By प्रभासाक्षी न्यूज नेटवर्क | Sep 20, 2019
जयपुर। कांग्रेस नेता शशि थरूर ने शुक्रवार को कहा कि देश के राजनीतिक पटल में असहमति के लिए जगह लगातार कम हुई है। उन्होंने कहा कि मौजूदा साल(2019) में इस तरह की असहमति के लिए जगह 1962 की तुलना में नाटकीय ढंग से बहुत थोड़ी रह गयी है। थरूर ने यहां एक कार्यक्रम में पत्रकार करण थापर के साथ चर्चा में यह बात कही। साथ ही थरूर ने कहा कि दलबदल विरोधी कानून ने निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को उनकी पार्टियों का रबर स्टैंप बना दिया है। पूर्व केंद्रीय मंत्री नेसाल 1962 में संसद में एक ही पार्टी के नेताओं में विभिन्न मुद्दों पर असहमति और उसे स्वीकारने के कई उदाहरण देते हुए कहा कि उस समय जिस तरह से नेताओं ने अपने ही बड़े नेताओं को चुनौती दी वह आज किसी भी पार्टी में अकल्पनीय है।
उन्होंने कहा कि “1962 में एक नेता ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के अक्साई चीन संबंधी उस बयान को चुनौती दी थी कि वहां घास का एक तिनका भी नहीं उगता। उक्त नेता ने भरी संसद में अपने गंजे सिर की ओर इशारा करते हुए कहा कि उनके सिर पर भी एक बाल नहीं उगता है… तो क्या आप चीन को इसे भी देने जा रहे हैं। एक और उदाहरण में उन्होंने कहा कि 1962 में सांसद अटल बिहारी वाजपेयी ने चीन युद्ध पर संसद के विशेष सत्र की मांग की थी और सांसद एम ए अन्नादुरई ने तमिलनाडु के अलग होने का आह्वान किया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने वाजपेयी की मांग को स्वीकार कर लिया था, लेकिन अन्नादुरई के आह्वान को एक राय जो किसी की भी हो सकती है, बताते हुए खारिज कर दिया था। थरूर ने कहा कि“जिन उदाहरणों पर हमने चर्चा की है वे दर्शाते हैं कि आज उस तरह की बातों की कल्पना भी नहीं की जा सकती। अगर आज वैसी बातें की जाएं तो अन्नादुराई पर देशद्रोह का आरोप लगता और वाजपेयी की मांग को भी राष्ट्र-विरोधी माना जाता।
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पूर्व केंद्रीय मंत्री ने कहा कि सांसद अपनी अंतरात्मा की आवाजनहीं बोल सकते क्योंकि वे किसी भी विधेयक पर संसद में अपनी पार्टी के रुख से अलग नहीं हो सकते।उन्होंने कहा कि मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल के दौरान सांसद शत्रुघ्न सिन्हा ने प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा के खिलाफ बातें कहीं लेकिन संसद में पेश किए गए हर बिल पर पार्टी के निर्देश के अनुरूप मतदान किया। अगर वे ऐसा नहीं करते तो संसद से अयोग्य ठहराए जा सकते थे। उन्होंने इस बदलाव की एक वजह दलबदल विरोधी कानून को बताया। उन्होंने यह भी कहा कि आपातकाल को छोड़कर भारतीय मीडिया ने कभी भी इस हद की सेल्फ सेंसरशिप को नहीं देखायह भारतीय लोकतंत्र के लिए विनाशकारी है क्योंकि असहमति के बिना कोई लोकतंत्र जिंदा नहीं रह सकता।उन्होंने कहा कि असहमति के लिए सिकुड़ती जगह को बचाने में न्यायपालिका बड़ी भूमिका निभा सकती है।