तमिलनाडु के बजट से रूपए के आधिकारिक हिंदी प्रतीक की विदाई और तमिलभाषा वाले प्रतीक के इस्तेमाल पर हंगामा स्वाभाविक है। दक्षिण में तमिलनाडु इकलौता राज्य है, जिसकी राजनीति तकरीबन सभी ज्वलंत मुद्दों पर बनी राष्ट्रीय सहमति से अलहदा कदम उठाती रही है। श्रीलंका के लिट्टे विद्रोहियों का मसला, हिंदी विरोध और लोकसभा सीटों के परिसीमन के मुद्दे, तमिल राजनीति की सोच राष्ट्रीय सहमति से अलग रही है। लिट्टे के खिलाफ जहां देशव्यापी गुस्सा रहा, वहीं डीएमके की राजनीति उसके प्रति राग से भरी रही। इस तरह उसने अपना एक अलग तमिल नैरेटिव रचा। रूपए के प्रतीक का तमिलकरण और हिंदी विरोध की ताजा सोच, अतीत के तमिल नैरेटिव का ही विस्तार है।
सबसे पहले आज के दौर की राजनीतिक मंशा को समझना जरूरी है। मौजूदा राजनीति का हर नया कदम और नई राजनीतिक नैरेटिव बनाने की कोशिश के परोक्ष और प्रत्यक्ष, दो उद्देश्य हैं। पहला मकसद जहां तुरंत जनभावनाओं को अपने पक्ष में मोड़कर सियासी फायदा उठाना होता है, वहीं इनके सहारे भविष्य के लिए अपनी मजबूत सियासी इमारत खड़ा करने की भी कोशिश भी रहती है। तमिलनाडु सरकार के उद्वेलित करने वाले हालिया कदमों का तात्कालिक कारण है अगले साल होने वाला विधानसभा चुनाव। इन मुद्दों के जरिए डीएमके अपने पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश कर रही है। चूंकि ये मुद्दे तकरीबन आठ दशकों से डीएमके की राजनीतिक फसल के लिए बेहतर खाद रहे हैं, इसलिए एक बार फिर स्टालिन को इनसे उम्मीद नजर आ रही है।
संविधान के मुताबिक, भारत भले ही राज्यों का संघ हो, लेकिन राज्यों को राष्ट्रीय मुद्दों से अलग राह, जिनमें अलगाववाद के खतरे हों, किसी भी कीमत आगे बढ़ने की छूट नहीं है। संविधानसभा की बहस के दौरान राज्यों के ऐसे कदमों की आशंका जताई गई थी। इसी वजह से मजबूत केंद्र की अवधारणा की मांग स्वीकार की गई। इसके बावजूद आए दिन कुछ न कुछ राज्य राष्ट्रीय सोच से अलग रूख और राह अख्तियार करने की कोशिश करते रहते हैं। हाल के दिनों में इस कोशिश में वह पश्चिम बंगाल भी जुड़ गया है, जहां से राष्ट्रवाद की विचारधारा को बल मिला था। तमिलनाडु तो खैर अरसे से ही कई मुद्दों पर अलग रूख अख्तियार करता रहा है। ऐसा करते वक्त तमिल राजनीति इस तथ्य की अनदेखी करती रही है कि संविधान और राष्ट्र की प्राचीन अवधारणा के लिहाज से तमिल धरती पूरी तरह भारतीय है।
हिंदी विरोध की सोच तमिलनाडु में 1935 में डीएमके के वैचारिक उभार के साथ ही शुरू हुई। तब भी यह विचार, राष्ट्रीय युगबोध से अलग था। तमिलनाडु में पहले क्रांतिकारी सोच के नाम पर ब्राह्मण विरोध की शुरूआत हुई, जिसका अगला कदम हिंदी विरोध रहा। अब यह सोच एक तरह से उत्तर भारत के तीखे विरोध तक पहुंच चुकी है। दिलचस्प यह है कि इसमें कई बार कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी भी मददगार होती रही है। 2023 के विधानसभा चुनावों में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में बीजेपी और तेलंगाना में कांग्रेस को मिली जीत को लेकर कांग्रेसी बौद्धिकों ने नैरेटिव गढ़ा था। जिसके हिसाब से गोबर पट्टी के राज्यों को पिछड़ा और दक्षिणी राज्यों को समझदार बताया गया। यानी जो बीजेपी को चुने, वह पिछड़ा और जो कांग्रेस को चुने, वह प्रगतिशील। इस नैरेटिव ने एक तरह से उत्तर और दक्षिण के विभाजन की रेखा को खींचने की कोशिश की। इसी का विस्तार लोकसभा सीटों के परिसीमन को लेकर द्रविड़ राजनीति की ओर से उठाए जा रहे सवालों में भी दिख सकता है।
राष्ट्रीय सहमति और सोच से उलट सोच के लिए अतीत में डीएमके को कीमत भी चुकानी पड़ी है। 1991 में तत्कालीन चंद्रशेखर ने सरकार ने तब करूणानिधि सरकार को कुछ ऐसी ही वजह से बर्खास्त कर दिया था। कांग्रेस करीब दो दशक से डीएमके की सहयोगी है, लेकिन अतीत में एक बार वह भी डीएमके की ऐसी ही सोच के चलते केंद्र की गुजराल सरकार को गिरा चुकी है। अभी चाहे हिंदी का सवाल हो या फिर रूपए के प्रतीक को बदलने की बात, डीएमके के रूख पर कांग्रेस ने फिलहाल चुप्पी साध रखी है। ऐसा लगता है कि इन मुद्दों पर कांग्रेस की स्थिति सांप और छछूंदर जैसी हो गई है। अगर वह डीएमके का विरोध करती है तो उसे अपने स्थानीय समर्थकों के छिटकने का डर है और यदि समर्थन करती है तो उत्तर भारत में उसकी उम्मीदें बिखर सकती हैं। लेकिन बीजेपी ने आक्रामक रूख अपना रखा है। रूपए का हिंदी प्रतीक बदलने का सबसे तेज विरोध तमिल मूल की निर्मला सीतारमण और तमिलनाडु बीजेपी अध्यक्ष अन्नामलाई कर रहे हैं। उनका साथ उनकी पूर्ववर्ती तमिलसाई सौंदर्याराजन दे रही हैं। बीजेपी की कोशिश है, स्टालिन के हिंदी विरोध की हवा तमिल सोच के जरिए निकालने की है। इसका आधार जोहो कंपनी प्रमुख श्रीधर वेंबु हिंदी समर्थन में बयान देकर मुहैया करा चुके हैं।
अगले साल अप्रैल-मई में तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव होने हैं। 2021 के चुनाव में एक दशक के अन्नाद्रमुक राज के बाद डीएमके को सत्ता मिली थी। इसे बचाए रखने की जुगत में स्टालिन जुट गये हैं। उत्तर और हिंदी विरोधी माहौल जिंदा करना और स्थानीय भावनाओं को उभारना तमिलनाडु में सबसे आसान रहा है। त्रिभाषा फ़ॉर्मूले में स्टालिन को हिंदी विरोध की आसान राह सूझी और वे मैदान में कूद पड़े। लोकसभा सीटों के परिसीमन में जनसंख्या के लिहाज से सीटें कम होने का डर वह पहले से दिखा रहे हैं। रूपए का प्रतीक बदलना उनका अगला कदम है।
1937 में पेरियार के हिंदी विरोधी आंदोलन को तकरीबन समूचे तमिल समुदाय का समर्थन मिला। 1965 में जब संवैधानिक प्रावधानों के चलते हिंदी राजभाषा बनने वाली थी, तब सीए अन्नादुरै की अगुआई में हुए तीव्र हिंदी विरोधी आंदोलन को भी समूचे तमिलनाडु का साथ मिला। इसके असर में दो साल बाद हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को सत्ता गंवानी पड़ी, तब से कांग्रेस राज्य में हाशिए पर ही है। हालांकि इस बार हिंदी विरोध, परिसीमन का डर या रूपए के प्रतीक बदलने को तकरीबन समूचे तमिल समुदाय का साथ मिलता नहीं दिख रहा। इसकी बड़ी वजह यह है कि तमिल समुदाय भी अब भाषा की राजनीति और उसके दायरे को समझने लगा है। संचार क्रांति के जरिए उसे भी पता है कि स्टालिन द्वारा उठाए जा रहे मुद्दों की खामी-खासियत क्या है? तमिल समुदाय के एक हिस्से भी समझ आने लगा है कि उनकी सरकार का विरोध एक बिंदु पर राष्ट्रीय धारा के विपरीत हो सकता है। अब तमिलनाडु में भी लोग मिलने लगे हैं, जिन्हें हिंदी विरोध राजनीतिक शिगूफा नजर आता है। स्टालिन जिस तरह तेजी से एक के बाद एक मुद्दे उछाल रहे हैं, उससे उन्हें और उनके सलाहकारों को लगता है कि हिंदी विरोध हो या परिसीमन की मुखालफत को बड़ा और गहरा समर्थन नहीं मिल रहा है। इन मुद्दों को लगातार उछालने की एक वजह यह भी है, ताकि वह विधानसभा चुनावों तक जिंदा रहे।
पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी राज्य में अपना खाता नहीं खोल पाई, लेकिन उसका गठबंधन राज्य में 18.2 प्रतिशत वोट हासिल करने में कामयाब रहा। इसमें बीजेपी का वोट 11 प्रतिशत रहा। जबकि पहले उसे तीन से पांच प्रतिशत तक ही वोट मिलता रहा। जाहिर है कि बीजेपी राज्य में अपनी जड़ें जमा रही है। बीजेपी राज्य में स्थानीय की बजाय राष्ट्रीय मुद्दों के साथ पहुंच रही है। यह भी वजह है कि स्टालिन ठेठ और आक्रामक स्थानीय मुद्दों को उभारने की कोशिश कर रहे हैं। अतीत में हिंदी और उत्तर भारत विरोध स्थानीय लोगों को गोलबंद करने का आसान जरिया रहे। इन मुद्दों पर सियासी बैटिंग डीएमके के लिए परिचित पिच रही है। इस पिच पर एक बार फिर सियासी बैंटिंग करना उसे आसान लग रहा है। बीजेपी ने भी पिच तो वही अपनाई है, लेकिन उसके मुद्दे अलहदा हैं। राष्ट्रीय मुद्दे बनाम स्थानीय सोच की इस जंग में फिलहाल देश का दक्षिण कोना घायल होता नजर आ रहा है। इस पर रोक लगाने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सोच बननी जरूरी है। अन्यथा ऐसी राजनीति के दंश का दर्द अरसे तक झेलना पड़ सकता है।
- उमेश चतुर्वेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक समीक्षक हैं।