By अभिनय आकाश | Sep 30, 2024
रामगोपाल वर्मा कभी आग बनाते थे तो कभी सरकार जैसी सुपरहिट फिल्में भी बनाते थे। जिसकी पहली स्क्रीन पर लिखा होता था कईयों की तरह मैं भी द गॉडफाडर से प्रेरित हूं। लेकिन सबको पता था कि वो असल में प्रेरित किससे थे। उस कॉर्टूनिस्ट से, जिसने शेर की सवारी करके, अस्मिता का नारा देकर महाराष्ट्र की सियासत को बदल दिया था। फिल्म थी सरकार 2005 में आई। पर्दे पर अमिताभ बच्चन सुभाष नागड़े लेकिन लोगों के लिए सरकार लेकिन आवाज किसकी गूंजती थी- बाल ठाकरे। फिक्शन को जब फैक्ट में प्रोजेक्ट करते हैं तो वो जो पूरा प्रोसेस होता था। सरकार फिल्म में कहते है कि नजदीक का फायदा देखने से पहले दूर का नुकसान सोचना चाहिए। हाथ में रूद्राक्ष की माला शेर की दहाड़ वाली तस्वीर और आवाज तानाशाह वाली। सब कुछ राजनीति नहीं थी। राजनीति को खारिज कर सरकारों को खारिज कर खुद को सरकार बनाने या मानने की ठसक थी। जिसके पीछे समाज की उन ताकतों का इस्तेमाल था जिसे पूंजी हमेशा हासिए पर धकेल देती है। शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने अपने जीवन में तीन प्रतिज्ञाएं की थी। एक प्रतिज्ञा ये थी कि वो कभी अपनी आत्मकथा नहीं लिखेंगे। दूसरी प्रतिज्ञा ये थी कि वो कभी किसी तरह का चुनाव नहीं लड़ेंगे और तीसरी प्रतिज्ञा ये थी कि वो कभी कोई सरकारी पद नहीं हासिल करेंगे। सरकार से बाहर रहकर सरकार पर नियंत्रण रखना उनकी पहचान थी।
हिंदू ह्र्दय सम्राट
मुंबई के म्युनिस्पलिटी से अपना राजनीतिक सफर शुरू करने वाली पार्टी प्रदेश और देश की राजनीति के लिए इतनी अहम हो जाएगी किसी ने नहीं सोचा था। उन्होंने सांसद भी बनाए और मेयर बनाए तो मुख्यमंत्री भी। मी मुंबईकर का नारा लगाकर मराठियों को जोड़ा और मी हिंदू की राजनीति कर हिंदू ह्र्दय सम्राट कहलाए जाने लगे। अंग्रेजी का मशहूर फ्रेज है 'either you can agree or disagree but you cannot ignore him.' यानी आप आप सहमत या असहमत हो सकते हैं लेकिन नजरअंदाज नहीं कर सकते। जिस कुर्सी पर हम बैठते हैं वहीं हमारे लिए सिंहासन होता है... ये कथन बाला साहेब ठाकरे के थे। गांधी नेहरू परिवार की राजनीति का विरोध किया, सोनिया के प्रधानमंत्री बनने का विरोध किया, पर जब महाराष्ट्र सरकार के मंत्री आदेश लेकर ही सरकारी काम करते, योजना बनाते तो गर्व महसूस करते।
ब्रिटिश राइटर के नाम से ठाकरे टाइटल लिया गया
23 जनवरी 1926 को पुणे के सदाशिवपिड इलाके के गाड़गिल रोड के पास एक घर हुआ करता था अब वो नहीं है। इसी घर में केशव प्रबोधन ठाकरे और रमाबाई केशव ठाकरे के परिवार में एक बच्चे ने जन्म लिया। उसका नाम रखा गया बाल ठाकरे। बाद में इसी बच्चे को दुनिया बाला साहेब ठाकरे के नाम से जानने लगी। पांच बहने सुधा, पद्मा, सुशीला, सरला और संजीवनी और चार भाई (बाला साहेब, श्रीकांत, रमेश और रामभाई हरणे) के साथ बचपन बेहद सादगी से गुजरा। पिता केशव प्रबोधन ठाकरे समाजसेवी और क्रांतिकारी लेखक थे। कहा जाता है कि ठाकरे टाइटल एक ब्रिटिश राइटर के नाम से लिया गया था। वे ब्राह्मण विरोधी आंदोलन के पक्ष में लिखते और काम करते। जिसकी सजा उन्हें अक्सर मिलती रहती। अक्सर विरोधियों के हमले से घिरे रहते। हालांकि बाला साहेब पर दलित विरोधी होने के आरोप लगे। पिता को अपने बात पर ऐसे हालात के बावजूद अपनी बात पर टिके रहने की वजह से प्रबोधांकर की टाइटल दी गई थी। बाला साहेब पर बचपन से अपने पिता का प्रभाव पड़ा। भाईयों में सबसे बड़े होने की वजह से वो अपनी उम्र से ज्यादा समझदार समझे गए। सामाजिक व्यस्था के बावजूद बाला साहेब के पिता हर बच्चे की क्षमताओं का पूरा ख्याल रखते। पिता रोज नन्हे बाल ठाकरे को कॉर्टून का गुण सिखाते। जब बाल ठाकरे अच्छा स्कैचिंग करने लगे तो पिता ने उन्हें स्याही औऱ कुची लाकर दी और फिर ठाकरे की जिंदगी को दिशा मिल गई। पिता के डॉयरेक्शन में ठाकरे कॉर्टूनिस्ट बन रहे थे इसी बीच परिवार पुणे से मुंबई शिफ्ट हो गया। इतने बड़े परिवार को पालने के लिए पिता जद्दोजहद में लगे। बच्चें अपनी रफ्तार से आगे बढ़ने लगे। बाला साहेब के भाई और राज ठाकरे के पिता श्रीकांत ठाकरे की संगीत में रूचि देखकर पिता ने उन्हें इसी क्षेत्र में आगे बढ़ाया। देश आजादी की लड़ाई में जुटा था और मुंबई में भी अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष जारी था।
मराठी मानुष और नौकरियां
1961 के दौर में मराठी प्रभुत्व वाले महाराष्ट्र में हर काम के लिए मराठी भाषकों की खोज हो रही थी। आकाशवाणी की बिल्डिंग के अंदर मराठी प्रोग्राम में मराठी भाषकों की कमी के चलते इस बिल्डिंग के अंदर काम काज को बंद करना पड़ा। जब ये बात बाल ठाकरे को पता चली तो उन्होंने अपने मार्मिक के अंदर एक सीरिज चलाई। हर ऑफिस के अंदर काम करने वाले मराठी और गैर मराठियों की पूरी लिस्ट छापी, जिसका शीर्षक था- देखो और चुप बैठे रहो। सीरिज के टाइटल बदलते गए बेरोजगार मराठी युवक बाला साहब से जुड़ते गए। महाराष्ट्र में मराठी पहले का आंदोलन काफी तेज हो गया। इस आंदोलन के जरिये बाला साहेब मुंबई और महाराष्ट्र के हर घर में पहुंच गए। मराठियों के लिए कुछ करने की मांग और इरादा आपस में मिल गए और शिवसेना की धुंधली तस्वीर उभरने लगी।
राजनीति में एंट्री
शिवसेना का पहला सियासी इम्तिहान ठाणे म्युनिसिपल चुनाव में हुआ। शिवसेना ने इस चुनाव में 40 में से कुल 15 सीटों पर कब्जा जमा लिया। ये जीत शिवसेना के लिए एक बड़ा संकेत था। गिरगांव और दादर की जनता ने बाल ठाकरे पर भरोसा जताया। इस चुनाव के बाद बाल ठाकरे मराठियों के घोषित नेता बन चुके थे। शिवसेना के लिए ये एक बड़ा राजनीतिक मुकाम था। 1985 से शिवसेना जो बीएमसी पर काबिज हुई तो उसे आज तक कोई हिला नहीं सका। महाराष्ट्र के निकायों में शिवसेना का वर्चस्व ही उसका सियासी भविष्य बन गया। साल 1989 में जब शिवसेना को लगने लगा की राष्ट्रीय फलक पर छाना है तो किसी राष्ट्रीय पार्टी के साथ जुड़ना होगा और पार्टी ने भाजपा का दामन थाम लिया। बाल ठाकरे के हिंदुत्व में जो प्रखरता और धार थी, वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक के लिए मुफीद थी।
उद्धव को बनाया उत्तराधिकारी, राज ठाकरे ने पकड़ी अलग राह
महाराष्ट्र की सियासत पर राज करने वाले बाल ठाकरे वक्त के साथ बदलती राजनीति को महसूस करने लगे थे। बूढ़े होते बाल ठाकेर अपनी आखों के सामने अपने तिलस्म को टूटते हुए देख रहे थे। लेकिन सत्ता का मिजाज अब बदल चुका था। सियासत की विरासत सौंपने का संकट भी उनके सामने था। बालासाहब ठाकरे के दबाव के चलते उद्धव ठाकरे 2002 में बीएमसी चुनावों के जरिए राजनीति से जुड़े और इसमें बेहतरीन प्रदर्शन के बाद पार्टी में बाला साहब ठाकरे के बाद दूसरे नंबर पर प्रभावी होते चले गए। पार्टी में कई वरिष्ठ नेताओं की अनदेखी करते हुए जब कमान उद्धव ठाकरे को सौंपने के संकेत मिले तो पार्टी से संजय निरूपम जैसे वरिष्ठ नेता ने किनारा कर लिया और कांग्रेस में चले गए। 2005 में नारायण राणे ने भी शिवसेना छोड़ दिया और एनसीपी में शामिल हो गए। बाला साहब ठाकरे के असली उत्तराधिकारी माने जा रहे उनके भतीजे राज ठाकरे के बढ़ते कद के चलते उद्धव का संघर्ष भी खासा चर्चित रहा। यह संघर्ष 2004 में तब चरम पर पहुंच गया, जब उद्धव को शिवसेना की कमान सौंप दी गई। जिसके बाद शिवसेना को सबसे बड़ा झटका लगा जब उनके भतीजे राज ठाकरे ने भी पार्टी छोड़कर अपनी नई पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बना ली। 2009 की दशहरा रैली जब बाल ठाकरे सामने आए तो पोते आदित्य को भी सियासी मैदान में उतार दिया। हालांकि राज ठाकरे का पार्टी छोड़कर जाने का दुख बाल ठाकरे को हमेशा से रहा। वहीं उद्धव ठाकरे पॉलिटिक्स में आने से पहले एक लेखक और फोटोग्राफर के तौर पर पहचान रखते थे।