शिवत्व की प्रतिष्ठा में ही विश्व मानव का कल्याण संभव है

By डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र | Mar 11, 2021

समाज में शिव की प्रतिष्ठा और पूजा-परंपरा देवता के रूप में प्राचीन काल से ही प्रचलित है किंतु हमारे शास्त्रों में वर्णित शिव का स्वरूप उनके देवत्व की पृष्ठभूमि में मनुष्य कल्याण के अनेक नए प्रतीकार्थ भी प्रस्तुत करता है। शिव का एक अर्थ कल्याण भी है। इसलिए शिव कल्याण के प्रतीक हैं और शिव की उपासना का अर्थ मनुष्य की कल्याणकारी कामना की  चिरसाधना है।


कल्याण सब चाहते हैं- अच्छे लोग भी अपने कल्याण के लिए प्रयत्न करते हैं और बुरे लोग भी अपने लिए जो कुछ अच्छा समझते हैं, कल्याणकारी मानते हैं उसकी प्राप्ति हेतु हर संभव प्रयत्न करते हैं। यही ‘शिव’ की सर्वप्रियता है। शिव देवताओं के भी आराध्य हैं और दैत्य भी उनकी भक्ति में लीन दर्शाए गए हैं। श्रीराम ने सागर तट पर रामेश्वरम की स्थापना पूजा कर शिव से अपने कल्याण की कामना की और रावण ने भी जीवन भर शिव की अर्चना करके उनकी कृपा प्राप्त करने का प्रयत्न किया। 

इसे भी पढ़ें: भगवान शिव का त्यौहार है महाशिवरात्रि                   

शिव का श्मशान-वास उनकी वैराग्य-वृत्ति का प्रतीक है। कल्याण की प्राप्ति उसी के लिए संभव है जो सर्वसमर्थ होकर भी उपलब्धियों के उपभोग के प्रति अनासक्त है। मानसिक शांति उसी को मिल सकती है जो वैभव-विलास से दूर एकांत में शांतचित्त से ईश्वर का भजन करने में रुचि लेता है। जिसकी आवश्यकताएं न्यूनतम हैं वही शिव हो सकता है। लौकिक इच्छाओं और भौतिक संपत्तियों से घिर कर शिव नहीं बना जा सकता। लोक का कल्याण नहीं किया जा सकता। अतः शिवत्व की प्राप्ति के लिए वीतरागी बनना अनिवार्यता है।


सदा शांत रहने वाले शिव में रूद्रतत्व का प्रतिष्ठापन मनुष्य के मन में सन्निहित शांति और क्रोध की प्रतीकात्मक प्रस्तुति है। मनुष्य स्वभाव से शांत है किंतु जब उसकी शांति भंग होती है तब वह क्रोधित होकर शांति भंग करने वाली शक्ति को नष्ट कर देता है। भगवान शंकर द्वारा कामदेव को भस्म करने की कथा इस प्रतीकात्मकता को संकेतित करती है।


शिव मानसिक शांति के प्रतीक हैं। वे अपनी तपस्या में रत अवस्था में उस मनुष्य का प्रतीकार्थ प्रकट करते हैं जिसे किसी और से कुछ लेना-देना नहीं रहता। जो अपने में ही मस्त और व्यस्त है; शांत है। ऐसी सच्ची शांति उसी के मन में होती है जो कामनाओं से शून्य होता है। कामनाओं का जागरण शांति भंग का कारण बनता है क्योंकि जब मन में कामनाएं जागती हैं तब शांति शेष नहीं रह जाती। शिव शांति चाहते हैं अतः कामनाओं के प्रतीक कामदेव को तत्काल भस्म कर देते हैं। इस कथा से स्पष्ट है कि यदि हमें शांति चाहिए तो अपनी अतिरिक्त और अनावश्यक अभिलाषाओं को त्यागना होगा।


शिव द्वारा रति को वरदान देकर कामदेव को पुनः जीवित किए जाने की कथा भी गहरा अर्थ व्यक्त करती है। ‘रति’ सहज जीवन के प्रति असक्ति की प्रतीक है। सब शिव के समान बीतरागी संन्यासी नहीं हो सकते। सृष्टि के क्रम और सांसारिक जीवन की स्थितियों को स्थिर रखने के लिए शुभकामनाओं, मनुष्य के मन में सदिच्छाओं का होना आवश्यक है। संन्यासी शिव समस्त कामनाओं का नाश कर देते हैं इस कारण संसार का सामाजिक जीवन-प्रवाह बाधित होता है। अतः उसे पुनः सुसंचालित करने और सुव्यवस्थित बनाने के लिए शिव कामदेव की भस्म से पुनः काम को जीवन प्रदान करते हैं। अभिप्राय यह है कि जीवन में लोककल्याणकारी स्वस्थ कामनाओं का होना भी आवश्यक है। साधारण मनुष्य की जीवन यात्रा कामनाओं- सहज इच्छाओं का पाथेय ग्रहण किए बिना पूर्ण नहीं हो सकती। अतः विषय वासनाओं को भस्म कर अर्थात त्याग कर स्वस्थ कामनाओं और जीवन को रचनात्मक दिशा देने वाली सद् इच्छाओं की ओर गतिशील किया जाना आवश्यक है।

इसे भी पढ़ें: महाशिवरात्रि पर इस तरह करें देवों के देव महादेव का व्रत और पूजन

शिव का विषपान सामाजिक जीवन में व्याप्त विषमताओं और विकृतियों को पचाकर भी लोककल्याण के अमृत को प्राप्त करने की प्रक्रिया का जारी रखना है। समाज में सब अपने लिए शुभ की कामना करते हैं। अशुभ और अनिष्टकारी स्थितियों को कोई स्वीकार करना नहीं चाहता। सुविधा सब को चाहिए पर असुविधाओं में जीने को कोई तैयार नहीं। यश, पद और लाभ के अमृत का पान करने के लिए सब आतुर मिलते हैं किंतु संघर्ष का हलाहल पीने को कोई आगे आना नहीं चाहता। वर्गों और समूहों में बटे समाज के मध्य उत्पन्न संघर्ष के हलाहल का पान लोककल्याण के लिए समर्पित शिव अर्थात वही व्यक्ति कर सकता है जो लोकहित के लिए अपना जीवन दांव पर लगाने को तैयार हो और जिसमें अपयश, असुविधा जैसी समस्त अवांछित स्थितियों का सामना करके भी स्वयं को सुरक्षित बचा ले जाने की अद्भुत क्षमता हो। समाज सागर से उत्पन्न हलाहल को पीना और पचाना शिव जैसे समर्पित व्यक्तित्व के लिए ही संभव है।


शिव समन्वयकारी शक्ति हैं। शिव परिवार में सिंह और नन्दी, मयूर और नाग, नाग और मूषक सब साथ-साथ हैं। सबकी अपनी सामर्थ्य और मर्यादा है। कोई किसी पर झपटता नहीं, कोई किसी को आतंकित नहीं करता, कोई किसी से नहीं डरता। अपनी-अपनी सीमाओं में सुरक्षित रहते हुए अपने अस्तित्व को बनाए रखने की यह स्थिति आदर्श समाज के लिए आवश्यक है। आज जब भारतीय-समाज जाति, वर्ण, धर्म, संप्रदाय, भाषा वर्ग आदि के असंख्य समूहों में बंटकर परस्पर भीषण संघर्ष करता हुआ सामाजिक जीवन को अशांत कर रहा है तब शिव-परिवार के इन विरोधी जीवों की सहअस्तित्व पूर्ण स्थिति समाज के लिए अनुकरणीय आदर्श उपस्थित करती है। शिव परिवार की उपर्युक्त समन्वयकारी प्रतीकात्मक स्थिति इस तथ्य की भी साक्षी है कि कल्याण चाहने वाले समाज में समन्वय होना अत्यंत आवश्यक है। पारस्परिक अंतर्विरोधों शत्रुताओं को त्यागे बिना समाज के लिए शिवत्व की प्राप्ति संभव नहीं हो सकती।


शिव की संतानों में कार्तिकेय पहले हैं और गणेश बाद में। इनका क्रम इस प्रतीकार्थ की प्रतीति कराता है कि शारीरिक शक्ति शिशु को प्रथमतः प्राप्त होती है और बौद्धिक शक्ति का विकास बाद में होता है। शिव के ये दोनों पुत्र कल्याण-विहग के दो सशक्त पंख हैं। दोनों की समन्वित शक्ति से ही शिवत्व की प्राप्ति संभव हो सकती है। कार्तिकेय सामरिक शक्ति और कौशल का चरम उत्कर्ष हैं तो गणेश बौद्धिक बल, सूझबूझ से लिए जाने वाले शुभ-फल प्रदायी निर्णयों की क्षमता की पराकाष्ठा हैं। दोनों का समन्वय समाज कल्याण के कठिन पथ को निरापद बनाता है।

इसे भी पढ़ें: किस धातु से बने शिवलिंग से मिलता है मनचाहा फल ? शिवलिंग की कैसे करें प्राण प्रतिष्ठा ?

‘शिव’ शब्द में सन्निहित इकार ‘शक्ति’ का प्रतीकार्थ व्यक्त करती है। शक्तिरुप ‘इ’ के अभाव में ‘शिव’ शब्द ‘शव’ में परिणत हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि शक्तिहीन अवस्था में शिव अर्थात कल्याण की स्थिति संभव नहीं होती। यदि सत्य शिव की देह है तो शक्ति उनका प्राणतत्व है। शक्तिरहित शिव की संकल्पना निराधार है। पार्वती के रूप में शक्ति का प्रतीकार्थ स्वतः सिद्ध है।


शक्ति के अनेक रूप हैं जबकि कल्याण सर्वदा एक रुप ही होता है। कल्याण की दिशाएं अनेक हो सकती हैं किंतु उसकी आनंद रूप में परिणिति सदा एकरूपा है। इसीलिए शिव का स्वरूप सर्वदा एक सा है। उसमें एकत्व की निरंतरता सदा विद्यमान है जबकि विविध-रूपा शक्ति अर्थात पार्वती बार-बार जन्म लेती हैं, अपना स्वरूप परिवर्तित करती हैं । सामान्य जीवन प्रवाह में बौद्धिक, आर्थिक, सामरिक शक्तियां भी युग के अनुरूप अपना स्वरूप बदलती रही हैं। यही शिव की अर्धांगिनी भवानी के पुनर्जन्म का प्रतीकार्थ है। 


शक्ति सदा शिव का ही वरण करती है। शिव के सानिध्य में ही उसकी सार्थकता है। अत्याचारी आसुरी प्रवृत्तियां जब शक्ति पर अधिकार प्राप्त करने का दुस्साहस करती हैं तब शक्ति उनका नाश कर देती है। देवी के द्वारा असुरों के वध की कथा इसी प्रतीकात्मकता की अभिव्यक्ति है। सामान्य जीवन में भी अपराधियों का दुखद अंत सुनिश्चित होता है क्योंकि लोककल्याणकारिणि शक्ति पार्वती को तो कल्याण मूर्ति शिव की सेवा में ही समर्पित रहने का अभ्यास है। इसीलिए शक्ति का लोकोपकारी स्वरूप ही समाज में सदा सम्मानित हुआ है।


भगवान शिव के शीश पर संस्थित गंगा जीवन में जल के महत्व का प्रतीक हैं। कल्याण चाहने वाले को जल स्रोतों का संरक्षण-संवर्धन करना होगा। जलशक्ति की प्रतीक गंगा को महत्व दिए बिना, नदियों जलाशयों कूपों आदि जल स्त्रोतों की पवित्रता का संरक्षण किए बिना जीवन की सामान्य आवश्यकताएं भी पूरी नहीं हो सकतीं। प्रदूषित जल जीवन के लिए अभिशाप ही सिद्ध होगा। अतः उसकी पवित्रता बनाए रखना मनुष्य का दायित्व है। गंगा को शिव ने सिर पर धारण किया है। सिर पर वही वस्तु-पदार्थ धारण किया जाता है जो पवित्र हो, महत्वपूर्ण हो और सम्मान के योग्य हो। इस प्रकार शिव द्वारा सिर पर गंगा का धारण किया जाना जीवन में जल के महत्व का स्पष्ट संदेश है।


नाग भयानक और विषैले जीव हैं। उनके विष का प्रभाव क्षण भर में मनुष्य की जीवन-लीला समाप्त कर देता है। यही स्थिति सामाजिक जीवन में दुष्टों और अत्याचारी अपराधियों की भी होती है। वे अपने संपर्क में आने वाले व्यक्ति का जीवन अभिशप्त कर देते हैं। शिव के गले में पड़े नाग ऐसे ही समाजविरोधी तत्वों के प्रतीक हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि कल्याणमूर्ति शिव आपराधिक तत्वों का आश्रय हैं। इसका आशय यह है कि कल्याण करने वाले व्यक्ति को इतना शक्तिमान होना चाहिए कि वह अपराधी-तत्वों को भी नियंत्रित कर सके।

 

लोककल्याण की बाधक शक्तियां उसके नियंत्रण में उसके आसपास रहें ताकि शेष समाज उनके कारण आतंकित और पीड़ित ना हो। शिव के शरीर पर नागों की प्रस्तुति इसी अर्थ की प्रतीति कराती है।

इसे भी पढ़ें: सृजन एवं समभाव के स्वामी हैं भगवान शिव

शिव के अशन-बसन नितांत सामान्य हैं । वे बेलपत्र आदि सहज-सुलभ आहार ग्रहण करते हैं और बाघम्बर धारण करते हैं। शिव वैभव और विलास से परे हैं। राजसी ठाठ बाट से महलों में रहने वाला और जगत में उपलब्ध विभिन्न सुविधाओं का अबाध उपभोग करने वाला शिव नहीं हो सकता। ना उससे समाज का कल्याण संभव है और ना ही वह समाज में सर्वमान्य बन सकता है। पर्वत के एकांत में वास, वन उपज का भोजन, बाघम्बर का वस्त्र और नंदी की सवारी शिव के सहज सामान्य जीवन के प्रतीक हैं। समाज का कल्याण ऐसे ही साधारण जीवन यापन करने वाले लोगों के नेतृत्व से संभव है । समग्रतः शिव से संबंधित प्रत्येक वस्तु, जीव आदि मानव-कल्याण से जुड़े किसी ना किसी पक्ष से संबंधित प्रतीकार्थ अवश्य देते हैं।


शिवत्व की प्रतिष्ठा में ही विश्व मानव का कल्याण संभव है। शिव की उपासना के अन्य आध्यात्मिक-पौराणिक विवरण आस्था और विश्वास के विषय हैं। उन पर पूर्ण श्रद्धा रखते हुए यदि हम बौद्धिक धरातल पर शिव से संबंधित इन प्रतिकार्थों  को समझने का भी प्रयत्न करें तो अनेक व्यक्तिगत और सामाजिक समस्याओं के समाधान सहज संभव हैं। शिव-तत्व की यह प्रतीकात्मकता सबके लिए समान रूप से कल्याणकारी है। अतः सर्वथा विचारणीय भी है। 


- डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र

विभागाध्यक्ष-हिन्दी

शासकीय नर्मदा स्नातकोत्तर महाविद्यालय

होशंगाबाद म.प्र.

प्रमुख खबरें

Uttar Pradesh के बिजली कर्मी पहली जनवरी को मनायेंगे काला दिवस

Photos: Khushi Kapoor ने पहली बार बॉयफ्रेंड Vedang Raina शेयर की तस्वीर, पार्टी मू़ड में दिखा कपल

कब तक पूरा हो जाएगा Ram Mandir का निर्माण कार्य? नृपेंद्र मिश्रा ने दी महत्वपूर्ण जानकारी

Shaurya Path: Germany, Pakistan-Bangladesh Relation, Russia-Ukraine War और US-China से जुड़े मुद्दों पर Brigadier Tripathi से वार्ता