इस बार ऐसे बने... सरकार (व्यंग्य)

By संतोष उत्सुक | Oct 20, 2020

देश में कहीं न कहीं चुनाव होते रहना लोकतंत्र का निरंतर विकसित होते रहना है तो सरकार के निर्माण में दिलचस्पी उगाए रखना निहायत स्वतन्त्र एवं लोकतान्त्रिक विचारों का मालिक होना है। उस कोने में सरकार बनने जा रही हो तो वे इस कोने में भी चुप कैसे बैठ सकते हैं। कार्यकर्ताओं की बैठक में दिए भाषण में हाथ लहरा कर उन्होंने कहा, बहुत ज्यादा नाइंसाफ़ी है, विधानसभा की कुल सीटों  की आधी से एक सीट भी ज़्यादा आ जाए तो सरकार बनाने के लिए सामान मिल जाता है। बाकी बंदों ने चाहे जितनी आर्थिक, शारीरिक या दिमागी जान मारी हो उनकी ज़िंदगी और जीभ का स्वाद कसैला हो जाता है। अनेक बार निर्दलीय या स्वतंत्र जीतकर आने वाले निढाल हो जाते हैं। नब्बे प्रतिशत पर तो अच्छे कॉलेज में पढने के लिए सीट नहीं मिलती, इनके सौ में से इक्यावन आ जाएं तो पूरी सरकार अपनी। मंत्री अपने, ठेकेदार अपने, अफसर अपने। बहुत बेइनसाफ़ी है। हमारा विचार है, अब देश में टू पार्टी सिस्टम लागू होना चाहिए, यहां नहीं मिल रहा तो अमेरिका से मंगा लिया जाए। मज़ा तब आए जब एक पार्टी को अट्ठासी प्रतिशत सीटें मिलें।

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सरकार एक बार बन जाए तो विजय उत्सव में अपहरण व हत्या जैसे संगीन मामले नाच रहे होते हैं। जाति, संप्रदाय, धर्म, बल, धन व झूठे वायदे ताली बजाते हैं। सख्त कानून के पेंच खुले रखे जाते हैं, गिरफ्त इनको देख दूर भागती है। ये कुछ लोग करोड़ों लोगों को अपनी पसंद के निर्णयों की जेल में रखने की कुव्वत रखते हैं। इनकी तनख्वाह भी मनमानी और पेंशन पर आयकर भी नहीं लगता। दूसरे पेंशनर्स की कमाई एक नंबर की होती है तो कर वसूला जाता है। ताक़त हमेशा निरंकुशता की ओर अग्रसर करती है। हर एक के लिए मतदान अनिवार्य किया जाए तब सरकार बने, जाति खत्म कर हम सिर्फ भारतीय कहे जाएं, एक क्रमांक के आधार पर पहचान मानी जाए। आरक्षण न हो तो एकता आ जाए। 


उनका भाषण खत्म हुए ज़्यादा देर नहीं हुई थी, खबर मिली उनके गिने चुने समर्थकों ने ही उन्हें सरकारी अस्पताल के बिस्तर पर पहुंचा दिया। उनकी टूटी हुई टांग व फटे हुए सिर पर तीन दर्जन पट्टियाँ बंधी हुई थी। डाक्टर उनका इलाज करते हुए घबराए हुए लग रहे थे। उनकी बीमार पत्नी पास बैठी हुए उन्हें निरंतर बुरा ही बुरा कह रही थी। बेहद सकारात्मक बात यह रही कि उन्होंने अभी सिर्फ अभ्यास करने के लिए कुछ लोगों के सामने पहली बार ढंग से कुछ कहा था। उनका चुनाव में खड़ा होना और या सरकार में शामिल होना चार सौ बीस मील दूर था।

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इतना लंबा सपना उनके शरीर से सहा नहीं गया, हड़बड़ाकर उठ गए और सोचने लगे कि उनका दिमाग़ भी क्या क्या गलत बातें सोचने लग जाता है। सरकार का निर्माण कहीं ऐसे होता है। अभी उनकी पत्नी शान से खर्राटे ले रही थी। उन्हें याद आया आज से सुबह की चाय बनाने की ड्यूटी उनकी है। घरेलू सरकार सुबह सुबह गिरने से बच जाए इसलिए उन्होंने उठने में देर नहीं की, चाय बनाने किचन की ओर लपके।  


संतोष उत्सुक

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