उप्र में भाजपा आलाकमान के सामने चुनौतियों का पहाड़

By अजय कुमार | May 27, 2016

उत्तर प्रदेश फिर से चुनावी मुहाने पर खड़ा है। राजनीति के गलियारों से लेकर गाँव की चौपालों, शहरों के नुक्कड़ों तक पर हर कोई यही सवाल पूछ रहा है कि कौन होगा यूपी का अगला मुख्यमंत्री? मुख्यमंत्री पद की दौड़ में कुछ पुराने चेहरे हैं तो कुछ नये चेहरों को भी संभावित दावेदार समझा जा रहा है। सपा की तरफ से अखिलेश यादव और बसपा की ओर से मायावती की दावेदारी तो पक्की है ही इसलिये सपा और बसपा में कहीं कोई उतावलापन नहीं है। चुनौती है तो भाजपा और कांग्रेस के सामने। इसमें भी भाजपा के बारे में ज्यादा पशोपेश है। सीएम की कुर्सी के लिये भाजपा के संभावित दावेदारों में कई नाम शामिल हैं। दोनों ही दलों ने अभी तक मुख्यमंत्री उम्मीदवार की घोषणा नहीं की है। कांग्रेस तो शायद ही मुख्यमंत्री उम्मीदवार के नाम की घोषणा करे, लेकिन भाजपा के बारे में कयास लगाया जा रहा है कि असम के नतीजों से उत्साहित पार्टी आलाकमान इलाहाबाद में 12−13 जून को होने वाली कार्यसमिति की बैठक में उत्तर प्रदेश के लिये मुख्यमंत्री का चेहरा सामने ला सकती है। भाजपा की तरफ से करीब आधा दर्जन नेताओं के नाम बतौर मुख्यमंत्री उम्मीदवार चर्चा में हैं लेकिन अंतिम फैसला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को ही लेना है। इतना तय है कि भाजपा किसी विवादित छवि वाले नेता को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट नहीं करेगी। इस बात का भी ध्यान रखा जायेगा कि मुख्यमंत्री की दौड़ में कोई ऐसा नेता भी आगे न किया जाये जिसके चलते एक वर्ग विशेष के वोटर पार्टी के खिलाफ लामबंद हो जायें। दिल्ली चुनावों से सबक लेकर आलाकमान पार्टी से बाहर का कोई चेहरा शायद सामने नहीं लायेगा।

 

भाजपा 14 वर्षों के अम्बे अंतराल के बाद पहली बार यूपी के विधानसभा चुनावों को लेकर उत्साहित दिखाई दे रही है। 2014 के लोकसभा चुनाव के नतीजे आने से पहले तक गुटबाजी और टांग खिंचाई में जुटे प्रदेश नेताओं पर जब से दिल्ली आलाकमान की मजबूत पकड़ हुई है तब से हालात काफी बदल गये हैं। पार्टी के प्रदेश नेताओं की हठधर्मी पर लगाम लगा दी गई है। सारे फैसले अब दिल्ली से लिये जा रहे हैं। बात−बात पर लड़ने वाले यूपी के नेतागण दिल्ली के फैसलों के खिलाफ चूं भी नहीं कर पाते हैं। आलाकमान प्रदेश स्तर के नेताओं की एक−एक गतिविधि पर नजर जमाये रहता है। कौन क्या कर रहा है। पल−पल की जानकारी दिल्ली पहुंच जाती है। असम क तरह यूपी में भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) विधानसभा चुनाव के लिये सियासी जमीन तैयार करने में जुटा है। भाजपा नेताओं को बस इसी जमीन पर चुनावी फसल उगानी और काटनी होगी।

 

बात 2012 के विधानसभा चुनाव की कि जाये तो उस समय समाजवादी पार्टी को 29.13, बहुजन समा पार्टी को 25.91, भारतीय जनता पार्टी को 15 और कांग्रेस को 11.65 प्रतिशत वोट मिले थे। इन वोटों के सहारे समाजवादी पार्टी 224, बसपा 80, भाजपा 47 और कांग्रेस 28 सीटों पर जीतने में सफल रही थी। दो वर्ष बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में स्थिति काफी बदल गई। मोदी लहर में सपा−बसपा और कांग्रेस सब उड़ गये। विधानसभा चुनाव के मुकाबले भाजपा के वोट प्रतिशत में 27 प्रतिशत से अधिक का इजाफा हुआ और उसको 42.63 प्रतिशत वोट मिले। वहीं सपा के वोटों में करीब 07 प्रतिशत और बसपा के वोटों में 06 प्रतिशत गिरावट दर्ज की गई। कांग्रेस की स्थिति तो और भी बदतर रही उसे 2012 के विधानसभा चुनावों में मिले 11.65 प्रतिशत वोटों के मुकाबले मात्र 7.58 प्रतिशत वोटों पर ही संतोष करना पड़ा। वोट प्रतिशत में आये बदलाव के कारण बसपा का खाता नहीं खुला वहीं समाजवादी पार्टी 05 और कांग्रेस 02 सीटों पर सिमट गई थी। भाजपा गठबंधन के खाते में 73 सींटे आईं जिसमें 71 भाजपा की थीं और 02 सीटें उसकी सहयोगी अपना दल की थीं। इसी के बाद से भाजपा के हौसले बुलंद हैं और वह यूपी में सत्ता हासिल करने का सपना देखने लगी है।

 

पहले तो भाजपा आलाकमान मोदी के चेहरे को आगे करके यूपी फतह करने का मन बना रहा था परंतु बिहार के जख्मों ने उसे ऐसा करने से रोक दिया और असम की जीत ने भाजपा को आगे का रास्ता दिखाया। यह तय माना जा रहा है कि यूपी चुनाव में मोदी का उपयोग जरूरत से अधिक नहीं किया जायेगा। इसकी जगह स्थानीय नेताओं को महत्व दिया जायेगा। असम में मुख्यमंत्री पद का चेहरा प्रोजक्ट करके मैदान मारने और यूपी में भी इसी तर्ज पर आगे बढ़ने की भाजपा आलाकमान की मंशा को भांप कर यूपी भाजपा नेताओं के बीच यह चर्चा शुरू हो गई कि पार्टी किसे मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करेगी। कई नाम सामने भी आये हैं। मगर आलाकमान फूंक-फूंक कर कदम रख रहा है। उसे डर भी सता रहा है कि जिसको मुख्यमंत्री प्रत्याशी घोषित नहीं किया जायेगा वह विजय अभियान में रोड़ा बन सकता है। पार्टी के भीतर मौजूद तमाम तरह के सियासी समीकरण भाजपा नेतृत्व को इस मामले में आगे बढ़ने से रोक रहे हैं तो आलाकमान की बाहरी चिंता यह है कि वह चाहता है कि मुख्यमंत्री उम्मीदवार का चेहरा ऐसा होना चाहिए जो बसपा सुप्रीमो मायावती, सपा नेता और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से 19 न हो, लेकिन यूपी की सियासत में ऐसा कोई चेहरा दिख नहीं रहा है। यूपी में जो दमदार चेहरे थे उसमें से कुछ उम्रदराज हो गये हैं तो कुछ दिल्ली की सियासत छोड़कर यूपी के दंगल में कूदने को तैयार नहीं हैं। भाजपा की तरफ से जब मुख्यमंत्री का चेहरा आगे करने की बात सोची जाती है तो पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह और राजनाथ सिंह का नाम सबसे पहले दिमाग में आता है। परंतु कल्याण सिंह के सक्रिय राजनीति से कट जाने और राजनाथ के मोदी सरकार में नंबर दो की हैसियत पर होने के कारण यूपी वापस आने की संभावनाएं बिल्कुल खत्म हो जाती हैं। मोदी सरकार के एक और मंत्री कलराज मिश्र भी दिल्ली छोड़कर यूपी नहीं आना चाह रहे हैं। इसके बाद जो नाम बचते हैं उनको लेकर नेतृत्व के भीतर ही असमंजस है।
 
अतीत में भाजपा के यह नेता किस तरह से सिर फुटव्वल करते रहे हैं किसी से छिपा नहीं है। भाजपा के दिग्गज नेता और मोदी सरकार में मंत्री कलराज मिश्र तो 2002 में सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि भाजपा के कुछ बड़े नेताओं में अब दूसरे की टांग खींचने की प्रवृत्ति काफी बढ़ गई है। ऐसी सोच रखने वाले कलराज अकेले नहीं हैं।  कौन होगा बीजेपी का मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार के सवाल पर भाजपा के कई प्रमुख नेता कहते हैं कि यूपी के चुनावी समर में भाजपा का मुकाबला बसपा नेत्री मायावती व सपा प्रमुख मुलायम सिंह और उनके पुत्र तथा मौजूदा सीएम अखिलेश यादव जैसे चेहरों से होगा, जिनका अपना जातीय वोट आधार है। भाजपा के पास इन चेहरों का जवाब यूपी में कल्याण सिंह, राजनाथ सिंह कलराज मिश्र जैसे चेहरे ही हो सकते थे पर, तीनों इस समय दूसरी भूमिका छोड़कर उत्तर प्रदेश की चुनौती स्वीकर करने के लिये तब तक राजी नहीं होंगे जब तक कि आलाकमान उन पर दबाव नहीं बनायेगा (जो मुश्किल लगता है।)

 

बाकी जो नाम चर्चा में हैं उनमें उत्तर प्रदेश से संबंधित नामों में कोई ऐसा नहीं है जो अपनी छवि और पकड़ की बदौलत भाजपा की नैया पार लगा सके। स्मृति ईरानी जैसे बाहर के नेताओं का नाम भी मुख्यमंत्री के लिये चर्चा में है, लेकिन उन्हें आगे लाने के लिये भाजपा नेतृत्व को पहले यूपी के प्रमुख नेताओं के बीच उनके नाम पर सहमति बनानी होगी। आज की तारीख में भाजपा की तरफ से मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में जो नाम चर्चा में हैं उसके साथ न तो मोदी जैसी उपलब्धियां जुड़ी हैं और न उसकी कोई पहचान ही है। ऐसे किसी नाम पर आलाकमान सहमति की मोहर लगा देता है तो संभावना इस बात की भी है कि यूपी के अन्य प्रमुख नेता कहीं हाथ पर हाथ रखकर बैठ न जायें। शायद यही वजह है कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को कहना पड़ रहा है कि असम के प्रयोग को यूपी में दोहराने के बारे में उन्होंने अभी कुछ तय नहीं किया है। फिर भी जिन नामों की चर्चा चल रही है उनके बारे में जान लेना भी जरूरी है।

 

सबसे पहला नाम मौजूदा केन्द्रीय गृह मंत्री और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह का आता है। कार्यकर्ताओं के लिए हमेशा घर के दरवाजे खुले रखने और लगातार संपर्क व संवाद रखने के कारण प्रदेश के कार्यकर्ताओं में राजनाथ सिंह की स्वीकार्यता है। उनमें प्रशासनिक क्षमता भी है। उनके चेहरे को आगे करके चुनाव लड़ने से भाजपा को लाभ भी हो सकता है। राजनाथ के सहारे भाजपा सामाजिक न्याय समिति की रिपोर्ट का हवाला देकर अगड़ों, अति पिछड़ों व अति दलितों को भी अपने पक्ष में मोड़ सकती है। अल्पसंख्यकों के बीच भी उनकी अ़च्छी छवि है। पर यह तभी संभव है जब राजनाथ खुद इस भूमिका के लिए तैयार हों।

 

केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी का भी नाम चर्चा में है, लेकिन उनका यूपी से बस इतना ही नाता है कि वह 2014 में अमेठी से राहुल गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ी थीं और इसके बाद से वह अमेठी में लगातार सक्रिय हैं। स्मृति पर प्रधानमंत्री मोदी को काफी भरोसा है। लोकसभा व राज्यसभा में कई मुद्दों पर उन्होंने विपक्ष पर जिस तरह तर्कों के साथ हमला बोला और इसके अलावा अमेठी में लोकसभा चुनाव हारने के बावजूद उन्होंने जिस प्रकार से अपने निर्वाचन क्षेत्र से नाता जोड़कर रखा उससे यूपी में स्मृति ईरानी की लोकप्रियता बढ़ी है। लोग मान रहे हैं कि प्रदेश में मायावती जैसी नेत्री से मुकाबला करने के लिए ईरानी का प्रयोग ठीक रहेगा। इससे भाजपा महिलाओं के बीच पकड़ व पैठ बना सकेगी।

 

भाजपा का एक वर्ग वरूण गांधी में मुख्यमंत्री बनने की संभावना और क्षमता तलाश रहा है। एक तो गांधी परिवार की पृष्ठभूमि और दूसरे हिंदुत्व पर आक्रामक भाषा, लोगों को लगता है कि वरूण को आगे लाने से पार्टी को चुनाव में लाभ हो सकता है। वरूण को आगे करने से भाजपा को उस वोट का लाभ मिल सकता है जो चेहरा और माहौल देखकर वोट डालने का आदी हैं पर वरूण को लेकर पार्टी के भीतर हिचकिचाहट भी है कि वह पार्टी के साथ तालमेल बैठाकर कितना काम करेंगे। लोकसभा चुनाव के समय वरूण गांधी मोदी से दूरी बनाकर चले थे, जिस पर काफी चर्चा भी हुई थी। आज भी वरूण गांधी प्रधानमंत्री मोदी की गुड लिस्ट में नहीं हैं।

 

भाजपा अगर वोटों के ध्रुवीकरण के सहारे चुनाव मैदान में उतरना चाहेगी तो योगी आदित्यनाथ भी एक चेहरा हो सकते हैं। आदित्यनाथ की एक तो हिंदुत्ववादी छवि है। साथ ही उन्होंने पिछले कुछ वर्षों से पूर्वांचल में मल्लाह, निषाद, कोछी, कुर्मी, कुम्हार, तेली जैसी अति पिछड़ी जातियों और धानुक, पासी, वाल्मीकी जैसी तमाम अति दलित जातियों में पकड़ मजबूत की है। पर भाजपा में इस बात को लेकर असमंजस है कि उन्हें मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने से मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण न हो जाए। यही समस्या वरूण गांधी के साथ भी है। 2009 के लोकसभा चुनाव के समय पीलीभीत में दिया गया उनका विवादित भाषण आज भी मुस्लिमों को याद है।

 

अगर भाजपा किसी अगड़े और उसमें भी किसी ब्राह्म्ण चेहरे को मुख्यमंत्री का प्रत्याशी घोषित करना चाहेगी तो डॉ. दिनेश शर्मा और कलराज मिश्र का नाम सबसे आगे हो सकता है। दिनेश शर्मा दो कार्यकाल से राजंधानी के महापौर हैं। भाजपा के सांगठनिक ढांचे में भी कई पदों पर काम कर चुके हैं। इस समय पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं। आम लोगों के बीच उनकी छवि व साख ठीक−ठाक है। सरल हैं और लोगों को आसानी से उपलब्ध भी हैं। प्रदेश भर के कार्यकर्ताओं से भी उनका संपर्क व संवाद है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रिय लोगों में शुमार होते हैं। डॉ. दिनेश शर्मा का नाम भी बतौर भावी मुख्यमंत्री उम्मीदवार चर्चा में शमिल रहा है पर, सूबे का जातीय गणित उनके लिये पूरी तरह से अनुकूल नहीं बैठ रहा है। बात कलराज मिश्र की कि जाये तो वह प्रदेश में लंबे समय तक संगठन का नेतृत्व कर चुके हैं। लखनऊ के विधायक रह चुके हैं। सरलता और कार्यकर्ताओं से सतत संवाद व संपर्क के कारण पार्टी कार्यकर्ताओं में लोकप्रिय भी हैं। उनका चेहरा आगे करके चुनाव लड़ने से भी भाजपा को फायदा हो सकता है।

 

लब्बोलुआब यह है कि भाजपा आलाकमान को यूपी का मुख्यमंत्री प्रत्याशी घोषित करने में पहाड़ जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। उसके हाथ बंधे होंगे, लेकिन दिमाग खुला रखना होगा। प्रदेश भाजपा में ऐसे नेताओं की कमी नहीं है जो चुनाव जीतने की कूव्वत भले न रखते हों लेकिन किसी को चुनाव हराने में इन्हें महारथ हासिल है। यह नजारा अतीत में कई बार देखने को मिल भी चुका है।

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