सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥
प्रभासाक्षी के श्रद्धेय पाठकों ! आज-कल हम परम पवित्र श्रीमद्भागवत महापुराण के अंतर्गत समुद्र मंथन की कथा का श्रवण कर रहे हैं।
पिछले अंक में हम सबने पढ़ा कि भगवान शंभु ने सृष्टि और समाज का संकट दूर करने के लिए समुद्र मंथन से निकला हुआ हलाहल विष पीना स्वीकार कर लिया। विष-पान करने से उनका कंठ नीला हो गया। वह नीला कंठ परोपकार का चिह्न बन गया। आभूषण बन गया। शिवजी का नीला कंठ कितना सुंदर दिखता है। विष ने शिव का सौन्दर्य बढ़ा दिया। हमारे शिवजी सत्यं, शिवम, सुंदरम के प्रतीक बन गए। आइए ! अब आगे की कथा प्रसंग में चलते हैं-
भगवान शिव जी की जय जयकार करते हुए समस्त देव वृंद पुन: समुद्र मंथन करने आए। अबकी बार जब मंथन किया ''हविर्धानी ततोSभवत्।'' कामधेनु प्रकट हुई वह अग्नि होत्र की सामग्री प्रकट करने वाली थी इसलिए ऋषियों को दान कर दिया। चंद्रमा प्रकट हुआ भोलेनाथ के मस्तक पर विराजमान हुआ, भोले बाबा चन्द्रमौलि बन गए। पुन: मंथन हुआ उच्चै:श्रवा घोड़ा निकला उसे बलि ने ग्रहण किया। ऐरावत हाथी निकला इन्द्र ने लिया, कौस्तुभ मणि निकली प्रभु के हृदय मे स्थापित हुई, रंभा आदि अप्सराएँ निकलीं जिन्हें प्रभु ने स्वर्ग में भेज दिया। अबकी बार मंथन करते ही
ततश्चाविरभूत साक्षात् श्रीरमा भगवत्परा।
रंजयन्तीं दिश: कान्त्या विद्युत् सौदामिनी यथा।।
जैसे नीले आकाश में अचानक बिजली चमकती है वैसे ही सागर की जलराशि के बीच भगवती लक्ष्मी का प्रादुर्भाव हुआ। बोलिए लक्ष्मी मातु की जय-
लक्ष्मी का दिव्य सौंदर्य माधुर्य रूप को देखकर सभी देव-दैत्य विमुग्ध हो गए। भगवान बोले- परेशान मत हो पंक्ति में बैठ जाओ वरमाला इनके हाथ में है, जिनसे विवाह करना चाहेंगी उनके गले में डाल देंगी। एक लाइन में ऋषि-महात्मा अपना-अपना चिमटा त्रिशूल गाड़कर बैठ गए और दूसरी लाइन में देवता तथा तीसरी लाइन में राक्षस शांतिपूर्वक बैठ गए। वरमाला लेकर लक्ष्मीजी ने सर्वप्रथम संतों की पंक्ति में प्रवेश किया। सबसे पहले बैठे थे दुर्वासा मुनि। उनको देखकर भगवती लक्ष्मी विचार करने लगीं।
नूनं तपो यस्य न मन्यु निर्जयो।
ज्ञानं क्वचित् तच्च न संग वर्जितम्।।
निश्चित रूप से ये महान तपस्वी हैं। पर क्रोध पर विजय नहीं प्राप्त की। इनकी नाक पर ही क्रोध रहता है। इसलिए प्रणाम करके आगे निकल गईं। इस प्रकार आगे बढ़ती हुई कोई न कोई सब में दोष निकालती गईं। आगे जाकर भगवान शंकर का दर्शन किया, तेजस्वी तपस्वी और भोले-भाले भी हैं। पर
“यत्रोभयम कुत्र च सोSप्यमंगल;“
भोले-भाले तपस्वी सब कुछ हैं पर वेषभूषा बड़ी अमंगल है। इसलिए उनको भी प्रणाम किया और आगे चलीं। सबसे अलग-थलग विराजमान हैं भगवान नारायण। लक्ष्मीजी उन पर मुग्ध हो गईं। सुंदर हैं स्वभाव से भी मधुर हैं स्वरूप भी सुंदर अलंकार भी सुंदर।
मंगलम् भगवान विष्णु मंगलम् गरुण ध्वज
मंगलम् पुंडरीकाक्ष मंगलाय तनो हरिम ॥
सब कुछ मंगल है लेकिन थोड़ी-सी कसर यहाँ भी है। यहाँ क्या कमी है
सुमंगल: कश्च न कांक्षते माम् सुमंगल तो हैं पर माम् न कांक्षते। इतनी देर से मैं इनकी तरफ टुकुर टुकुर देख रही हूँ लेकिन ये एक बार भी मेरी तरफ निगाह उठाकर नहीं देखते। माम् न आकांक्षते। मुझे प्राप्त करने की इच्छा इनमें नहीं है। पर यह दूषण नहीं भूषण ही है। लक्ष्मीजी ने ऐसा विचार करके वरमाला नारायण के कंठ में पहना दी। बोलिए लक्ष्मीनारायण भगवान की जय----
शुकदेव जी कहते हैं– परीक्षित! लक्ष्मीजी का यह स्वभाव है, जो हाथ धोकर उनके पीछे पड़ता है उसे खूब नचाती हैं। और जो उनकी चिंता किए बिना अपने कर्म में लीन है उसके पीछे पड़ जाती हैं। लक्ष्मीजी ने नारायण को ही चुना। अरे वो तो उनकी हैं ही। अब जो मंथन हुआ उससे वारुणी देवी प्रकट हुईं जिसे राक्षसों ने प्राप्त किया। अब पुन: मंथन होते ही साक्षात भगवान धन्वन्तरी अमृत का कलश लिए प्रकट हो गए। अमृत का कलश देखते ही राक्षसों ने इशारा किया, अब देर करने की जरूरत नहीं छीना-झपटी करके अमृत का कलश लेकर नौ-दो ग्यारह हो गए। देवता बिचारे ले गयो ले गयो कहकर रह गए। भगवान मुस्कुराकर बोले- मा खिद्यत मिथोर्थम व: साधायिश्ये स्वमायया । आप लोग दुखी मत हों मेरे आश्रित जो रहते हैं उनका योगक्षेमम वहाम्यहम मैं वहन करता हूँ। उनके गए हुए पदार्थ भी वापस आ जाते हैं। और जो मेरे चरणों से दूर रहता है उनकी अपनी चींजे भी दूर हो जाती हैं। इतना कहकर भगवान अंतर्ध्यान हो गए। दैत्य लोग अमृतकलश ले कर भाग तो गए किन्तु पहले हम, पहले हम- अहं पूर्वम-अहं पूर्वम न त्वं न त्वं इति प्रभो मैं बड़ा हूँ पहले मैं पीऊँगा, दूसरा कहता है मैं सबसे बलवान हूँ इसलिए मैं पहले पीऊँगा। तू तू-मैं मैं शुरू। दैत्यों के तू तू-मैं मैं के बीच भगवान को मौका मिला, परम सुंदरी का रूप धारण किया सबके चित्त को चुराते हुए दैत्यों के बीच पहुँच गए। भगवान के उस मोहिनी रूप को देखकर दैत्यगण विमुग्ध हो गए।
जय श्री कृष्ण-----
क्रमश: अगले अंक में--------------
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
- आरएन तिवारी