'इंडिया' गठबंधन की कब्र पर खड़ा होगा तीसरा मोर्चा, लेकिन चलेगा कितने दिन?

By कमलेश पांडे | Jan 10, 2025

दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 के दौरान जो राजनीतिक बयानबाजियां होती दिखाई दे रही हैं, उससे साफ है कि जहां 'इंडिया गठबंधन' अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है, वहीं 'एनडीए गठबंधन' पहले से ज्यादा मजबूत हुआ है। इसके अलावा, एक खास लक्षण यह भी दिखाई दे रहा है कि भारतीय राजनीति में कभी कद्दावर समझा जाने वाला  कांग्रेस-भाजपा विरोधी तीसरा मोर्चा एक बार फिर से अपना नया आकार ग्रहण कर रहा है। 


ऐसा इसलिए कि इंडिया गठबंधन में कांग्रेस जहां अलग--थलग पड़ चुकी है, वहीं दिल्ली-पंजाब जैसे राज्यों में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी (आप) के पक्ष में समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, शिवसेना यूबीटी, एनसीपी शरद पवार जैसे क्षेत्रीय दल कांग्रेस विरोधी एकजुटता दिखा रहे हैं। इससे लोगों में यह संदेश जा रहा है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में सियासी लड़ाई सत्तारूढ़ पार्टी 'आप' और प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा के बीच ही होगी। जिसमें अभी तक आप का पलड़ा भारी है, क्योंकि वह सेक्यूलर और हिंदूवादी दोनों सियासी पिच पर ताबड़तोड़ बैटिंग कर रही है, जिससे चुनावी समां बंधती जा रही है।

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वहीं, कांग्रेस पूरे दमखम से चुनाव लड़ रही है जिससे धर्मनिरपेक्ष और सामाजिक न्याय से जुड़े वोटों में बिखराव तय है। इससे आप को या तो भाजपा के हाथों सत्ता गंवानी पड़ सकती है, या फिर सूबे में सरकार बनाने को लेकर कांग्रेस के रहमोकरम पर निर्भर रहना पड़ सकता है। क्योंकि जब भी त्रिकोणीय मुकाबले की स्थिति आती है तो सत्ता का ऊंट किस करवट बैठेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। शायद यही वजह है कि सेक्यूलर सियासत करने के बावजूद आप हिंदूवादी मुद्दों को भी लपक रही है और हिंदुओं को फायदे पहुंचाने वाले फैसले कर रही है, ताकि जो हिन्दू भाजपा-कांग्रेस से नाराज हैं, वो आप की छतरी तले खुद को महफूज समझें। दरअसल, आप को आशंका है कि यदि राष्ट्रीय राजनीतिक ट्रेंड के मुताबिक मुसलमान कांग्रेस के पक्ष में चले जायेंगे और उसकी प्रतिक्रिया में हिन्दू भाजपा की ओर चले जायेंगे तो उसे भारी राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ सकता है। 


राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि यदि क्षेत्रीय दल परस्पर एकजूट होकर तीसरा मोर्चा पुनः बना लेते हैं तो लोकसभा चुनाव 2029 की राजनीतिक लड़ाई भी त्रिकोणीय हो जाएगी। इससे जहां भाजपा फायदे में रहेगी, वहीं कांग्रेस को कुछ राज्यों में भारी चुनावी नुकसान भी झेलना पड़ सकता है। हालांकि, कांग्रेस नेतृत्व को पता है कि अखिल भारतीय स्तर पर उनकी पार्टी ही भाजपा का मुकाबला कर सकती है, इसलिए देर सबेर क्षेत्रीय दलों को कांग्रेस के राजनीतिक एजेंडे को मानना पड़ेगा या फिर भाजपा के खेमे में जाना होगा। 


दरअसल, कांग्रेस के नेतृत्व इंडिया गठबंधन बनने के बाद संयोजक के सवाल पर क्षेत्रीय दलों में जो सिरफुटौव्वल मची, उससे इसके सूत्रधार रहे जदयू नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को पुनः एनडीए की ओर लौटने के लिए विवश होना पड़ा। उसके बाद कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों में सम्मानजनक सीट बंटवारे को लेकर जो चूहे-बिल्ली का खेल चला, यह बात भी कांग्रेस नेता राहुल गांधी को नागवार गुजरी। तभी आप पार्टी ने हद कर दी थी। एक तरफ तो वह दिल्ली में कांग्रेस के साथ तालमेल करके चुनाव लड़ रही थी, दूसरी तरफ पंजाब में दोस्ताना मुकाबले में कांग्रेस से बुरी तरह मात खाई और कांग्रेस से कम सीट ही जीत पाई।


इसके अलावा, कांग्रेस के प्रभाव वाले प्रदेशों में समाजवादी पार्टी, आप पार्टी, टीएमसी, एनसीपी शरद, शिवसेना यूबीटी आदि क्षेत्रीय दलों ने जो ज्यादा से ज्यादा सीटें पाने की घुड़दौड़ शुरू की और कांग्रेस विरोधी बयानबाजियों का सहारा लिये, यह बात भी लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी को नागवार गुजरी। खासकर जम्मूकश्मीर विधानसभा चुनाव, महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव, झारखंड विधानसभा चुनाव और हरियाणा विधानसभा चुनाव के दौरान जो क्षेत्रीय मुद्दे उठे, कांग्रेस के ऊपर बढ़त हासिल करने वाली कोशिशें हुईं, पारस्परिक टीका-टिपण्णी हुई और फिर ममता बनर्जी को आगे करके राहुल गांधी के नेतृत्व पर ही सवाल उठाए गए, उससे यह तय हो गया कि राहुल गांधी के असली राजनीतिक दुश्मन भाजपा नहीं, बल्कि उनके इंडिया गठबंधन में ही मौजूद हैं, इसलिए उन्होंने इंडिया गठबंधन के नेताओं को तवज्जो देना बंद कर दिया।


और तो और, दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले विपक्षी दलों के गठबंधन इंडिया (IN.D.I.A.) में दिख रही रार के बीच कांग्रेस नेता और पार्टी प्रवक्ता पवन खेड़ा ने गत गुरुवार को दो टूक कह दिया कि, 'लोकसभा चुनाव के लिए राष्ट्रीय स्तर पर इंडिया (I.N.D.I.A.) ब्लॉक का गठन किया गया था। कई राज्यों की स्थिति के आधार पर, चाहे वह कांग्रेस हो या क्षेत्रीय दल, वे स्वतंत्र रूप से फैसले लेते हैं कि एक साथ लड़ना है या अलग-अलग।' इससे बौखलाए जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा कि अगर गठबंधन केवल संसदीय चुनाव के लिए था तो इसे खत्म कर दिया जाना चाहिए। 


दरअसल, उमर का पार्टी नैशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) भी विपक्षी गठबंधन इंडिया का हिस्सा है। इसलिए उन्होंने कहा कि आम आदमी पार्टी (आप), कांग्रेस और दूसरे दल यह तय करेंगे कि बीजेपी से कैसे मुकाबला किया जाए। उन्होंने कहा, 'अगर गठबंधन विधानसभा चुनावों के लिए भी है तो हमें एक साथ बैठना होगा और सामूहिक रूप से काम करना होगा।' वहीं, उमर के बयान पर उनके पिता और NC अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला ने कहा कि गठबंधन सिर्फ चुनाव लड़ने के बारे में नहीं है, बल्कि यह भारत को मजबूत करने और नफरत को खत्म करने के बारे में है। गठबंधन स्थायी है। यह हर दिन और हर पल के लिए है।


इससे साफ है कि इंडिया गठबंधन रहे या नहीं रहे, इसको लेकर भी विपक्षी दल असमंजस में हैं। या फिर दो फाड़ हो चुके हैं, अपने-अपने सुविधा के मुताबिक। हालांकि, भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन से मुकाबले के लिए कांग्रेस के नेतृत्व में बने यूपीए, बिहार-यूपी में महागठबंधन और महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी के सियासी हश्र से तो साफ है कि इंडिया गठबंधन का भी देर सबेर वही हश्र होगा। होना भी चाहिए, क्योंकि जब हम 'इंडिया' कहते हैं तो देश के 'अभिजात्य वर्ग' का अहसास मिलता है। जबकि कांग्रेस ने हमेशा 'भारत' यानी गरीब-गुरुबों की राजनीति की है। लिहाजा, उसके लिए बेहतर यही होगा कि वह यूपीए को जिंदा करके, जिसके मार्फत एक दशक तक देश पर राज कर चुकी है। वहीं, इंडिया को तिरोहित कर दे, क्योंकि इसने ही उसकी लोकसभा चुनाव 2024 की संभावनाओं पर तुषारापात कर दिया।


ऐसा इसलिए कि भारतीय राजनीति में चाहे वामपंथी दल हों या समाजवादी दल या फिर दलितवादी दल, ये भरोसेमंद नहीं समझे जाते हैं। वहीं, ओबीसी की राजनीति करने वाले क्षेत्रीय दल भी अपनी सियासी प्रासंगिकता खोते जा रहे हैं। इनके नेतृत्व में बनने वाला तीसरा मोर्चा 1977, 1989, 1996 में केंद्रीय सत्ता में तो पहुंच गया, लेकिन 5 वर्ष भी अपनी सरकार नहीं चला पाया। क्योंकि इनके डीएनए में आपसी सिरफुटौव्वल है। तीनों बार इन्होंने महज 2-3 वर्षों के दौरान ही दो-दो प्रधानमंत्री दिए और मध्यावधि चुनाव का बोझ भी। इनके बारे में आम धारणा है कि कहीं का ईंट, कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा। जब ये एनडीए या यूपीए में होते हैं तो वहां भी उलटबांसी करते रहते हैं।


हां, राज्यों में इन्होंने 1967, 1977, 1989 और 1996 के सियासी बदलावों का फायदा उठाकर खुद को मजबूत किया। बिहार, यूपी, झारखंड, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली, पंजाब आदि इसके सफल उदाहरण दिए जा सकते हैं।


यह बात अलग है कि भाजपा इनको निरंतर अप्रासंगिक किये जा रही है और एक के बाद दूसरा राज्य भी इनसे हड़पते जा रही है। कांग्रेस को भी चाहिए कि वह इन्हें ज्यादा तवज्जो न दे, खासकर चुनाव के पहले। क्योंकि कांग्रेस के वोटबैंक से ही ये खुद को मजबूत करते हैं और फिर उसी को आंख दिखाते हैं। इसलिए कांग्रेस को यदि लंबी राजनीति करनी है तो वह सूबाई और प्रमंडलीय नेतृत्व को मजबूती और स्थायित्व प्रदान करे। वह विद्वानों और अंग्रेजी भाषी नेताओं से सलाह ले, लेकिन खाँटी राजनीतिक फैसले हिंदी भाषी या क्षेत्रीय भाषा-भाषी और जनाधार वाले नेताओं कहने पर करे, अन्यथा सभ्य शहरी सियासी दलाल उसकी कीमत पर खुद को मजबूत कर लेंगे और उसकी सियासी उद्धार नहीं होने देंगे। 


कड़वा सच है कि 1977 से ब्रेक के बाद मैं यही ट्रेंड देख रहा हूँ। इसलिए अब से भी वह सम्भल जाए। इसके अलावा, सेक्यूलर बनने से ज्यादा व्यवहारिक बने। क्योंकि जबतक वह अल्पमतों को प्रभावित करने वाली राजनीति करेगी, उसे बहुमत कहाँ से मिलेगा, वह खुद सोचे-समझे-फैसले करे।


- कमलेश पाण्डेय

वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक

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