By डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Sep 21, 2021
पंजाब, गुजरात, उत्तराखंड और कर्नाटक में जिस तरह मुख्यमंत्री बदले गए हैं, क्या इस प्रक्रिया के पीछे छिपे गहरे अर्थ को हम समझ पा रहे हैं? किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए यह काफी चिंता का विषय है। इन चारों राज्यों में पिछले दिनों जिस तरह से मुख्यमंत्रियों को बदला गया है, उस तरीके में चमत्कारी एकरूपता दिखाई पड़ रही है। पंजाब में कांग्रेस है और शेष तीन राज्यों में भाजपा है। ये दोनों अखिल भारतीय पार्टियां हैं। इनमें से भाजपा दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी है। और कांग्रेस दुनिया की सबसे पुरानी पार्टियों में से एक है। ये दोनों पार्टियाँ दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की सबसे बड़ी पार्टियाँ है।
इन दोनों पार्टियों की कार्यपद्धति में आजकल अद्भुत समानता दिखाई पड़ने लगी है। चारों राज्यों में सत्ता-परिवर्तन चुटकी बजाते ही हो गया। कोई दंगल नहीं हुआ। कोई उठा-पटक नहीं हुई। हटाए गए मुख्यमंत्री अभी तक अपनी पार्टी में ही टिके हुए हैं। उन्होंने बगावत का कोई झंडा नहीं फहराया। दोनों पार्टियों के जो मुख्यमंत्री अपने-अपने राज्यों में अभी भी टिके हुए हैं, उन्हें डर लग रहा है कि कहीं अब उनकी बारी तो नहीं है। जो नए मुख्यमंत्री लाए गए हैं, उनकी चिंता यह है कि अगले चुनाव में अपनी पार्टी को कैसे जितवाया जाए? दोनों पार्टियों की कोशिश है कि उन्होंने जो नए मुख्यमंत्री ऊपर से उतारे हैं, वे येन-केन-प्रकारेण चुनाव की वैतरणी तैर कर पार कर लें।
दोनों पार्टियाँ अपने आपको राष्ट्रीय कहती हैं लेकिन उनका चुनावी पैंतरा शुद्ध जातिवादी है। गुजरात में भाजपा यदि पटेल वोटों पर लार टपका रही है तो पंजाब में कांग्रेस ने दलित वोटों का थोक सौदा कर लिया है। उसने अपने कई सुयोग्य प्रांतीय नेताओं को वैसे ही दरकिनार कर दिया है, जैसे गुजरात में भाजपा ने किया है। दलित वोट पटाने के लिए उसने एक ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री बना दिया है, जिस पर कई तुच्छ कोटि के आरोप पहले से ही लगे हुए हैं। यहां असली सवाल यह है कि इन दोनों महान पार्टियों को इस वक्त जातिवाद का नगाड़ा क्यों पीटना पड़ रहा है। कांग्रेस के बारे में तो यह कहने की जरूरत नहीं है कि उसका केंद्रीय नेतृत्व जनता की दृष्टि में लगभग निष्प्रभावी हो गया है। लेकिन भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व का भी विश्वास खुद पर से हिल गया दिखता है। जो नेतृत्व हरियाणा में एक पंजाबी और गुजरात में एक जैन को मुख्यमंत्री बनाकर अपने दम पर जिता सकता था, अब उसकी भी सांस फूलती दिखाई पड़ रही है। वह भी नए चेहरों और जातिवादी थोक आधार की तलाश में जुट गया है। जनता में चाहे दोनों नेतृत्व कम-ज्यादा हिले हों लेकिन अपनी-अपनी पार्टी में उनकी जकड़ पहले से ज्यादा मजबूत हो गई है। लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए यह शुभ नहीं है।
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक