Gyan Ganga: स्वयंप्रभा ने माता सीताजी को खोजने में जुटे वानरों को राह दिखाई थी

By सुखी भारती | Sep 09, 2021

इससे पहले कि हम कथा प्रसंग की पगडंडी पकड़कर आगे बढ़ें, हमें विगत अंक में घटित वाकयों पर दृष्टिपात करना आवश्यक है। कारण कि प्रभासाक्षी में बह रही यह श्रीराम कथा का उद्देश्य मात्र यह नहीं कि सीधे-सीधे जो कथा, श्रीराम चरितमानस में लिखित है, उसे वैसी की वैसी लिखकर आपके समक्ष प्रस्तुत कर देना। ऐसे लिखी हुई कथा तो, आप स्वयं भी श्रीराम चरित मानस में अध्यन कर सकते हैं। इससे आपको कथा का शाब्दिक ज्ञान तो निश्चित ही हो जायेगा। किंतु आप भावनात्मक व आध्यात्मिक ज्ञान से निश्चित ही वंचित रह जायेंगे। कारण कि प्रभु की कथा भी तभी आत्मिक चिंतन को लेकर अग्रसर होती है, जब वह किसी संत महापुरुष के सान्निध्य में बैठकर श्रवण की जाये। और हमें यह कहने में बड़ा गर्व व आनंद की अनुभूति हो रही है, क्योंकि प्रभासाक्षी के मंच तले ‘प्रभु महिमा’ नामक स्तंभ भी ऐसे ही विद्वत संत-महात्माओं के सान्निध्य में बैठकर ही संकलित व लिप्पिबद्ध किया जा रहा है।

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चलिए मूल विषय पर लौटते हैं। हमने जैसा कि विगत अंक में पढ़ा, कि समस्त वानर श्रीहनुमान जी के पीछे-पीछे पर्वत से दिखाई प्रतीत हो रही एक गुफा में प्रवेश करते हैं। वह गुफा ऐसी विचित्र है कि सभी वहाँ घटने वाले घटनाक्रमों से आश्चर्य में पड़ जाते हैं। आश्चर्य यह कि पहली बात तो उस गुफा में कोई एक प्रकार के पक्षी के दाखिल होने का दृश्य नहीं था। अपितु उस गुफा में अगर हंस प्रवेश कर रहे हैं, तो साथ में बगुले भी प्रवेश कर रहे हैं। केवल यही नहीं, वहां समस्त ऐसे दृश्य थे, जिन्हें यूँ ही आश्चर्य की दृष्टि से देखा जा सकता था। दूसरा एक आश्चर्य युक्त दृश्य यह था, कि उस गुफा में पक्षी प्रवेश तो कर रहे थे, लेकिन गुफा से बाहर एक भी पक्षी नहीं निकल रहा था। संत जन इस संस्मरण की व्याख्या करते कहते हैं, कि वह गुफा वास्तव में सतसंग स्थली है। जहाँ संत जन बैठ कर सतसंग विचारों की गंगा का प्रवाह अपने श्रीमुख से अनव्रत करते रहते हैं। सतसंग ही ऐसा स्थल है, जहाँ विभिन्न प्रकार की प्रविृत्तियों के जीव एक साथ वहाँ बैठ जाया करते हैं। भले ही समस्त जीवों के आचार-विहार व गुण-दोष पूर्णतः विलग हों। तब भी संत जनों की यह कृपा व प्रभाव होता है, कि सभी एक ही घाट का पानी पीते हैं। सतसंग ही एक ऐसी पावन स्थली है, जहाँ पर जाता तो अवश्य है, लेकिन फिर वापिस बाहर नहीं निकलता। वह वहीं का ही होकर रह जाता है। मानो जीव रूपी बूंद, सतसंग रूपी सागर में डुबकी तो भले ही लगाती है, लेकिन फिर उसे सागर से बाहर वापिस निकलते, किसी ने भी नहीं देखा होता। यहां वानरों के मन में दो संकल्प उठ सकते थे। पहला यह कि या तो वे सभी इससे भयभीत हो अपना रास्ता बदल लेते अथवा उस गुफा में जिज्ञासा वश प्रवेश करते। प्रभु दया से क्योंकि सभी के भक्ति संपन्न संस्कार थे, तो सबने उस गुफा में प्रवेश करने का रास्ता चुना। और जैसे ही सब गुफा में प्रवेश करते हैं, तो सामने क्या देखते हैं-


‘दीख जाइ उपबन बर सर बिगसित बहु कंज।

मंदिर एक रुचिर तहँ बैठि नारि तप पुंज।।’


अंदर जाकर उन्होंने एक सुंदर उपवन और एक तालाब देखा। जिसमें बहुत से कमल खिले हुए थे। वहीं एक सुंदर मंदिर था, जिसमें एक तपोमूर्ति स्त्री बैठी हुई थी। और यह उन तपस्विनी के तप का ही प्रताप था, कि भिन्न-भिन्न जाति व स्वभाव के जीव होते हुए भी, सभी यहाँ एक साथ आकर बैठ रहे थे। उन तपस्विनी के श्रीमुख पर अथाह शांति व स्नेह था। प्रत्येक वानर की दृष्टि उन महान तप की पुंज, पूज्य तपस्विनी पर श्रद्धा भाव से टिकी थी। सभी ने अपने-अपने स्थान पर खड़े-खड़े ही प्रणाम किया-

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‘दूरि ते ताहि सबन्हि सिरु नावा। पूछे निज बृत्तांत सुनावा।।’


स्वयंप्रभा ने सभी का प्रणाम स्वीकार किया और वहीं से कहा कि पहले सभी जलपान करो और भाँति-भाँति के रसीले सुंदर फल खाओ- ‘तेहिं तब कहा करहु जल पाना। खहु सुरस सुंदर फल नाना।।’ कमाल है! वानरों के समक्ष महान तपस्विनी विराजमान हैं। उन्हें वानरों को कोई भक्ति का संदेश देना चाहिए था। लेकिन उन तपोमूर्ति ने तो ऐसा कुछ भी नहीं कहा। बल्कि कहती हैं कि हे वानरों! सबसे पहले तो तुम सभी लोग जल पीओ, और फल खाओ। अर्थात ‘भजन’ नहीं, अपितु ‘भोजन’ मानो वे संसार को संदेश देना चाह रही थी कि परमात्मा की भक्ति करने के लिए अन्न जल त्यागने की आवश्यक्ता नहीं है। संत जन कहते भी हैं-


‘भूखे भजन न होयें गोपाला। 

ले लो अपनी कंठी माला।’ 


इसलिए उन पूजनीय तपोमूर्ति साध्वी स्वयंप्रभा ने वानरों को सर्वप्रथम भोजन करने को कहा। महात्मा बुद्ध भी जिस समय प्रभु मिलन की आस लिए वनों में विहार करते संत सुजाता से भेंट करते हैं, तो वे भी महात्मा बुद्ध को पहले खीर ही खिलाती हैं। कारण कि लंबे अंतराल के व्रत-उपवासों से महात्मा बुद्ध की, शारीरिक स्थिति अतिअंत दयनीय हो चुकी थी। सभी वानर भोजन व स्नानादि से निवृत होकर उन तपोमूर्ति के समक्ष बैठते हैं और अपने उद्देश्य से परिचित कराते हैं। स्वयंप्रभा भी प्रभु श्रीराम जी के चरणों में अपनी अटूट श्रद्धा व प्रेम की गाथा सुनाती हैं। लेकिन साथ में कह देती हैं कि अगर श्रीसीता जी को आप खोजना चाहते हैं, तो कहाँ दौड़ रहे हैं। माता सीता जी को तो ऐसे खोजा ही नहीं जाता, जैसे आप खोज रहे हैं। सभी वानर एक दूसरे की और देखने लगे। तब तपोमूर्ति माता स्वयंप्रभा कहती हैं कि सबसे पहले तो अपनी आंखों की मुद्रा बदलनी पड़ेगी। क्योंकि जिस तरीके से आप श्रीसीता जी को देखना चाह रहे हैं। वैसे तो उन्हें देखा ही नहीं जाता। तो कैसे श्रीसीता जी के मार्ग का रास्ता प्रशस्त होगा, मैं आपको बताती हूँ। 

 

तपोमूर्ति वारनों को क्या मार्ग बताती हैं, जानेंगे अगले अंक में...(क्रमशः)...जय श्रीराम...!


- सुखी भारती

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