आजाद भारत में मुस्लिम महिलाओं को मिली सबसे बड़ी आजादी

By सोनिया चोपड़ा | Aug 22, 2017

तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला मुस्लिम समाज की महिलाओं के सशक्तिकरण में मील का पत्थर साबित होगा। डिजीटल इंडिया के युग में एसएमएस, व्हाट्सअप, ईमेल और फोन पर जब से तीन तलाक की खबरें आनी शुरू हुई थीं, तभी से मुस्लिम महिलाओं में बेचैनी देखी जा रही थी। असल में तीन तलाक का दंश मुस्लिम महिलाएं दशकों से झेलती आ रही थीं और इस प्रथा से महिलाएं एकाएक बेघर हो जाती थीं। जिस तेजी से इस प्रथा का दुरूपयोग बढ़ा था, उससे साफ था कि अब इसे समाप्त करने का समय आ चुका है और आज अंततः विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों से आने वाले पांच जजों की पीठ ने इसे असंवैधानिक करार दे दिया। मुस्लिम महिलाएं और लड़कियां खुशी में मिठाईयां बांट रही हैं क्योंकि आज दशकों बाद एक कुप्रथा के अंत की शुरूआत हुई है, जिससे मुस्लिम महिलाएं अधिक सशक्त बनेंगी।

ऐतिहासिक दृष्टि से तीन तलाक पर आज का फैसला महत्वपूर्ण है और सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों- जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस नरीमन और जस्टिस यू.यू. ललित ने बहुमत से तलाक को गैर संवैधानिक और मनमाना करार दिया है और इसे खारिज कर दिया है। तीनों जजों ने तीन तलाक को संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करार दिया है। जजों ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 14 समानता का अधिकार देता है और यह उसका सीधा उल्लंघन है। इससे पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय इसे पहले ही गैर संवैधानिक करार दे चुका है। 

 

वैसे चीफ जस्टिस जेएस खेहर और जस्टिस नजीर ने अल्पमत में दिए अपने फैसले में तीन तलाक को धार्मिक परम्परा माना है, इसलिए कहा है कि कोर्ट को इसमें दखल देने की जरूरत नहीं है। हालांकि जजों ने माना कि यह पाप है, इसलिए सरकार को इसमें दखल देना चाहिए और तलाक के लिए कानून बनाना चाहिए। दोनों ने कहा कि तीन तलाक पर छह महीने तक रोक लगनी चाहिए, इस बीच में सरकार कानून बना ले और अगर छह महीने में कानून नहीं बनता है तो यह रोक आगे भी जारी रहेगी। लेकिन यह अल्पमत का फैसला है और संवैधानिक व्यवस्था के अनुरूप तीन जजों- जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस नरीमन और जस्टिस यू.यू. ललित का फैसला मान्य होगा।

 

तीन तलाक के नाम पर मुस्लिम महिलाओं के साथ होने वाले अन्याय की आज केवल शुरूआत हुई है लेकिन स्वयं महिलाओं और मुस्लिम समाज को भी अपने अधिकारों और कर्तव्यों को लेकर जागरूक होना होगा। तीन तलाक के खिलाफ से आवाजें हमेशा उठती रहीं हैं, लेकिन मुस्लिम समाज द्वारा इसे धर्म से जोड़ने की वजह से कोई राजनीतिक दल या सरकार इस पर दखल नहीं देती थी। हालांकि भाजपा इस मुद्दे पर शुरू से ही मुखर थी और स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने भाषणों में कई बार तीन तलाक से मिलकर लड़ने की बात कहते रहे हैं।

 

भाजपानीत सरकार बनने के बाद 7 अक्टूबर, 2016 को राष्ट्रीय विधि आयोग ने जब इस मसले पर लोगों की राय मांगी तो मामले में बहस शुरू हो गई और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इसकी पुरजोर खिलाफत की। हालांकि महिला मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने तीन तलाक को समाप्त करने की वकालत की थी और कहा था कि मूल कुरान में कहीं भी तीन तलाक का जिक्र नहीं है, अत: इसे धर्म ले जोड़ना गलत है। 

 

दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले पर खुद संज्ञान लेकर सुनवाई शुरू की थी और बाद में इससे संबंधित 6 अन्य याचिकाएं भी दाखिल हुईं जिनमें से पांच में तीन तलाक को खत्म करने की मांग की गई थी। लगातार सुनवाई में तीन तलाक के विरोध और पक्ष में दलीलें रखी गईं थीं और केंद्र सरकार ने तीन तलाक को महिलाओं के साथ भेदभाव बताते हुए इसे रद्द करने की मांग की थी। 30 मार्च 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने तय किया था कि इससे जुड़ी सभी याचिकाओं पर सुनवाई पांच जजों की संविधान पीठ करेगी, जिसमें सभी धर्मों के जज शामिल होंगे। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस जे.एस. खेहर सिख समुदाय से हैं, जस्टिस कुरियन जोसेफ ईसाई हैं। आर.एफ. नरीमन पारसी हैं तो यू.यू. ललित हिंदू और अब्दुल नजीर मुस्लिम समुदाय से हैं। अदालत ने शुरू में ही कहा था कि यह मसला बहुत गंभीर है और इसे दशकों तक टाला नहीं जा सकता।

 

11 मई 2017 को इस मसले पर संविधान बेंच ने सुनवाई शुरू की थी। 6 दिनों तक इस मामले की लगातार सुनवाई के बाद 18 मई को कोर्ट ने इस पर फैसला सुरक्षित रख लिया। इस दौरान सभी पक्षों ने अपनी-अपनी दलीलें रखीं और मुस्लिम समुदाय के वकील कपिल सब्बल ने इसे पाप और अवांछित माना, लेकिन आस्था का विषय बताते हुए इसकी तुलना अयोध्या की राम जन्मभूमि से कर डाली और पर्सनल लॉ को संविधान का संरक्षण होने की दलील दी और कहा कि इसमें कोर्ट को दखल नहीं देना चाहिए।

 

लेकिन सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि केवल आस्था के आधार पर किसी गैर संवैधानिक कार्य या प्रथा को जारी नहीं रखा जा सकता। सुप्रीम कोर्ट के सामने ये सवाल थे- एक बार में तीन तलाक और निकाह-हलाला धर्म के अभिन्न अंग हैं या नहीं? दोनों मुद्दों को महिलाओं के मौलिक अधिकारों से जोड़ा जा सकता है या नहीं और कोर्ट इसे मौलिक अधिकार करार देकर आदेश लागू करवा सकता है या नहीं? मुस्लिम समाज में प्रचलित तीन तलाक, बहुविवाह और निकाह हलाला कानूनन वैध हैं या नहीं ?

 

सभी पक्षों में सहमति बनी थी कि व्यापक सामाजिक हित के मुद्दे पर जल्द सुनवाई होनी चाहिए। कोर्ट ने पहले ही साफ कर दिया था कि वह केवल मुस्लिम पर्सनल लॉ के कुछ प्रावधानों की संवैधानिक वैधता पर ही सुनवाई करेगा। अदालत यूनिफॉर्म सिविल कोड के मसले पर विचार नहीं करेगी। 2015 में मामले पर संज्ञान लेते वक्त कोर्ट ने कहा था, “हमें यह देखना होगा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ में मौजूद तीन तलाक, बहुविवाह और हलाला जैसे प्रावधान संविधान की कसौटी पर खरे उतरते हैं या नहीं? संविधान हर नागरिक को बराबरी का अधिकार देता है। कहीं इस तरह की व्यवस्था मुस्लिम महिलाओं को इस हक से वंचित तो नहीं करती?” मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जमीयत उलेमा ए हिंद जैसे संगठनों ने भी अर्ज़ी दायर कर अदालत में चल रही कार्रवाई बंद करने की मांग की थी। इन संगठनों की दलील थी कि पर्सनल लॉ एक धार्मिक मसला है। कोर्ट को इसमें दखल नहीं देना चाहिए। केंद्र सरकार ने स्पष्ट स्टैंड लेते हुए कहा था कि पर्सनल लॉ संविधान से ऊपर नहीं है। उसके कुछ प्रावधान महिलाओं के बराबरी और सम्मान के साथ जीने के अधिकार का हनन करते हैं। इन्हें असंवैधानिक करार देकर रद्द कर दिया जाना चाहिए।

 

विभिन्न समुदायों के पर्सनल लॉ में सुधारों के सम्बन्ध में मांग उठती रहती है और समय-समय पर सुधार किये भी जाते रहे हैं और पंडित जवाहर लाल नेहरू ने विधायी परिवर्तनों के माध्यम से हिन्दू पर्सनल लॉ में कई प्रमुख सुधार किये थे। डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार ने अविभाजित हिन्दू परिवार में लैंगिक समानता के संबंध में विधायी परिवर्तन किये थे। इसी प्रकार अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने हितधारकों के साथ सक्रिय विचार-विमर्श के बाद लैंगिक समानता लाने के सम्बन्ध में ईसाई समुदाय से संबंधित विवाह एवं तलाक के प्रावधानों में संशोधन किया था। पर्सनल लॉ में सुधार एक सतत प्रक्रिया है भले ही इसमें एकरूपता न हो। समय के साथ, कई प्रावधान पुराने और अप्रासंगिक हो गए हैं और उन्हें बदला जाता है लेकिन मुस्लिम समाज को लेकर राजनीतिक दलों की राय अलग रहती है और तथाकथित धर्मनिरपेक्षता की आड़ में समाज को बांटने का ही प्रयास करते हैं।

 

जैसे-जैसे समुदायों ने प्रगति की है, लैंगिक समानता का महत्त्व और अधिक बढ़ गया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि सभी नागरिकों, विशेष रूप से महिलाओं को गरिमा के साथ जीने का अधिकार है। मुस्लिम महिलाओं को भी गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकार है और सुप्रीम कोर्ट के आज के आदेश ने एक बार फिर सिद्ध किया है कि भारतीय संविधान सर्वोपरि है और बाकी अन्य रीति-रिवाज, धार्मिक मान्यताएँ, परम्पराएं सब इसके बाद हैं।

 

धार्मिक प्रथाओं, रीति-रिवाजों और नागरिक अधिकारों के बीच एक बुनियादी अंतर है। जन्म, गोद लेने, उत्तराधिकार, विवाह, मृत्यु के साथ जुड़े धार्मिक कार्य मौजूदा धार्मिक प्रथाओं और रीति-रिवाजों के अनुसार संपन्न किये जा सकते हैं। लेकिन परम्पराएं, रीति-रिवाज, धार्मिक मान्यताएं और आस्था जब किसी अपराध या गलत कार्यों के महिमा मंडन का कारण बनने लगें तो उन्हें समाप्त करना या उन पर अंकुश बहुत जरूरी है।

 

सुप्रीम कोर्ट ने पिछले कई दशकों से चली आ रही तीन तलाक की प्रथा को असंवैधानिक करार दिया है लेकिन इसके लिए सरकार को कानून एवं नियम बनाने होंगे क्योंकि केवल असंवैधानिक घोषित करने मात्र से इस पर रोक नहीं लगेगी। इस पर कानून बनने के बाद उसे तोड़ने वाले पर आपराधिक मुकदमा दर्ज करने का प्रावधान करना होगा, तभी यह प्रथा रूकेगी। धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर अत्याचार की इजाजत न भारतीय संविधान देता है और न ही मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड। लेकिन अशिक्षा के कारण समाज में जागरूकता का अभाव है। शिक्षा और जागरूकता से ही अंतत: बुराईयों से छुटकारा मिलेगा। अत: मुस्लिम समाज को शिक्षा पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

 

-सोनिया चोपड़ा

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