By प्रज्ञा पाण्डेय | Mar 05, 2024
आज स्वामी दयानंद सरस्वती जयंती है। स्वामी जी महान समाज सुधारक थे तथा उन्होंने समाज सुधार आंदोलन हेतु प्रयास किए तो आइए हम आपको उनके जीवन के विविध पहलुओं से अवगत कराते हैं।
दयानंद सरस्वती का प्रारम्भिक जीवन
स्वामी जी का जन्म फाल्गुन कृष्ण पक्ष की दशमी को हुआ था भारत के प्रमुख समाज-सुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म गुजरात के काठियावाड़ जिले में फाल्गुन मास की कृष्ण दशमी को 1824 में हुआ था। मूल नक्षत्र में जन्म लेने के कारण पिता ने उनका नाम मूलशंकर रखा दिया था। उनकी माता का नाम अमृतबाई और पिता का नाम अंबाशकर तिवारी था। उन्होंने 1846 में 21 वर्ष की अवस्था में संन्यास धारण कर अपने घर से विदा ले ली थी। उनके गुरु विरजानंद थे। तिथि के अनुसार उनकी जयंती 5 मार्च 2024 को है।
स्वामी दयानंद सरस्वती के बारे में जाने विशेष बातें
स्वामी जी ब्राह्मण घर में जन्म लेने के कारण सदैव अपने पिता जी के साथ धार्मिक कार्यक्रमों में सम्मिलित होते थे। एक बार वह अपने पिता के साथ शिवरात्रि के कार्यक्रम में शामिल हुए थे। जहां रात्रि जागरण के दौरान उन्होंने देखा की भगवान शिव के भोग की थाली को चारों तरफ से चूहों ने घेर रखा है। यह देखकर दयानंद सरस्वती का मन बहुत उद्वेलित हुआ। साथ ही छोटी बहन तथा चाचा की हैजे से मौत ने उनके अंदर के वैराग्य को जगा दिया और वह ज्ञान की खोज में निकल पड़े।
आर्य समाज के बारे में कुछ रोचक बातें
स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने सन 1875 में 10 अप्रैल गुड़ी पड़वा के दिन मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की थी। 1892-1893 ई. में आर्य समाज में दो भागों में विभाजित हो गई। उसके बाद दो दलों में से एक ने पाश्चात्य शिक्षा का समर्थन किया। इस दल में लाला हंसराज और लाला लाजपत राय इत्यादि दो प्रमुख नेता थे। इन्होंने 'दयानन्द एंग्लो-वैदिक कॉलेज' की स्थापना की। इसी प्रकार दूसरे दल ने पाश्चात्य शिक्षा का विरोध किया जिसके परिणामस्वरूप विरोधी दल के नेता स्वामी श्रद्धानंद जी ने 1902 ई. में हरिद्वार में एक गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना की। इस संस्था में वैदिक शिक्षा प्राचीन पद्धति से दी जाती थी।
शिवरात्रि के दिन मिला था स्वामी जी को ज्ञान
संवत 1895 में फाल्गुन कृष्ण के दिन शिवरात्रि को उनके जीवन में नया मोड़ आया। उन्हें नया बोध प्राप्त हुआ। वे घर से निकल गए और गुरु विरजानन्द के पास पहुंचे। गुरुवर ने विभिन्न ग्रंथों का अध्ययन कराया। साथ ही उन्होंने गुरु दक्षिणा मांगा- विद्या को सफल कर दिखाओ, सत्य शास्त्रों का उद्धार करो, परोपकार करो, मत मतांतरों की अविद्या को मिटाओ, वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र विकीर्ण करो तथा वेद के प्रकाश से इस अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करो। उन्होंने आशीर्वाद दिया कि ईश्वर उनके पुरुषार्थ को सफल करें।
दयानंद सरस्वती की सुधार आंदोलन में रही विशेष भूमिका
भारत में फैली कुरीतियों को दूर करने के लिए 1876 में हरिद्वार के कुंभ मेले के अवसर पर पाखण्डखंडिनी पताका फहराकर पोंगा-पंथियों को चुनौती दी थी। आर्य समाज एक हिन्दू सुधार आंदोलन है। इस समाज का उद्देश्य वैदिक धर्म को पुन: स्थापित कर संपूर्ण हिन्दू समाज को एकसूत्र में बांधना है। आर्य समाज जातिप्रथा, छुआछूत, अंधभक्ति, मूर्तिपूजा, बहुदेववाद, अवतारवाद, पशुबलि, श्राद्ध, जंत्र, तंत्र-मंत्र, झूठे कर्मकाण्ड आदि के सख्त खिलाफ है ।
शुद्धि आंदोलन में स्वामी जी रही अहम भूमिका
स्वामी जी ने उन हिन्दुओं हेतु शुद्धि आंदोलन चलाया जो किसी कारण वश मुस्लिम या ईसाई बन गए थे। उन्होंने उन लोगों को पुन: हिन्दू बनने की प्रेरणा देकर शुद्धि आंदोलन चलाया। दयानंद सरस्वती द्वारा चलाए गए 'शुद्धि आन्दोलन' के अंतर्गत उन लोगों को पुनः हिन्दू धर्म में आने का मौका मिला जिन्होंने किसी कारणवश इस्लाम या ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था।
दयानंद सरस्वती की रचनाएं भी हैं महत्वपूर्ण
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने कुछ विशेष प्रकार की पुस्तकें भी लिखी थी उनमें सत्यार्थ प्रकाश, यजुर्वेद भाष्य, पंचमहायज्ञ विधि, ऋग्वेद भाष्य, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदांग प्रकाश, आर्याभिविनय, संस्कार विधि, गो-करुणानिधि, संस्कृतवाक्यप्रबोध, भ्रान्ति निवारण, अष्टाध्यायी भाष्य, और व्यवहारभानु प्रमुख है ।
स्वामी जी ने समाज के लिए किए महान कार्य
स्वामी जी एक भारतीय दार्शनिक, सामाजिक नेता और आर्य समाज के संस्थापक थे। आर्य समाज वैदिक धर्म का एक सुधार आंदोलन है और वह वर्ष 1876 में "भारत भारतीयों के लिये" के रूप में स्वराज का आह्वान करने वाले पहले व्यक्ति थे। वह एक स्व-प्रबोधित व्यक्ति और भारत के महान नेता थे जिन्होंने भारतीय समाज पर व्यापक प्रभाव छोड़ा। उनके द्वारा आर्य समाज की पहली इकाई की स्थापना औपचारिक रूप से 1875 में मुंबई (तब बॉम्बे) में की गई थी और बाद में इसका मुख्यालय लाहौर में स्थापित किया गया था। उनके एक अखंड भारत के दृष्टिकोण में वर्गहीन और जातिविहीन समाज (धार्मिक, सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर) तथा विदेशी शासन से मुक्त भारत शामिल था, जिसमें आर्य धर्म सभी का सामान्य धर्म हो। उन्होंने वेदों से प्रेरणा ली और उन्हें 'भारत के युग की चट्टान', ‘हिंदू धर्म का अचूक और सच्चा मूल बीज’ माना। उन्होंने "वेदों की ओर लौटो" का नारा दिया। उन्होंने चतुर्वर्ण व्यवस्था की वैदिक धारणा प्रस्तुत की इसके अनुसार किसी भी व्यक्ति के वर्ण का निर्धारण उसकी जाति के अनुसार नहीं बल्कि उसके द्वारा पालन किये जाने वाले व्यवसाय के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र के रूप में पहचाना जाता था।
भारतीय शिक्षा प्रणाली में स्वामी जी का रहा खास योगदान
स्वामी जी ने शिक्षा प्रणाली में पूरी तरह से बदलाव की शुरुआत की और उन्हें आधुनिक भारत के दूरदर्शी लोगों में से एक माना जाता है। स्वामी दयानंद सरस्वती के दृष्टिकोण को साकार करने के लिये वर्ष 1886 में डीएवी (दयानंद एंग्लो वैदिक) स्कूल अस्तित्व में आए। पहला डीएवी स्कूल लाहौर में स्थापित किया गया और महात्मा हंसराज इसके प्रधानाध्यापक थे।
स्वतंत्रता आंदोलन में रही महत्वपूर्ण भूमिका
स्वामी दयानंद सरस्वती ने स्वतंत्रता आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभायी। ऐसा माना जाता है कि 1857 में स्वतंत्रता-संग्राम में भी स्वामी जी ने राष्ट्र के लिए जो कार्य किया वह सदैव मार्गदर्शन का काम करता रहेगा। दयानंद सरस्वती जी ने अंग्रेजों के खिलाफ कई अभियान चलाए "भारत, भारतीयों का है' उन्हीं में से एक आंदोनल था। उन्होंने अपने प्रवचनों के द्वारा भारतवासियों को राष्ट्रीयता का उपदेश दिया तथा भारतीयों को देश पर मर मिटने के लिए प्रेरित करते रहे।
- प्रज्ञा पाण्डेय