दो साल पहले तक मैं स्वयं को बड़ा निर्भीक समझता था। समझता क्या, था भी। न किसी बात से डरता था न किसी चीज से। छुटपन से ही जैसे न डरने की घुटी पिलाई गई थी। उस दौर में न कभी टीचर का बैंत डरा सका और न बात-बात में क्लास के बाहर बरामदे में खड़ा कर मुर्गा बना देने की उनकी धौंस। थोड़ा बड़ा हुआ तो मोहिनी पर लाइन मारने से उसके टी.आई. बाप का रौब भी नहीं डरा पाया। भूत, प्रेत और चुड़ैलों को मैं कल्पना की वस्तुएँ मानता रहा। न कभी सच बोलने से डरा और न कभी झूठ बोलने से। और बड़ा हुआ तो मंच पर पहली कविता पढ़ते हुए हुई हूटिंग भी नहीं डरा सकी और शान से उसी समय दूसरी कविता भी उनको दण्ड-स्वरूप सुना डाली। दुनियादारी में प्रवेश किया तो न कभी प्याज के भाव ने डराया और न पेट्रोल की कीमतों ने। शेयर बाजार के औंधे मुँह धड़ाम से गिर पड़ने की धमक से भी मैं अविचलित ही रहा। राक्षस-टाइप अफसरों से मुठभेड़ के समय भी मैं बिना डरे ताल ठोंक के खड़ा रहा। मैं कम्पनियों द्वारा उपभोक्ताओं की सुविधा के लिए जारी किए गए टोल फ्री नम्बरों से भी कभी नहीं डरा जिन पर बात करने की लालसा में मोबाइल के बटन दबाते-दबाते बहुत से लोगों को नर्वस ब्रेकडाउन तक हो जाता है। कहने का आशय यह कि डर नाम का यह अदृश्यजीवी कभी मेरे आसपास भी नहीं फटक सका।
पर बीते दो सालों से मैं बहुत डरने लगा हूँ। बहुत छोटी-छोटी चीजों डरने लगा हूँ। अब डर का आलम यह है कि हमेशा मन डरा-डरा रहता है। डर जैसे कुण्डली के छठवें घर में स्थाई भाव से विराजमान हो गया है और आठवें घर को ललचाई दृष्टि से देखे जा रहा है। कोरोना काल में पहली बार सड़कों पर परेशान लोगों के हुजूम, जलती चिताएँ और तैरती लाशों को देखकर डर लगा था। फिर तो हर बात में डर, हर जगह डर दिखाई देने लगा। दूसरी कक्षा में चेकोस्लोवाकिया की स्पेलिंग से भी न डरने वाला, बुजुर्ग होने पर रेमेडिसिविर जैसी सीधी-सादी स्पेलिंग से भी डरने लगा। कभी पोते को फिजिक्स या मैथ्स पढ़ाते हुए बीटा और डेल्टा जैसे सिम्बल दिख जाते तो डर से मूड ऑफ हो जाता और पढ़ाई धरी रह जाती। इसी डर ने पता नहीं क्या-क्या प्रपंच कराए। तरह-तरह के काढ़े पीने के साथ ही हाथ धोने की ऐसी आदत डाल दी कि भाग्य रेखा तक धुँधली हो गई। अब उसे देखने के लिए सुपर मैग्निफाइंग ग्लास की जरूरत पड़ने लगी है। बिना भाग्य रेखा वाला हाथ जब भी देखता हूँ डर से सिहर उठता हूँ।
पिछली लहर में जब मैं पॉजिटिव हो गया तो मेरे पक्के यार-दोस्त भी डर से कन्नी काटते नजर आए। वे मुझे आइसोलेशन के दौरान अपने कमरे की खिड़की में भी खड़ा देखते तो अंदर दुबक जाते। ठीक होने के बाद तो स्थिति और भी खराब हो गई। छह महीने पहले तक जो दुबे जी वॉक-वे पर घूमते हुए मेरा हाथ पकड़ कर जबर्दस्ती छ: जोक सुनाते थे वह हाथ हिलाकर मेरा अभिवादन स्वीकार करने में भी डरने लगे थे। पहली बार जाना कि एक का डर दूसरे के डर का समानुपातिक होता है। लोग व्यर्थ ही कहते हैं कि डर के आगे जीत है। अब डर के आगे डर ही दिखाई देता है। वायरस का डर कम होता है तो चुनाव डराने आ जाते हैं, रैलियाँ डराने आ जाती हैं, धार्मिक उन्माद डराता है, एंकर डराते हैं, बाजार डराते हैं, तीसरी-चौथी लहर की भविष्यवाणियाँ डराती हैं .. डर का अंत ही दिखाई नहीं देता |
- अरुण अर्णव खरे