संविधान की दिवस की रस्मी अदायगी से नहीं बदलेगी हकीकत

By योगेंद्र योगी | Dec 07, 2024

26 नवंबर 1949 को भारत का संविधान पारित किया गया और अपनाया गया। इस दिन को संविधान दिवस या राष्ट्रीय कानून दिवस के रूप में जाना जाता है। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि भारत का संविधान व्यावहारिक, लचीला, और मज़बूत है। संविधान में हर समस्या का समाधान है। संविधान भारतीय लोकतंत्र की आत्मा है। इसके बावजूद आजादी के बाद से केंद्र हो या राज्यों की सरकारें, सभी ने संविधान में मौजूद कानूनों को अपने राजनीतिक फायदों के लिए इस्तेमाल करने में कसर बाकी नहीं रखी। राजनीतिक दलों की सत्ता लोलुपता के कारण संविधान काफी हद तक कानून का पुलंदा बन कर रह गया। राजनीतिक दलों की मनमानी का आलम ही है कि देश आज भी गरीबी, असमानता, अपराध, जनसंख्या बढ़ोतरी, पर्यावरणीय समस्या और बुनियादी सुविधाओं की कमी से जूझ रहा है।   


संविधान का दुरुपयोग केंद्र में हर दल की सरकार ने करने की भरसक कोशिश की है। इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता बचाने के लिए देश में आपात्तकाल लगा दिया। संविधान की सरेआम धज्जियां उड़ाने का ऐसा मंजर भारत में कभी देखने को नहीं मिला। इसके बाद केंद्र में लंबे अर्से तक शासन में रही कांग्रेस की सरकार ने संविधान के दुरुपयोग में कोई कसर बाकी नहीं रखी। राज्यों की सरकारों को बर्खास्त करने के लिए आर्टिकल 356 का जमकर दुरुपयोग किया गया। इंदिरा गांधी ने आर्टिकल 356 का 50 बार दुरुपयोग किया। श्रीमती गांधी ने विपक्षी और क्षेत्रीय दलों की सरकारों को गिरा दिया। केरल में वामपंथी सरकार चुनी गई, जिसे नेहरू पसंद नहीं करते थे, उसे गिरा दिया गया। करुणानिधि जैसे दिग्गजों की सरकारें गिरा दी गईं। कुल 90 बार चुनी हुई सरकारों को गिराया गया। कांग्रेस सरकार ने डीएमके और वामपंथी सरकारों को गिराया। बदनियति से संविधान के कानूनों को अपनी सुविधा के हिसाब से बदलने और लागू करने का काम सिर्फ कांग्रेस ने ही नहीं किया, बल्कि केंद्र में शासन में आने के बाद भाजपा भी इसमें पीछे नहीं रही। सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में संविधान के 99वें संशोधन और राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) अधिनियम को असंवैधानिक करार देते हुए इसे निरस्त कर दिया और उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए पुरानी कॉलेजियम प्रणाली को बहाल कर दिया।   

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देश के लोगों की सोशल मीडिया के जरिए अभिव्यक्ति और असहमति के अधिकार को केंद्र और राज्यों के कुचलने की कोशिश को सुप्रीम कोर्ट ने नाकाम कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने आईटी एक्ट की धारा ६६ ए को असंवैधानिक करार दिया। अदालत ने सभी राज्यों के पुलिस महानिदेशकों और गृह सचिवों को यह सुनिश्चित करने के लिए कई निर्देश जारी किए कि सभी लंबित मामलों से धारा ६६ ए का संदर्भ हटा दिया जाए। कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया कि प्रकाशित आईटी अधिनियम के बेयरएक्ट्स को पाठकों को पर्याप्त रूप से सूचित करना चाहिए कि धारा 66 ए को अमान्य कर दिया गया है। इस धारा में यह प्रावधान था कि सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक, उत्तेजक या भावनाएं भड़काने वाली सामग्री डालने पर व्यक्ति को गिरफ्तारी किया जा सकता है, लेकिन शीर्ष अदालत ने इस कानून को संविधान के अनुच्छेद 19.1.ए के तहत बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के मौलिक अधिकार के खिलाफ बताकर निरस्त कर दिया था।   


आरक्षण को लेकर सभी राजनीतिक दल वोटों की राजनीतिक करते रहे हैं। आरक्षण के सही प्रावधानों को लागू करने में भी नेताओं को वोटों का डर सताता रहा है। यही वजह रही है कि आरक्षण के फायदे-नुकसान पर कोई दल किसी तरह की चर्चा तक करने को तैयार नहीं होता। आरक्षण को लेकर राजनीतिक दलों ने संविधान से छेड़छाड़ करने में कसर बाकी नहीं रखी। मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की बेंच ने अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति वर्ग के कोटे में कोटा दिए जाने को मंजूरी दी थी। उस दौरान कोर्ट ने कहा था कि एससी-एसटी कैटेगरी के भीतर नई सब कैटेगरी बना सकते हैं और इसके तहत अति पिछड़े तबके को अलग से रिजर्वेशन दे सकते हैं। इसको लेकर पीएम नरेंद्र मोदी से संसद भवन में 100 दलित सांसद मिले। इसके बाद केंद्र ने इसकी घोषणा भी कर दी कि जरूरत पड़ी तो संसद में विधेयक लाया जाएगा, पर आरक्षण के मौजूदा प्रावधानों में कोई बदलाव मंजूर नहीं होगा। हालांकि तमिलनाडु और कर्नाटक ने सुप्रीम कोर्ट के कोटे में कोटा के निर्णय पर अमल का फैसला किया।   


इतना ही नहीं संविधान से इतर जाकर राज्यों की सरकारों ने भी वोटों की राजनीति के लिए आरक्षण को हथियार बनाने के प्रयासों में कसर बाकी नहीं रखी। हां, कुछ राज्यों ने निजी क्षेत्र में स्थानीय लोगों के लिए आरक्षण देने का कानून बनाने की कोशिश की है। हालांकि, इन कोशिशों को संवैधानिक चुनौतियों का सामना करना पड़ा। साल 2008 में महाराष्ट्र सरकार ने भूमिपुत्रों को 80 प्रतिशत आरक्षण देने की कोशिश की थी। साल 2019 में आंध्र प्रदेश सरकार ने निजी क्षेत्र में 75 प्रतिशत स्थानीय आरक्षण अनिवार्य करने वाला कानून पारित किया था। साल 2020 में हरियाणा सरकार ने निजी क्षेत्र में 75 प्रतिशत स्थानीय आरक्षण देने का कानून बनाया था। हालांकि, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने इसे असंवैधानिक माना था।   


इसी तरह साल 2023 में झारखंड ने निजी क्षेत्र में स्थानीय उम्मीदवारों के लिए 75 प्रतिशत आरक्षण अनिवार्य करने वाला कानून पेश किया था। कर्नाटक सरकार ने भी निजी क्षेत्र में स्थानीय लोगों के लिए आरक्षण देने का विधेयक पेश किया था। हालांकि, उद्योग जगत की प्रतिक्रिया के बाद इसे स्थगित कर दिया गया। संविधान के अनुच्छेद 16(3) के मुताबिक, संसद ही किसी खास राज्य में नौकरियों के लिए निवास की ज़रूरत तय करने का कानून बना सकती है। संविधान दिवस मनाना महज एक रस्मी रिवायत रह गई है। केंद्र के साथ राज्यों के भी कानूनों से खिलवाड़ करने के ढेरों उदाहरण मौजूद हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश में अपराधी और माफिया का दबदबा इसके उदाहरण हैं। राजनीतिक दलों ने कानून को शर्मसार करते हुए अपराधियों को संरक्षण देने का काम किया है। संविधान के कानूनों का जब तक निष्पक्षता से पालन नहीं किया जाएगा तब तक संविधान दिवस जैसे प्रयास देश की मौजूदा समस्याओं के समक्ष मुंह चिढ़ाने जैसे ही रहेंगे। 

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