आजाद के सात दशक बीतने को आ गए लेकिन अनुसूचित जातियों व जनजातियों पर होने वाले अत्याचार जस के तस हैं। जो बातें बाकी सब कथित सजातीय वर्गों के लिए सामान्य और रोजमर्रा की भुला दी जाने वाली होती हैं। वहीं दलितों के जीवन की फांस और जीवन भर न भुलाने वाला अपमान बन जाती है। अभी हरियाणा में एक दलित युवा को शादी में घोड़ी पर चढ़ने से रोका गया क्योंकि बड़ी जात का होने का अहंकार जिनमें था उन्होंने कहा कि यह अधिकार सिर्फ उनका है। युवक शादी करा रहा है, उसकी दुल्हन सौ सपने, अरमान, रोमांच लिए अपने वर के शान से आने की प्रतीक्षा कर रही है, तभी ये अचानक बड़ी जात के अहंकारी राक्षस वर का अपमान करते हैं। शादी तो हो ही गयी- लेकिन शादी के वक्त जो अपमान-अकारण, अवैध अधर्म के साथ किया गया, वह क्या दलित नवदम्पति जीवन भर भूल पाएंगे? यह तो फिर भी कम ही है- उन युवा दलित नौजवानों और उनके प्रमुख नेताओं के साथ जौनसार बाबा के पोखरी गांव में शिलगुर मंदिर के उत्सव में गया। वे दलित कई माह से लगातार मेरे पास आ रहे थे। उनकी शिकायत थी कि जब भी वे गांव जाते हैं, उनको गालियां दी जाती हैं, मंदिर के दर्शन से रोका जाता है, उनकी बस्तियां गांव के निचले इलाके में बनायी गई हैं, और उनके बच्चों को जौनसार में आमतौर पर बंधुआ मजदूर के नाते रखे जाने की पुरानी परम्परा है। यह इलाका अलग विश्व है। ठाकुर, ब्राह्मण बहुत होते हुए भी एक अनोखी विधान व्यवस्था में सबको जनजातीय घोषित कर दिया गया है- यहां द्रौपदी की परम्परा- महाभारत की जीवन्त कथाएं- बहुपतिवाद (पालि-एन्ट्री) का चलन भी रहा। दलितों के प्रति हेय दृष्टि सामान्यतः चलन में है। इस परिदृश्य में मैंने उन दलितों के साथ मंदिर चलने के लिए स्वीकृति दे दी। प्रशासन और पुलिस को मैं सूचित कर ही चुका था।
देहरादून से छः घंटे के पहाड़ी, थका देने वाले सफर के बाद जब हम पोखरी गांव पहुंचे तो पूरी पहाड़ी पर हजारों लोग रंग-बिरंगे वस्त्रों में दिखे। उत्सवी माहौल था। तनिक ऊंची पहाड़ी पर हल्की चढ़ाई के बाद मंदिर व उसका सुंदर प्रांगण था। चारों ओर की प्रकृति मनोरमा मन को रोमांचित करती थी। शिवालिका उपत्यकाओं में उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत की छटा अद्भुत और मंत्रमुग्ध करती है। पर यह सिर्फ उनको आनंदित और उल्लसित कर सकती है जो उस पर्व की मुख्य जाति धारा में शामिल हैं। जो उसमें नहीं हैं, वे हैं त्याज्य, अस्पृश्य, मलिन और बहिष्कृत। उन्हीं के लिए डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर ने बहिष्कृत-भारत पत्रिका निकाली थी। रंग-उत्सव का आनंद उनके लिए है जो शामिल हैं- मैं उनमें था- लेकिन मेरे साथ प्रायः सौ नौजवान ऐसे थे- जो बहिष्कृत थे। उन्होंने कहा कि वे जीवन में पहली बार इस मंदिर की ओर जाने का साहस कर रहे हैं क्योंकि मैं उनके साथ हूं। क्या इस अहसास को कोई और महसूस कर सकता है? मुझे किसी मंदिर, पूजा, अनुष्ठान आदि में जीवन भर हमेशा शामिल किया जाता रहा- सम्मान सहित। कभी बहिष्कृत होने का अनुभव हुआ ही नहीं। पर जिन्हें हमेशा हाल के भीतर आने, साथ में प्याले में चाय पीने, मंदिर में पूजा करने से रोका गया- बताया गया तुम बहिष्कृत हो- जिनकी आवाज सुनाने के लिए डॉ. अम्बेडकर को हिंदू धर्म छोड़ने पर विवश होना पड़ा। वे मेरे साथ बहुत सशंकित और सहमे हुए चल रहे थे। वह क्षण मेरे लिए एक नए संसार में झांकने का थ। उनका भय मुझ में भी समाने लगा।
मुझे लगने लगा मैं कुछ गलत काम कर रहा हूं। इन लोगों के पचड़े में व्यर्थ में, नाहक फंस रहा हूं। उन्हें अपनी लड़ाई अपने दलित नेताओं के साथ लड़ने दी जाए। मुझे क्या? वे मेरे मतदाता नहीं, संभवतः मेरे दल के भी नहीं, मेरे चुनाव के लिए महत्वपूर्ण नहीं, ब्राह्म्णवादी अहंकारी लेखकों, नेताओं, अफसरों से मेरी दुश्मनी करवा देंगे और दोष मुझ पर ही मढ़ा जाएगा। पर फिर भी मैं बढ़ा। मुझे लगा- सबको मेरे विरुद्ध होने दो, पर यदि मैं स्वीकार कर सकता हूं कि एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से जाति के कारण बड़ा है तो मुझ पर धिक्कार होगा।
हम मंदिर में पहुंचे। देहरी पर से ही चढ़ावा चढ़ाया- मेरे साथ दलित नेता दौलत कुंवर व उनकी पत्नी सरस्वती थीं। उन्होंने दो बार पुजारी से कहा कि टीका लगा दो- फिर लगाया। हमने देव डोली की भी पूजा की, ढोक चढ़ायी- दलित युवा भी डरते-डरते स्पर्श कर मेरे साथ लौटने लगे कि बिजली की गति से नारे लगे- हमारे विरुद्ध और तीन-चार सौ भक्तों की भीड़ एक टूटे बांध की तरह हम पर गिर पड़ी। हमारे सुरक्षाकर्मी घेरा बनाकर जल्दी से नीचे ले जाने लगे- 'सर भागिए- ये लोग कुछ भी करेंगे।' तब तक नारे जंगलीनुमार हो गए- हम जूते भी न पहन पाए- पहाड़ी से नीचे भागने लगे। तभी ओलों की तरह पत्थर पड़ने लगे। जिसके हाथ में जो था वह मारने लगा। हम एक गाड़ी के पीछे जान बचाने छिपे, वे गाड़ी पर चढ़ पत्थर मारने लगे- गाड़ी पहाड़ के नीचे लुढ़का दी- फिर हम भागे- एक चलती मारूति में शरण ली- वह भी आधे रास्ते उतारकर डर के मारे भाग गया। वहीं पीडब्ल्यूडी का काम चल रहा था- उनके मेट की टिन-हट थी। उसमें छिप गए। पीछे से लोग हमारा नाम लेकर मारने की धमकी देते आ रहे थे। मेट ने अपना शाल दिया- मेरे साथ भाजपा कार्यकर्ता विपुल अग्रवाल थे, उनके कपड़े फट गए, उनको पीटा गया था, मेरे सर से लगातार खून बह रहा था, उस पर पट्टी बांधी- पीडब्ल्यूडी के मेट व ड्राइवर ने मुझे अपना शाल दिया, गरम पानी दिया। उसका नाम था उमर। मुरादाबाद का मुस्लिम। प्रभु कैसी नियति। हिन्दू, हिन्दू को ही पत्थर से मार रहे थे। पुलिस ने हिफाजत की। उन्होंने एम्बुलेंस तक आने में बाधा डाली। अन्ततः सुरक्षा घेरे में एम्बुलेंस आयी- सेना के अस्पताल में सर में टांके लगे- देहरादून रात डेढ़ बजे पहुंचे।
घटना हो गयी। घाव रह जाएगा। जिस देश में आज की यह स्थिति हो कि मंदिर दर्शन के लिए पत्थर झेलने पड़ें, जहां हिन्दू ही हिन्दू के प्रति इतनी तीव्र घृणा और असहिष्णुता दिखाएं वहां विवेकानंद और अम्बेडकर को कहां-कहां पढ़ाएं? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के सभी वरिष्ठ नेताओं ने इस घटना का निषेध किया, संदेश भेजे, मनोबल बढ़ाया और भरपूर साथ दिया। संघ के सरकार्यवाह श्री भैयाजी जोशी ने स्वास्थ्य लाभ की कामना करते हुए लिखा- आप सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ रहे हैं। वैंकय्या जी, राम माधव, नितिन गड़करी, जितेन्द्र सिंह जी, सुशील मोदी सब साथ रहे। श्री रामविलास पासवान, मायावतीजी, जनार्दन द्विवेदी, अहमद पटेल, सचिन पायलट, डी. राजा, कनोमोझी सबने साथ दिया।
लेकिन इस मानसिकता का क्या करें जो जाति और अभेद्य दीवार बनकर दलित दमन की आवाजों को दबाने लगती है? इस कथित सजातीय अहंकार के पुरोधाओं को दलितों के प्रति बेहद घृणा और उनके मन में गहरे तिरस्कार का भाव है। वर्ष 2014 में अनुसूचित जातियों व जनजातियों पर अत्याचार के कुल 1,40,068 (एक लाख चालीस हजार) से अधिक मामले दर्ज हुए। उनमें से एक लाख उन्नीस हजार से कुछ अधिक अदालतों में आगे बढ़े। चौदह हजार से ज्यादा मामलों में आरोपी दोषमुक्त हो गए। केवल 5710 (28.8 प्रतिशत) मामलों में ही निचली अदालतों में सजा मिली। बरसों थका देने वाली न्यायिक प्रक्रिया दलितों को वैसे ही तोड़ देती है। दलितों का साथ देने वाले सजातीय अभेद्य दीवार द्वारा समाज से बहिष्कृत हो जाते हैं। सजावटी, नकली सहानुभूति का दौर है।
आजादी के सात दशक बीतने को आ गए लेकिन अनुसूचित जातियों व जनजातियों पर होने वाले अत्याचार जस के तस हैं। जो बातें बाकी सब कथित जनजातीय वर्गों के लिए सामान्य और रोजमर्रा को भुला दी जाने वाली होती है वहीं दलितों के जीवन की सोच और जीवन भर न भुलाने वाला अपमान बन जाती है। अभी हरियाणा में एक दलित युवा को शादी में घोड़ी पर चढ़ने से रोका गया क्योंकि बड़ी जात का होने का अहंकार जिनमें था उन्होंने कहा कि वह अधिकार सिर्फ उनका है। यह तो फिर भी कम ही है उन घटनाओं की तुलना में जिनमें दलितों के घर जला दिए जाते हैं, मार देते हैं, उनकी महिलाओं से अपमान करते हैं फिर भी कुछ नहीं होता। पुलिस, राजनेता, संगठन- सब उन्हीं तमाम सजातीय वर्ग से भरे होते हैं जिनके लिए दलितों का अपमान, अपमान नहीं, उनको द्वितीय दर्जे का जाना जाना कोई बड़ी बात नहीं। उनको अलग बस्तियों में बसाना एक सामान्य आम परम्परा का विषय होता है।
किसी भी प्रांत में चले जाइए, जहां भी दलितों पर अन्याय होता है और वे उसके विरुद्ध आवाज उठाने का प्रयास करते हैं तो तीन प्रकार की प्रतिक्रियाएं होती हैं- 1. वे झूठ बोल रहे हैं, 2. उनकी बात में तथ्य कम और अतिशयोक्ति ज्यादा है, 3. मामला जाति का नहीं बल्कि आपसी रंजिश का है जो इसे जाति का विषय बता रहे हैं वे सरकार को बदनाम करने का प्रयास कर रहे हैं।