याद करता है तो क्षमा भाव से, डरते-सकुचाते कुछ काटपीट कर, कुछ अपराधबोध से ग्रस्त हुए मानस की तरह ऐसा कुछ दिखाता है कि घाव भरने की बजाय उन पर नमक छिड़क दिया गया, ऐसी तिलमिलाहट पैदा होती है।

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संभवतः विश्व में भारत एकमात्र ऐसा राज्य होगा जहां इस बात को महत्व दिया जाता है कि समाज अपनी पी़ड़ा, वेदना और गौरव की स्मृतियां मिटाकर आगे बढ़े। इज़रायल और विश्व भर में यहूदी हर वर्ष 26 जनवरी को महाविनाश दिवस (जिसे पंजाबी में घल्लूघारा और अंग्रेजी में होलोकॉस्ट कहते हैं) मनाते हैं। यह उन साठ लाख यहूदियों तथा एक करोड़ दस लाख अन्य लोगों की हिटलर के नाजी शासन द्वारा बर्बर एवं नृशंस संहार की याद में मनाया जाता है। हिटलर ने जो अत्याचार यहूदियों पर किए उससे कई गुना अधिक भयानक अत्याचार विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारियों ने भारत के सनातनधर्मियों और सिक्ख पंथ के वीरों तथा सामान्य नागरिकों पर किए। चार सौ साल पहले पंजाब में मुस्लिम नवाबों ने हर सिक्ख के सर पर दस रुपये का इनाम रखा हुआ था। हरमंदिर साहब पर दुर्रानी का हमला हुआ और हजारों सिक्खों का नरसंहार हुआ। पेशावर, काबुल, लाहौर, रावलपिंडी, कराची से लेकर कश्मीर और दिल्ली होते हुए श्रीरंगपट्टनम तक हिंदुओं के कत्लेआम और उन पर गुजरे भयानक अत्याचारों की कथाएं बिखरी पड़ी हैं।

 

पर उनकी स्मृति जिंदा कौन रख रहा है? जिंदा कौमें, अपनी वेदना की स्मृति मिटाती नहीं। पूर्वजों को हर साल श्राद्ध और तर्पण देने वाला हिंदू समाज उन्हीं पूर्वजों की वेदना पूजा-पाठ में भिगो देता है लेकिन यह याद नहीं करता कि आज अगर हम जिंदा हैं तो उन बलिदानों के कारण, जो हमारे पूर्वजों ने धर्म और समाज की खातिर दिए। यह सिलसिला आज भी थमा नहीं है। संहार खड्ग या राइफल से किया जाए अथवा अपमान और नफरत से भरे शब्दों से- संहार संहार ही होता है और कई बार शब्द की मार खड्ग से भी तेज होती है।

 

शाहीन बाग 1947 के बाद संभवतः पहली बार हिंदू मन पर लाउडस्पीकर, बैनर और पोस्टर के माध्यम से किया गया शब्द प्रहार ही है। कुछ भी हो जाए लेकिन जो पड़ोसी देशों में अन्याय, अत्याचार के पीड़ित हिंदू या सिक्ख हैं, उनके भारत आने का विरोध करना।

 

पर जो हिंदू स्वयं एक-दूसरे के विरुद्ध लड़ने से रस लेता है, जो केवल एक हिंदू को हिंदू के नाते रहने के लिए किन प्रहारों के साये में गुजरना पड़ता है, इसका अहसास तक नहीं करता, जो अपने हिंदुपन का मजाक उड़ाता है और पाठ्य पुस्तकों में आज भी पंडि़ता रमाबाई (ईसाई विद्वान जो स्वामी विवेकानंद पर आघात करने तथा हिंदू महिलाओं के धर्मांतरण के लिए जानी जाती है) और रामास्वामी नायकर पेरियार को महिलाओं के मुक्तिदाता एवं समाज-सुधारक के रूप में पढ़ाता है, जो दिल्ली दर्शन के प्रवासों में देश-विदेश से आए सैलानियों को दिल्ली उजाड़ने और लूटने वालों के लिए यह शब्द प्रयोग करता है, 'उन्हें दिल्ली से इश्क हो गया था', जो दिल्ली पर शासन करने वालों की श्रृंखला का उल्लेख करते हुए मराठों और सिक्खों द्वारा लालकिले पर विजय पताका फहरायी गई, इसका एक शब्द में भी उल्लेख तक नहीं करते, जो अपने ही उन हिंदू भाई-बहनों को जिन्हें अनुसूचित जाति का कहा जाता है, आज भी समानता देना, यहां तक कि अपनी बारात में घोड़ी पर चढ़ने तक से मना करते हैं, उन हिंदुओं से क्या यह अपेक्षा की जाए कि वह अपने पुरखों के गौरव और उनकी वेदना को जिंदा रखते हुए शाहीन बाग की कुटिलता और नफरत को परास्त करेंगे?

 

हां, यह अपेक्षा उन्हीं से की जानी चाहिए। और ऐसा होता दिखता भी है। वास्तव में यह समय एक ऐसे हिंदू उदय और जागरण का है जिसमें वह हिंदू जिसे अब तक दब्बू, रीढ़हीन, बीरबल-टोडरमल बनने लायक लेकिन बादशाह तो मुसलमान का होगा जैसे फिकरों से परिभाषित किया जाता था, अब मुगलिया अहंकार और पाखंड को धर्म-ध्वजा थामे पांव तले कुचलने के लिए तैयार दिखता है। वह अभी इस मूड़ में नहीं है कि धैर्य से सहन करता रहे और माफ करता रहे और वाम, सेक्युलर तबलीगों की यह बात मानता रहे कि जो बीत गया उसे भुला दो और नई कहानी रचो।

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इस हिंदू को यह मालूम है कि आक्रमणकारी जिस शस्त्र का सबसे ज्यादा उपयोग करते हैं वह है विजित प्रजा का स्मृतिलोप करना। जिसको परास्त किया है, जिसे दबाया, कुचला और प्रताड़ित किया है, उसकी स्मृति ही यदि समाप्त कर दी जाए तो वह उठेगा कैसे। वह हमेशा आक्रमणकारी के प्रति ही कृतज्ञता का बोध रखता रहेगा और उसकी भाषा, उसकी भूषा, उसके द्वारा लिखे हुए इतिहास, उसके द्वारा प्रस्तुत समाज और संस्कृति के बोध को ही सत्य का रूप और अपने लिए वरदान स्वरूप ज्ञान मानकर चलता रहता है।

 

नये हिंदू को यह स्वीकार नहीं। वह बदलाव की कसमसाहट से भरा एक वार के दस जवाब, एक आघात के उत्तर में दस आघात, एक शब्द प्रहार का सौ शब्द प्रहारों से जवाब देने की तैयारी के साथ खड़ा है। आए जिस जिसकी हिम्मत हो।

 

-तरुण विजय

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा पूर्व राज्यसभा सांसद हैं।)

 

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